कल शाम मैं शाहीन बाग़ में थी. काफी दिनों से जाना चाहती थी पर हो नहीं रहा था. मैं एक्टिविस्ट नहीं हूँ, पर एक नागरिक हूँ, सजग रहने की कोशिश करती हुई. हालाँकि यह तय कर पाना उतना भी आसान नहीं कि सजग होना किसे कहा जाय. अति से बचना भी सजग होना हो सकता है, तरफ़दारी से बचना भी, और तरफ़दारी करना भी. पत्रकार होने की पेशेवर मजबूरी तरफ़दारी को खूब–खूब तसल्ली से देखकर मुतमईन हो जाने की ज़रूरत रखती है. तो आख़िरकार कल मैं शाहीनबाग में थी.
सब लड़ाई आशियाने की ही तो है
शाहीन बाग़, कितना खूबसूरत नाम है, जामिया मिलिया मेट्रो से धरना स्थल तक ले जातीं, कचरे और बदबू के बोझ से लदी गलियों से गुज़रते हुए मैंने अपनी साथी से कहा. वो एक कलाकार है, ऐसी कलाकार जो रंग और लकीरों की भाषा में लिखती है, उसे शाहीन का मानी नहीं पता था. मैंने उसे बताया भी नहीं. बस मन ही मन इक़बाल को याद करती रही. ‘नहीं तेरा नशेमन कस्र–ए–सुल्तानी के गुंबद पर, तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चट्टानों पर’ और ‘शाहीन तेरी परवाज़ से जलता है ज़माना, तू अपने पर से इसे और हवा दे…’ ‘तू शाहीन है परवाज़ है काम तेरा, तेरे आगे आसमान और भी है’ और आखिर में ‘परिंदों की बस्ती का दरवेश हूँ मैं, कि शाहीं बनाता नहीं आशियाना…’ सब लड़ाई आशियाने की ही तो है. मैं सोचती हूँ इक़बाल अभी होते तो क्या लिखते.
रास्ते में उस ओर से लौटते हुए लोग दिखते हैं, युवा लड़के–लड़कियाँ, प्रौढ़ महिलाएँ, चेहरों पर तिरंगे का निशान लिए. मैं थोड़ा असहज महसूस करती हूँ. यह पहली प्रतिक्रिया है, संकीर्ण हो सकती है, पर है. आख़िरी गली के दरवाज़े से बाहर सड़क पर, जहाँ शामियाना लगा हुआ है, पहुँचने पर देखती हूँ कि मेला लगा हुआ है. लोकतंत्र का मेला. चुनावों को लोकतंत्र का मेला कहा जाता रहा है, विरोध प्रदर्शन पहली बार देख रही हूँ, यह मेला और अधिक उत्साह भरा है. क्राँति का उत्साह, बदलाव का. कैसी क्राँति होगी, क्या बदलेगा, यह आगे पता चलेगा. कई लड़के–लड़कियाँ, वयस्क भी हाथों में केसरिया, सफ़ेद, हरे रंगों की डिबियाँ–कूँचियाँ लेकर खड़े हैं. ‘हरा किसे चाहिए, सफ़ेद इस तरफ है’ की पुकार सुनाई दे रही है. मेले पहुँचने वाले उत्साही दर्शक, समर्थक अपने गालों, माथे और हाथों पर तिरंगे के निशान बनवा रहे हैं. शामियाने में एक मंच है, उसे सामने प्लास्टिक की चटाइयों पर महिलाएँ बैठी हैं, शाहीन बाग की शानदार महिलाएँ, जिन पर पिछले दिनों से कविताएँ, नज़्में लिखी जा रही हैं. घर के कपड़े पहने, शॉल, चादर, हिजाब लपेटे इन महिलाओं के बीच कुछ ब्लेज़र और जैकेट वाली महिलाएँ भी दिखती हैं, हाथों में फ़ोन और कैमरे लिए, तस्वीरें, वीडियोज़ उतारती हुईं.
शाहीन बाग में सीएए और एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान तस्वीर बनाती हुई बच्ची
शामियाने के एक तरफ मार्केट बने हुए हैं, रिचलुक, रेडटेप, अमेरिकन टूरिस्टर. एक मार्केट में कला के ज़रिए विरोध दर्ज करने की क़वायद चल रही है. कुछ वॉलंटियर्स, स्कूली बच्चों के साथ बैठे हैं. वे रंगों और शब्दों के ज़रिए अपनी बात कह रहे हैं, उतनी बात जो उन्हें समझ आती है, या उनके नन्हें दिमाग़ों को समझायी जाती है. उन्हें ज़्यादा कुछ नहीं पता. कोई नौ साल के वसीम से मैं पूछती हूँ कि यहाँ क्या चल रहा है. वो बताता है कि सीएए, एनआरसी का विरोध कर रहे हैं. एनआरसी क्या है, इस सवाल पर वो शर्मा कर मुस्कुराता है, मेरी तरफ देखता रहता है. उसके साथ बैठा, उससे कुछ छोटा लड़का सफेद काग़ज़ पर झंडा बना रहा है. मैं और बच्चों से बात नहीं करती, बस उन्हें देखती हूँ. चारों तरफ लगे हुए इन्क़िलाबी पोस्टर, हवा में गूँजते हुए अश्फ़ाक, बिस्मिल, गाँधी और अंबेडकर के नारे, सड़क पर बैठी हुई माँएँ, मौसियाँ, भाभियाँ, आपियाँ जिन्हें घर से निकलने के लिए शायद हर बार इजाज़त की ज़रूरत पड़ती हो. ज़रा सी जलन होती है इनसे. बड़ों का इन्क़िलाब जो है, सो तो है ही, इनका इन्क़िलाब बहुत खूबसूरत है.
ये बिस्मिल वाली आज़ादी, ये महात्मा वाली आज़ादी…
शामियाने में बैठी रहमत बताती हैं कि बच्चे महीने भर से स्कूल नहीं गए. यह लंबा मेला उनके लिए आज़ादी का मेला है, जहाँ वे आज़ाद हैं, स्कूल की बंदिश से, होमवर्क से, रोज़ की बँधी–बँधाई दिनचर्या से, वही एक जैसे लोगों से. वे ज़िंदगी की अनूठी पाठशाला में हैं. रोज़ नए लोगों के बीच, नई बातों के बीच. वे क्रिकेट के बल्ले या कलम की जगह कूँचियाँ थाम रहे हैं. मुझे अंग्रेज़ी रॉक बैंड टी.रैक्स का ‘चिल्ड्रन ऑफ द रिवॉल्यूशन’ याद आता है, “नो, यू वोन्ट फ़ूल द चिल्ड्रन ऑफ द रिवॉल्यूशन.” अरब स्प्रिंग के बच्चों पर पड़े असर पर इकॉनॉमिस्ट में एक लेख पढ़ा था, वो भी याद आता है. हालाँकि शाहीन बाग की तुलना ट्यूनिशिया, लीबिया या मिस्र से नहीं है, पर बच्चे तो बच्चे हैं, उन पर असर लगभग एक ही तरह से पड़ता है. अरब क्राँति के बच्चों में गुस्से, हकलाने और बिस्तर गीला करने की शिकायतें बढ़ गई थीं. पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रैस डिसॉर्डर, पीटीएसडी के मामले लगातार सामने आ रहे थे. कई माता–पिता ने शिकायत की थी कि उनके बच्चे सोते हुए भी विक्ट्री का निशान उँगलियों से बनाए रखते थे. शाहीन बाग के मंच पर सात–आठ साल के बच्चे मंच पर नारा लगा रहे हैं, पूरे जोश–ओ–खरोश में. ये बिस्मिल वाली आज़ादी, ये महात्मा वाली आज़ादी… इनकी माएँ कहती हैं कि हमें अब किसी पुलिस, किसी नेता का डर नहीं, हम तब तक बैठे रहेंगे जबतक हमारी बात नहीं सुनी जाती. मन ही मन मैं मनाती हूँ कि इन्हें ये नारे बहुत दिन न लगाने पड़ें, ये मेला बहुत लंबा न ख़िंचे. मैं नहीं चाहती कि ये बच्चे खून देखें, लाठियाँ, गोलियाँ और आग देखें, मैं नहीं चाहती कि रात को नींद में भी ये इन नारों को दोहराने लगें.

अरब क्रांति के बच्चों पर कुछ दूसरे असर भी हुए थे, वे ज़्यादा जागरूक हो गए थे. न सिर्फ़ राजनीति और खबरों के प्रति, बल्कि अपने आस–पास के वातावरण के प्रति भी. उन्होंने आस–पास सफ़ाई की ज़रूरत महसूस की और उसका ज़िम्मा भी उठाया. वापसी में ई–रिक्शा में बैठकर न्यू फ्रैंड्स कॉलोनी की तरफ जाते हुए ध्यान देती हूँ कि साथ बैठा स्थानीय नौजवान लड़का ट्विटर देख रहा था. पूछने पर पता चला कि कपड़ों की दुकान पर काम करता है. उसे पता है कि कौन से नेता क्या बयान दे रहा है. यही अरब में हुआ, और कश्मीर में भी. बच्चे और नवयुवा राजनीति के प्रति जागरूक होते चले गए, ज़रूरत से कुछ ज़्यादा ही. बच्चों के कच्चे मन के लिए राजनीति नहीं, खेल, गीत और कहानियाँ काफी होते. पर “नो, यू वोन्ट फ़ूल द चिल्ड्रन ऑफ द रिवॉल्यूशन.” इन बच्चों के शब्दकोश भी बदल रहे हैं, बढ़ रहे हैं. अंबेडकर, बिस्मिल और गाँधी के अलावा आज़ादी इनका नया शब्द है. ई–रिक्शे पर साथ बैठा कश्मीरी कहता है कि अच्छा हुआ कि अब हिंदुस्तान के लिए आज़ादी शब्द अछूत नहीं रहेगा. वे इसका सही अर्थ समझेंगे.
यह आलेख प्रदीपिका सारस्वत ने लिखा है और वह पेशे से पत्रकार हैं.