तू इधर-उधर की न बातकर
ये बता कि काफ़िला क्यों लूटा
हमें रहजनों से गिला नहीं
तेरी रहबरी का सवाल है
अभी के लिए बड़ा ही मौजूँ शेर है, जेएनयू के छात्रसंघ पर फिट बैठेगा. उस छात्रसंघ पर जो कहता है कि सरकार जेएनयू को ध्वस्त कर रही है. जब ध्वस्त ही कर रही है तब आप बचाने की लड़ाई क्यों नहीं लड़ रहे हैं? जबकि आपको इसी लिए चुना जाता है. आप अपने घर की आग बुझाने की बजाए हमेशा सरकार के ख़िलाफ़ जनमत बनाने में ही क्यों लगे रहते हैं? आज अगर जेएनयू की स्थिति पहले सी नहीं रही तो इसके लिए केंद्र सरकार अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकती, लेकिन कैम्पस में छात्रों की स्थानीय सरकार होने के नाते पहला सवाल तो आपसे ही होगा!
जेएनयू के सालाना छात्र संघ चुनावों का समय अब हो आया है. सितम्बर के दूसरे सप्ताह में ये संभावित है. पूरा कैम्पस गुलज़ार है. वाम दलों की ओर से ढोल–ढपली बजाए जा रहे हैं और राष्ट्रवादी पार्टी की ओर से अपने भावी मतदाताओं को पाले में करने के लिए तरह–तरह के आकर्षक नारेवारे जा रहे हैं.
पिछले महीने शुरू हुए शैक्षणिक सत्र से पहले राज्यसभा की तरह यहाँ के एक तिहाई छात्र अपने खट्टे–मीठे अनुभवों के साथ यहाँ से विदा ले चुके हैं, और इतने ही नए लोगों का आगमन भी हुआ है. यही एक तिहाई नए लोग अगले महीने बनने वाले नए छात्र संघ के लोगों को चुनने में अहम भूमिका निभाएँगे. यहाँ की राजनीति और उसके असर को ठीक से जान-पहचान और परख चुके यहाँ के पुराने छात्रों के मुक़ाबले नए लोगों को अपने पाले में करना किसी भी राजनीतिक दल के लिए ज़्यादा आसान होता है.
जनता के वोट से चुनी हुई कोई भी व्यवस्था उसके लिए ज़िम्मेदार होती है. अपनी सत्ता के आख़िरी दिनों में जनता के दरबार में उसे अपने कार्यकाल की उपलब्धियों का हिसाब देना होता है. मगर ऐसा लगता है जैसे अब छात्रसंघों को ऐसे किसी काम का हिसाब देने की कोई ज़रूरत नहीं रह गई है. ख़ासतौर से जेएनयूएसयू को तो और नहीं!
सन 2012 से देश में कही भी छात्र सन्घ चुनाव अब लिंगदोह कमिटी के सुझावों के मुताबिक़ हो रहे हैं. इसमें किसी भी छात्र नेता को दोबारा चुनाव लड़ने की इजाज़त नहीं होती. एक बार चुन कर आए छात्र संघ के लोगों के सामने पहले से ही स्पष्ट होता है कि उन्हें चुनावों में दोबारा खड़ा नहीं होना है इसलिए पूरे एक साल तक हवा–हवाई बात करते हैं. फिर कार्यकाल पूरा होने पर नए लोगों को उम्मीदवारी सौंप कर आसानी से निकल लेते हैं. उनकी कोई ज़िम्मेदारी तय नहीं होती. ऐसे में जेएनयू में आनेवाली नई यूनियन के सामने भी स्पष्ट होगा कि साल भर बाद उसे किसी को कोई ज़वाब नहीं देना पड़ेगा.
देश में कोई भी मुद्दा हो जेएनयू छात्र संघ के लोगों को उसके साथ खड़ा देखा जा सकता है. देश तो देश विदेशों तक पर यहाँ से नज़र रखी जाती है. मसलन सीरिया के विद्रोहियों पर राष्ट्रपति बशर अल असद की सरकार ने कितने बम गिराए और इज़रायल ने फिलिस्तीन को हड़पने के लिए गज़ा में कितनी बस्तियाँ बसाईं, यहाँ के लोग सबका हिसाब रखते हैं. इसी कड़ी में यहाँ के छात्र संघ के नेता यहीं से जुड़े कुछ बेहद जायज़ सवालों से बच निकलते हैं. चाहे वो कन्हैया कुमार हों, शहला राशिद हों या अब गीता कुमारी. यहाँ के लोगों के वोटों से जीत कर यहाँ के कितने मुद्दों पर इनका संघर्ष रहा है यह सवाल बेहद निराश पैदा करता है. मतलब ये कि चिराग़ तले अँधेरा. यहाँ के लोग पूरी दुनिया घूम लेते हैं पर अपने भीतर के मुद्दों को ही ठीक से नहीं छूते.
हाल की घटना है जिसे मुद्दा बनना था मगर बन नहीं पाया. क्योंकि ऐसा लगता है जैसे यहाँ के कामों से यही के छात्र संघ की राजनीति कोई मतलब नहीं रखती. जेएनयू की राजनीति में जेएनयू के स्कूल ऑफ़ लैंग्वेज़ का वही स्थान है जो भारत की राजनीति के लिए उत्तरप्रदेश का है. यानी संख्या बल में सबसे बलशाली होने का. स्कूल ऑफ़ लैंग्वेज़ यहाँ के छात्र संघ में कुल पाँच पार्षद चुन कर भेजता है. ये पाँच आपसी सहमति के आधार पर अपने भीतर से एक ‘कन्वेनर‘ चुनते हैं. क़ायदे से उसे स्कूल में हुए साल भर के कामों का ज़िम्मेदार ठहराया जाता है. जब छात्र सन्घ अपने ग्यारहवें महीने में पहुँचता है तब कन्वेनर को ‘कन्वेनर रिपोर्ट‘ पेश करनी होती है. इस पर चर्चा होती है और बहस मुबाहिसे के बाद इसे पारित किया जाता है.
आमतौर पर लेफ़्ट के गढ़ स्कूल ऑफ़ लैंग्वेज़ में इस रिपोर्ट को पारित करवाना आसान रहा है. मगर इस बार यह रिपोर्ट अटक गई और पारित नहीं हो सकी. ऐसा इसलिए हो सका क्योंकि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् और काँग्रेस के छात्र विंग एनएसयूआई ने एक साथ मिल कर इसके ख़िलाफ़ में वोट दिया. यहाँ के छात्र संघ के लिए ये शर्मिंदगी का विषय होना चाहिए कि वह अपनी रिपोर्ट पास नहीं करा सकी. मगर अक्सर देश–विदेश के मुद्दों में उलझे रहने वाले यहाँ के छात्रनेता इसे कोई मुद्दा नहीं बनने देंगे.
ये रिपोर्ट क्यों फेल हो गई इसके बारे में भी बात करते हैं. पिछले साल यहाँ भारी सीट कटौती हुई मगर छात्रसंघ लड़ने की बजाए असहिष्णुता और भीड़ की हिंसा के मुद्दों पर बात करता रहा. इस साल हिंदी विभाग में यहाँ के अध्यक्ष की ख़राब नियत और उनके द्वारा नियुक्त जाँच समिति ने एमफिल हिंदी की प्रवेश परीक्षा की कॉपियों को जाँचते हुए कुल आवेदकों के 99.5% लोगों को फेल कर दिया. ख़ुद जेएनयू से पढ़े और एमए पास हुए सभी के सभी लोग फेल कर दिए गए. जेएनयू के पचास सालों के इतिहास की ये सबसे ख़ास नाइंसाफी थी. छात्रसंघ यहाँ भी नहीं लड़ा और मोदी सरकार के चुनावी साल होने के कारण उधर ही ज़्यादा हमलावर रहा. विपक्षी एकता का सेहरा बुनता रहा. अब ऐसे में ये एक अच्छी बात हुई कि छात्रों ने रिपोर्ट को रिजेक्ट करके हमेशा भागने–भटकने रहने वाले छात्रसंघ के कान उमेठ दिए हैं. अब इससे छात्र संघ कितना सबक लेगा ये समय ही बताएगा. फिलहाल इसे मुद्दा बनना चाहिए.
द बिहार मेल के लिए ये लेख अंकित दूबे ने भेजा है. यह लेखक के अपने विचार हैं. अंकित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भाषा साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन संस्थान के पूर्व छात्र हैं.