आदर्श आचार संहिता लागू होने में हो रही देरी के बीच कल कांग्रेस ने अपने 14 लोकसभा उम्मीदवारों की लिस्ट जारी कर दी. मैसेज क्लियर है कि कांग्रेस अटैकिंग खेलेगी. उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा और रालोद के साथ आने और कांग्रेस को ठेंगा दिखा दिए जाने के बाद से कांग्रेस भी मूड में आ गई लगती है. राहुल गांधी तो पहले ही अटैक करने की बात कह चुके हैं.
यदि इसी क्रम में प्रियंका गांधी वढरा और ज्योतिरादित्य सिंधिया को क्रमश: पूर्वी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभार देने के साथ ही अतिरिक्त जिम्मेदारियां दिए जाने को देखा जाए तो स्थितियां और भी स्पष्ट हो जाती हैं.
क्योंकि अटैक इज द बेस्ट डिफेंस
मुक्केबाजी में एक टेक्निक की बात हमेशा होती है कि अटैक इज द बेस्ट डिफेंस. कांग्रेस भी इस बात को बखूबी जानती है कि उसके पास खोने को कुछ खास नहीं. यूपी के बेटे अब अलग हैं. बुआ और भतीजे के पास अपनी सोशल इन्जीनियरिंग है. बुआ–भतीजे के पक्ष में रही–सही कोर कसर चौधरी अजीत सिंह की पार्टी पूरी कर देगी.
ऐसे में प्रियंका गांधी को अहम जिम्मेदारी देना, सोनिया गांधी की नासाज तबियत की खबरों के बावजूद उन्हें फिर से रायबरेली से उतारकर पार्टी काडर को संदेश देना हो या फिर उत्तर प्रदेश के सामाजिक तानेबाने को समझते हुए अब तक घोषित किए गए 11 उम्मीदवारों में सभी स्थापित नामों को फिर से चुनावी दंगल में उतार देना. कांग्रेस किसी भी तरह के समझौते के पक्ष में तो नहीं ही दिखती. जरा कांग्रेस की पहली लिस्ट ही देखी जाए. कांग्रेस इस कोशिश में दिखती है कि वह अपने खो चुके कोर वोटबैंक को फिर से आकर्षित कर सके. हालांकि कांग्रेस ने अभी प्रियंका को कहीं से उम्मीदवार नहीं घोषित किया है.
भाजपा सांसद और विधायक के बीच जूतमपैजार के बीच
अब इस बात से शायद ही कोई इत्तेफाक न रखे कि राजनीति इत्तेफाक और समीकरणों का खेल है. झटके से ऐसे इत्तेफाक बनते हैं कि किसी के पक्ष में बन रहे समीकरण किसी और के पक्ष में मुड़ जाते हैं. अब संतकबीरनगर के भाजपा सांसद और विधायक के बीच जूतमपैजार की खबर को ही ले लें. वैसे तो गालीगलौज और जूतमपैजार एक सांसद और विधायक के बीच हुई है लेकिन उत्तर प्रदेश में इसके व्यापक होने की पूरी संभावना है. भाजपा सांसद ब्राम्हण हैं और विधायक संभवत: राजपूत. ऐसे में किसी एक पर कार्रवाई होने या न होने के भी अलग–अलग निहितार्थ निकाले जाएंगे.
गौरतलब है कि उत्तरप्रदेश के तात्कालिक परिदृश्य में इन दोनों प्रतिनिधियों की संबंधित जातियां काफी हद तक भाजपा के साथ हैं. ऐसे में किसी एक पर कार्रवाई होने या न होने के भी अलग–अलग निहितार्थ निकाले जाएंगे. राजनीति को यूं ही (perception) अनुभूतियों का खेल थोड़े न कहा जाता है. सांसद पर कार्रवाई होने की स्थिति में इस बात की पूरी संभावनाएं हैं कि ब्राम्हणों का वोट छिटककर कांग्रेस के पास चला जाए. हालांकि यह कहना अभी जल्दबाजी होगी लेकिन इसे पूरी तरह नकारा भी नहीं जा सकता. आखिर सबकुछ खुलेआम होने के बावजूद भी अज्ञात लोगों पर एफआईआर होने के पीछे किसी न किसी का दबाव तो काम कर ही रहा है.
प्रियंका का जादू?
कांग्रेस भले ही हिन्दी पट्टी में अपना वजूद बचा पाने में नाकामयाब रही हो लेकिन वह भाजपा के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत विकल्प है. उसे अनुभूतियों के खेल में पैंतरे बदलना भी खूब आता है. इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि अखिलेश और मायावती के साथ आ जाने और अब चौधरी अजीत सिंह की पार्टी को भी साथ रखने से महागठबंधन की सोशल इन्जीनियरिंग मजबूत हो गई है लेकिन कांग्रेस फिर भी बहस में जीवित है.
कांग्रेस ने प्रियंका और राहुल की लखनऊ में रैली कराई. मेनस्ट्रीम मीडिया प्रियंका गांधी के साड़ी पहनने और हाथ हिलाने के अंदाज पर ही लहालोट रहा लेकिन विपक्षी खेमे में इसे लेकर भी खासी हलचल है, नहीं तो ऐसी खास वजहें नहीं दिखतीं कि संघ का मुखपत्र पांचजन्य उनके चेहरे–मोहरे पर लेख लिखे. प्रियंका के इंदिरा से तुलना किए जाने के काट खोजे. आरएसएस और भाजपा के रणनीतिकार इस बात से बखूबी वाकिफ हैं कि आज की तारीख में कांग्रेस भले ही काडर बेस पार्टी न हो लेकिन उसके पास वोटर बेस तो है ही. बीते आम चुनाव में मध्यम वर्ग कांग्रेस से रुष्ट होकर भाजपा की नाव पर सवार हुआ था और भाजपा से नाराज होकर कांग्रेस की नाव पर चढ़ने में जरा सी देरी नहीं करेगा.
फिलवक्त यही कहना है कि जैसे-जैसे चुनावी सरगर्मी चढ़ेगी, दूसरी पार्टियों के उम्मीदवार भी उतारे जाएंगे. उससे पहले ही कांग्रेस ने अपने उम्मीदवारों की पहली लिस्ट (खासतौर पर उत्तर प्रदेश) में उतारकर अपने इरादे तो स्पष्ट कर ही दिए हैं कि अटैक इज द बेस्ट डिफेंस, है कि नहीं?