दो युवक कमरे के ठीक बीचोंबीच पालती मार बैठे हैं. औरतें घूँघट निकाले आने वाले लोगों के मुँह ताक रहीं हैं. घर से सौ मीटर की दूरी तक बंदूकों से लैस पुलिस तैनात है. विधायकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का ताँता लगा हुआ है. राजस्थान के जिला नागौर में गाँव पचौड़ी के सोननगर भोजावास निवासी दो दलित युवकों पर सौ रुपए की चोरी का इल्ज़ाम लगा कर सात युवकों ने नागौर जिले के ही करनू गाँव में 16.02.2020 को जिस वीभत्स घटना को अंजाम पहुँचाया है, उससे मानवता शर्मसार है. न जाने कितनी बार ऐसी चीजें हमारे सामने आएंगी और हमें बता जाएंगी कि जिस समाज में हम सांस ले रहे हैं, उसकी जड़ें अंदर तक सड़ी हुई हैं और उसकी मुख्य वजह है जातिवाद!
घटना के ठीक बाद पीड़ित परिवार से आरोपियों ने चोरी के एवज में 5100 रुपए का दंड वसूला. घटना का वीडियो आरोपियों ने पीड़ितों का मजाक उड़ाने के लिए बनाया था जिसके सामने आने के बावजूद ऐसा दावा किया जा रहा है कि पुलिस ने आरोपियों की तरफ से चालीस हजार रुपए देने की कोशिश करके मामले को रफ़ा-दफ़ा करने का प्रयास किया.
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हालांकि पचौड़ी थाने के एस. एच. ओ. राजपाल सिंह ने इस बात का खंडन किया है. सौ रुपए की चोरी हुई या नहीं इस बात की अभी कोई पुष्टि नहीं हुई है. अंतत: तीन दिन बाद जब इस घटना का वीडियो पूरे देश में फैल गया तब जाकर 19 फरवरी को नागौर पुलिस अधीक्षक विकास पाठक तथा उपाधीक्षक मुकुल शर्मा सकते में आए और मामले का संज्ञान ले 20 फरवरी को प्रेस नोट जारी कर सातों युवकों को गिरफ्तार करने व भारतीय दंड संहिता की धारा 342, 323, 341, 143, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (नृशंसता निवारण) अधिनियम की धारा 3(1)(द), 3(1)(s), 3(va) के मामले में एफ. आई. आर. दर्ज करने की जानकारी दी. 22 फरवरी को एस. सी. कमीशन के वाइस चेयरमैन एल. मुरूगन पीड़ितों से मिलने आए और अपने बयान में कहा कि प्राथमिकी में भारतीय दंड संहिता की धारा 307 (हत्या का प्रयास) का जुड़ाव होगा और फास्ट ट्रेक कोर्ट के जरिए त्वरित न्याय दिलाया जाएगा.
उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट ने घटना की जाँच के लिए स्पेशल कमिटी बनाने के निर्देश दिए हैं. वहीं राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी व नागौर स्थापित भीम वेल्फेयर सोसाइटी ने सरकार से एक करोड़ रुपये के मुआवजे तथा पीड़ित युवकों को सरकारी नौकरी दिलाने की माँग की है. इन्ही माँगों को लेकर खीवंसर में अनिश्चितकालीन धरना प्रदर्शन जारी है. लोग मदद के लिए सामने आए हैं. दुर्घटना की खुल कर भर्त्सना की है. पीड़ितों को ढाढ़स बँधाया है. हौसला भी मजबूत किया है. यह देखकर थोड़ी राहत ज़रूर मिलती है. लेकिन मन तब भी कोफ़्त से भरा हुआ है. तुम्हें तुम्हारी जात दिखा कर अपनी जात सिद्ध करते ये लोग जाने किस कुंठा के शिकार हैं. इनकी आँखों में ये कौन सी ऊँची जाति से होने का रुआब है. नीची जाति और ऊँची जाती, कितना मनहूस हिसाब किताब है.
संविधान का अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता के उन्मूलन के बारे में बात करता है. वहीं अनुच्छेद 17 व अनुच्छेद 35 के तहत अस्पृश्यता का अंत करने के लिए सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम भी बनाया गया. हालाँकि ‘अस्पृश्यता क्या है?’ इसे कोई अधिनियम परिभाषित नहीं करता. जय सिंह बनाम संघ एवं अन्य वाद में राजस्थान उच्च न्यायालय ने तथा देवराजैया बनाम बी. पद्मना वाद में मद्रास उच्च न्यायालय ने अस्पृश्यता का अर्थ समझाते हुए कहा कि अस्पृश्यता को उद्धरण चिह्न (inverted commas) में रखने का तात्पर्य यह है कि इसका शाब्दिक अर्थ न समझ कर इतिहास में हुई भेदभाव की प्रथाएँ / घटनाएँ व इससे उबरने के लिए किए गये संघर्ष से इसका अर्थ निकाला जाए. इस प्रकार अस्पृश्यता को जाति आधारित पक्षपात (caste based discrimination) माना जाए.
जाति आधारित पक्षपात से निपटने के लिए जहाँ तमाम क़ानून बनाए गए हैं, क़ानून प्रवर्तन एजेंसियाँ मौजूद हैं, सामाजिक साहित्य उपलब्ध है तो फिर भेदभाव की वजह क्या है. थोड़ी बहुत बातें जो बचपन में मैने सुनी. मसलन, मुसलमान कट्टर होते हैं, ब्राह्मण पाखंडी, राजपूत बदमाश, बिश्नोई अमलची, जाटों की बुद्धि घुटनों में, चारण जोंक की तरह, मेघवाल मॅंगते, भील-नायक चोर, बनिये कंजूस और लालची, माथुर मीठे और चालक, सिंधियों के लिए तो यह सुना है कि वे और साँप रास्ते में एक साथआपको मिल जाएँ तो साँप को चाहे छोड़ दो लेकिन सिंधी को ज़रूर मारो. कच्ची बुद्धि में सुनी गई यह बातें अगर अब भी मुझे याद है तो मुझे लानत है अपने समाज पर. क्या हम सब चाहे जिस भी जाति के हों, थोड़े थोड़े अच्छे, थोड़े थोड़े बदमाश, थोड़े थोड़े मीठे, थोड़े थोड़े चालक नहीं होते. इसमें भला जाति की क्या भूमिका. किसी का व्यवहार, आचार-विचार उसकी जाति कैसे निर्धारित कर सकती है?
दुखद यह भी है कि इस स्तर का सामान्यीकरण किसी को नहीं बख्शता फिर चाहे आप ऊँची जाति के हो और समाज में आपका चाहे जितना दबदबा हो. गाँव-कस्बे क्या, शहर भी इससे अछूते नहीं. जोधपुर में पिछ्ले एक साल से रहते हुए अब मेरे लिए यह आम बात हो गयी है कि 15 दिन में एक बार कोई न कोई मेरी जाति पूछ ही लेता है. कम पढ़े लिखे लोग सीधे पूछ लेते हैं तो पॉलिश्ड लोग अलग-अलग सवाल करके. जाति जान लेने के बाद किसी के चेहरे की चमक बढ़ जाती है तो किसी का चेहरा निहायत फीका पड़ जाता है.
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बहरहाल, करनू मामले में कुछ मौक़ापरस्तों ने भी चेहरे चमकाएँ हैं. प्रोफाइल, बैकग्राउंड, करियर हिस्ट्री सब की रट लगाए आने जाने वाले, पीड़ितो को और आपस में अपना लेखा जोखा दे रहे हैं. लेकिन दिन की 200 रुपये की मजदूरी करने वाले 24 वर्षीय विशाला राम पीड़ित का सिर पूरी तरह उपर नहीं उठ पा रहा. कोहनियों में बँधे हाथ खुल नहीं रहे. उसकी सुंदर भूरी आँखें केवल सन्न हैं, उनमें न सवाल है न उम्मीद. चेहरे पर कोई भाव कोई भंगिमा नहीं. उसे बात करते हुए नहीं सुना जा सकता. उसे हमारी तरह पब्लिक डीलिंग की आदत थोड़े ना है. उसे न्याय दिलाने के लिए लोग बहुत कुछ कर गुज़रने को तैयार हैं. उसे खुद शायद पता ही नहीं कि न्याय होता क्या है. मिलने आने वाले हर व्यक्ति की सवाल करती निगाहें उस घटना की याद को ताज़ा रखतीं है.
सरकार ने आश्वासन दिया है कि जब तक आरोपियों को सज़ा नहीं मिल जाती उनके घर के बाहर कड़ी सुरक्षा का 24 घंटे इंतजाम रहेगा. कोसों फैली ढाणी में जीरे की फसल के बीच विशाला राम का घर पचौड़ी गाँव से 12 किलोमीटर की दूरी पर है जहाँ कोई परिवहन की सुविधा नहीं. डेढ़-दो सौ मीटर के बीच इक्की-दुक्की झोंपड़ी. सुबह-दोपहर में यह जगह जितनी रमणीय है, शाम ढले उतनी ही भयावह भी हो सकती है. गनीमत है कि इस घटना को रिकॉर्ड कर लिया गया. वरना किसी का नामो निशान मिटा देना कोई मुश्किल बात नहीं थी. दारोगा भी रिपोर्ट दर्ज करेंगें नहीं क्यूँकि ऐसा करने से उनकी जाति बदनाम हो जाएगी फिर चाहे मानवता से समझौता करना पड़े.
यही सब सोचते हुए जब शाम नागौर पहुँचना हुआ तो मेरे 13 साल के भानजे ने 22 फरवरी का अख़बार दिखा कर कहा बाड़मेर में बिल्कुल ऐसी ही घटना हुई है जिसका वीडियो वायरल हुआ है.
यह आलेख शोभा ने लिखा है. वह राजस्थान उच्च न्यायालय, जोधपुर में वकील और कानूनी सलाहकार हैं.