कोरोना वायरस के संक्रमण के प्रभाव को रोकने के लिए पूरे देश की तरह बिहार में भी व्यापक बंदी की गयी है. अगर कृषि, खाने–पीने एवं कुछ अन्य आवश्यक वस्तुओं से जुड़े व्यवसायों को छोड़ दिया जाये तो तकरीबन सभी तरह के उपक्रम पूर्ण रूप से बंद हैं. सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण इस बंदी का असर पूरे देश की अर्थव्यवस्था पर होगा मगर बिहार जैसे कमजोर वित्तीय ढांचे वाले राज्य पर इसका गहरा प्रभाव काफी लंबे समय तक पड़ने की संभावना है.
देश के सभी राज्यों के आर्थिक खर्च का इंतजाम केंद्रीय एवं राज्य स्तरीय वसूले जाने वाले टैक्स (CGST – SGST), केंद्रीय अनुदान, राज्य की अलग सेवाओं से होने वाले राजस्व की प्राप्ति, और बाजार एवं वित्तीय संस्थाओं से लिए गए लोन (ऋण) के माध्यम से होता है. बिहार सरकार की सर्विस सेक्टर-सेवा क्षेत्र (राज्य सरकार के ऐसे उपक्रम जिससे राजस्व की प्राप्ति हो) में बिलकुल भागीदारी न होने के कारण बिहार में करेतर आय (नॉन–टैक्स रेवेन्यू) कर–आय (टैक्स रेवेन्यू) के अनुपात में बहुत कम है.
साल 2019-20 के लिए बिहार का निर्धारित कर–आय (टैक्स रेवेन्यू) 1,22,922 करोड़ रूपये था जबकि करेतर आय (नॉन–टैक्स रेवेन्यू) 4806 करोड़ रूपये था जो कि बिहार के कुल राजस्व का मात्र 3.09 % है. साथ ही औद्योगीकरण न होने के कारण बिहार में प्रत्यक्ष कर (डायरेक्ट टैक्स) के मुकाबले अप्रत्यक्ष कर (इन–डायरेक्ट टैक्स) की वसूली बहुत ज्यादा है. इसका मतलब ये हुआ कि राज्य की अर्थव्यवस्था पूर्ण रूप से उपभोक्ता केंद्रित है और बिहार अपने राजस्व के लिए मूलतः आम लोगों के द्वारा खरीददारी और लेन देन के माध्यम से मिलने वाले टैक्स (कर) पर निर्भर है. इन कारणों से देश के अधिकांश राज्यों के मुकाबले बिहार की राजकीय वित्तव्यवस्था का ढांचा थोड़ा अलग है. बंद की स्थिति में जब खरीददारी कम हो रही हो तो यह सीधे तौर पर राज्य और केंद्र को मिलने वाले टैक्स और इससे जुड़े राजस्व को प्रभावित करता है.
लोगों की आमदनी कम होने की स्थिति में यह चक्र और बढ़ता जाता है और अर्थव्यवस्था धीरे धीरे बैठने लगती है इसलिए विपक्ष के द्वारा बार –बार गरीब लोगों को सरकार द्वारा प्रायोजित आर्थिक सहयोग देने की बात कही जा रही है ताकि आर्थिक लेन देन और बाजार में पूंजी की आवाजाही बनी रहे.
लॉक डाउन के कारण बड़े पैमाने पर होने वाले लेन–देन बंद हो गए है. डीजल पेट्रोल की खपत कम होने और प्रमुख व्यवसाय एवं काम–काज के बंद होने से सभी प्रकार के टैक्स और आय मिलाकर बिहार सरकार को प्रतिदिन लगभग 480 करोड़ रुपये के राजस्व का घाटा हो रहा है. देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति और जीडीपी के मूल्यांकन के आधार पर इस साल बिहार सरकार का राजस्व घाटा लगभग 50,000 करोड़ रुपये होने की सम्भावना है जो इस साल के बिहार के कुल बजट – 2,11,076 करोड़ रुपये का लगभग 25% प्रतिशत होगा. अगर ऐसा होता है तो इस साल बिहार को अपने खर्चों में भारी कटौती करना पड़ेगा क्योंकि राजस्व कमी की पूर्ति के लिए बिहार नए कर्ज लेने की स्थिति में नहीं है. इसकी एक बड़ी वजह है कि बिहार हर साल अमूमन अपने सालाना राजस्व अधिशेष के अनुरूप नया ऋण लेता है. 2019-20 के लिए बिहार सरकार नें पहले से ही 21,517 करोड़ रुपये के राजस्व अधिशेष के अनुपात में 24,421 करोड़ रुपये का नया कर्ज लिया है – जो कि बिहार के इतिहास में एक साल में अभी तक का लिया गया सबसे ज्यादा कर्ज है.
फिलहाल बिहार सरकार का कुल कर्ज 1,86,106 करोड़ रुपये का है जो कि बिहार के जीडीपी का 32.5 % है और राज्य नए ऋण लेने की हालत में नहीं है. ऐसे में आर्थिक खर्चों में कटौती के अलावा कोई चारा नहीं बचता है. साथ ही बिहार अपने कुल खर्चों का 37.5 % हिस्सा (लगभग 75,000 करोड़ रुपये) समाज कल्याण के योजनाओं पर करता है, इस कटौती का सीधा असर सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं पर पड़ेगा.
बिहार का अपना राजस्व राज्य के कुल राजस्व व्यय के प्रतिशत में 21.8 % है जबकि केंद्रीय करों में बिहार की हिस्सेदारी 50.4 % है और केंद्रीय अनुदान की हिस्सेदारी 27.7 % है. इसका सीधा मतलब ये हुआ कि अपने मूलभूत खर्चों को पूरा करने के लिए बिहार सरकार की लगभग 78 % आर्थिक निर्भरता केंद्र सरकार से मिलने वाले राशि पर है. इसका दूसरा पहलू ये भी है कि अगर देशव्यापी आर्थिक मंदी हुई, और अगर केंद्रीय भुगतान और केंद्रीय सहयोग राशि में कमी हुई तो बिहार न तो अपने आर्थिक राजस्व के स्रोतों के बलबूते इसका मुकाबला कर पायेगा और ना ही राजस्व में होने वाले घाटे की स्वयं पूर्ति कर सकेगा.
यह मुमकिन है कि कोरोना की वजह से होने वाली आर्थिक मंदी लंबे समय के लिए बिहार के विकास योजनाओं को पटरी से उतार दे. कई लोग इस स्थिति के लिए सिर्फ बिहार सरकार को दोष देंगे मगर वैश्वीकरण के इस दौर में यह समझना जरुरी है कि भारत में मोटे तौर पर राज्यों की आर्थिक स्वायत्तता खत्म हो चुकी है और राज्यों की अर्थव्यवस्था के दिशा का निर्धारण केंद्र सरकार के मार्गदर्शन और निर्देशन में होने लगा है. मसलन केंद्र सरकार यह तय करती कि किसी भी केंद्रीय योजना में राज्य सरकार की कितनी आर्थिक भागीदारी होगी और जब तक कोई राज्य केंद्र द्वारा निर्देशित अनुपात में राशि का इंतजाम नहीं कर पाता है तब तक वह राज्य केंद्रीय योजनाओं के लिए निर्गत राशि का उपयोग नहीं कर पाता है. राज्यों के लिए इस तरह का आर्थिक बंधन उनकी आर्थिक स्वायत्तता को दिन पर दिन कमज़ोर करता जा रहा है. राजनीतिक मजबूरी की वजह से अधिकांश राज्य इस बात के खिलाफ खुल कर बोल तक नहीं पाते हैं. यह समस्या NDA शासित राज्यों में और भी ज्यादा है जहाँ राज्य की सरकारें अपने ही गठबंधन की केंद्र सरकार से आर्थिक मुद्दों पर उलझने से बचती हैं.
GST जैसे टैक्स प्रणाली भी अच्छा उदाहरण हैं जिसके कारण राज्य अपने खुद के द्वारा अर्जित किये गए राजस्व के लिए केंद्र सरकार से बार बार गुहार लगाते है और केंद्र सरकार किसी अन्नदाता की तरह राज्यों को अपने सुविधा के अनुसार अनुग्रहित करती है. हाल के दिनों में कई राज्यों ने केंद्र सरकार से अपने हिस्से की GST की राशि की जल्द से जल्द भुगतान करने की मांग की है, मगर बार–बार मांगे जाने के बाद भी केंद्र सरकार ने कई राज्यों को अभी तक राशि का आवंटित भुगतान नहीं किया है. देश की संघीय व्यवस्था के आर्थिक हाशियेपन की वजह से केंद्र सरकार राज्य सरकारों के अपने नागरिकों के हित के लिए बनाई जा रही योजनाओं तक को कई दफा रोक दे रही हैं. साथ ही वह राज्यों को दिए जाने वाले आर्थिक अनुदान में यह स्पष्ट कर दे रही है कि अगर केंद्रीय आर्थिक प्रणाली के विपरीत जाकर किसी राज्य ने कोई आर्थिक निर्णय लिया तो केंद्र सरकार सीधे तौर पर आर्थिक सहयोग में कटौती कर देगी. हाल फिलहाल के दिनों में कृषि उत्पादों के न्यूनतम मूल्य तय करते समय राज्य सरकारों का किसानों को अलग से सब्सिडी दिए जाने के खिलाफ केंद्र सरकार की अस्वीकृति इसका ज्वलंत उदाहरण है.
यहां यह बताना जरूरी हो जाता है कि भारत में मुख्यधारा की मीडिया के भीतर केंद्र और राज्यों के बीच के इन आर्थिक पहलुओं के चर्चे ख़त्म हो गए हैं इसलिए आम लोगों के बीच राज्यों के विकास के लिए जरुरी लोक वित्त की समझ न के बराबर है. अलग–अलग दलों के केंद्र और राज्य सरकारों ने लोक स्वास्थ्य के नीतिगत पहलुओं को अगर गहराई में सोचा होता तो शायद भारतीय अर्थव्यवस्था पर असर इतना व्यापक नहीं होता जितना आज हम इसे होता हुआ देख रहे हैं. इस अद्वितीय स्वास्थ्य और आर्थिक त्रासदी के बीच हमारे पास मौका है कि हम स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण और सार्वजनिक खर्चे की योजनाओं को एक बार फिर से नए सिरे से देखें…
शाश्वत गौतम कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय समन्वयक हैं. वे 2012 से 2017 के बीच अमेरिका के मेरीलैंड राज्य में लोक वित्त विभाग में वरीय अधिकारी के तौर पर कार्यरत रहे हैं. साथ ही 2018-19 में बिहार सरकार के ‘सेंटर फॉर इकनोमिक पॉलिसी ऐंड पब्लिक फाइनेंस’ के निदेशक रहे हैं. यहां व्यक्त विचार उनके अपने हैं और इससे ‘द बिहार मेल’ की सहमति आवश्यक नहीं है…