दशकों तक जंगल बचाने वाले पद्मश्री सिमोन उरांव सरकारी विकास से क्यों हैं निराश?

दशकों तक जंगल बचाने वाले पद्मश्री सिमोन उरांव सरकारी विकास से क्यों हैं निराश?

जंगल नहीं रहेगा तो बरखा पानी नहीं होगा, सेले (इसीलिए) जंगल बहुत जरूरी है. सेले हम मीटिंग में कहते हैं कि एक पेड़ काटो तो दस पेड़ लगाव.’

यह चिंता पद्मश्री सिमोन उरांव (85) की है. रांची से 50 किलोमीटर दूर बेड़ो (प्रखंड) बाजार स्थित अपने घर बैठे सिमोन उरांव आगे कहते हैं, ‘‘ सरकार सारा जंगल अपने हाथ में ले लिया. फिर उसे ठेका लगा दिया. विकास कहकर जंगल काटा, लेकिन विकास नहीं हुआ विनाश हुआ. बेड़ो, खक्सी टोला, हरिहरपुर जामटोली, बैर टोला में पहले 600 एकड़ से भी ज्यादा जमीन पर पेड़ पौधा था. अब धीरे धीरे खत्म हो रहा है.”

सिमोन उरांव और उनका परिवार इन दिनों आर्थिक तंगी झेल रहा है. वो बीते 15 साल से बेड़ो बजार में स्थित अपने घर में पत्नी विरजिनिया उरांइन (73) और पोती एंजेला (22) के साथ रह रहे हैं. परिवार के बाकी (तीन बेटों, पत्नी, बच्चे) सदस्य बेड़ो से छह किलोमीटर दूर उनके पुश्तैनी गांव खक्सी टोला में रहता है. जिन गांव में घने जंगल के होना का जिक्र सिमोन ने किया है, वे सभी बेड़ो प्रखंड में पड़ते हैं. पद्म श्री सिमोन उरांव को अपनी बदहाली से कहीं ज्यादा जंगल और पर्यावरण की चिंता है.

50 साल पहरेदार रख कर जंगल बचाया

अस्सी साल से भी अधिक उम्र के सिमोन उरांव ने पांच दशक जल, जंगल और जमीन को बचाने में लगाया. उन्हें जल संरक्षण, वन रक्षा और पर्यावरण संरक्षण के लिए 2016 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया. 1955 से 1970 के बीच बांध बनाने का अभियान जोरदार ढंग से चलाया.

वो बताते हैं, “ वो 50 साल से हर गांव में चारचार पहरेदार रखकर जंगल की रक्षा करते आ रहे हैं. पहरेदार को बदले में हर महीने 20 पैला चावल देते हैं. जंगल से जो लकड़ी काटते पकड़ा जाता है, उसे गांव में बिठाकर समझाते और उसे ऐसा करने से रोकतें.”

सिमोन उरांव कहते हैं, “भगवान ने पृथ्वी, आकाश बनाया. मनुष्य को उसका जिम्मा दिया. मनुष्य ने बांध, तलाब बनाया. लेकिन सरकार ने जब जंगल बचाने का जिम्मा लिया तो आदिवासियों को ही जंगल से भगाना शुरू कर दिया. विकास के लिए जंगल को काटकर विनाश कर दिया.”

सिमोन उरांव का कहना है कि आदिवासी लोग जब पेड़ काटता है तो बदले में दस पेड़ लगाता है. लेकिन सरकार पेड़ काटती है, तो बदले में पेड़ नहीं लगाती है.

सिमोन उरांव का मानना है कि जो जंगल में रहता आ रहा है उसे वहां से हटाना नहीं चाहिए. इनको हटाया जाएगा तो जल, जंगल, जमीन सब खत्म हो जाएगा.

 

जंगलों पर कितना अधिकार है आदिवासियों का

बेड़ो प्रखंड का क्षेत्र मांडर विधान के अंतर्गत आता है. आदिवासी बहुल यह सीट एसटी के लिए रिजर्व है. अक्टूबरनवंबर 2019 में विधानसभावार झारखंड वन अधिकार मंच और इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस (आईएसबी) हैदराबाद की संयुक्त अध्ययन की रिपोर्ट के मुताबिक मांडर क्षेत्र में 329 गांव में से 191 ऐसे गांव हैं जो जंगलों से लगे हैं. 83554 परिवार है जबकि कुल संख्या 460858 है. इसमें 151506 आबादी आदिवासियों की है. अध्ययन रिपोर्ट में बताया गया है कि इस क्षेत्र के 120859 हेक्टेयर जंगल की जमीन में से 18728 एकड़ पर वन अधिकार कानून 2006 के लाभार्थियों का अधिकार बनता है.

अब अगर जिला के लिहाज से देखें तो मांडर और बेड़ो का क्षेत्र झारखंड की राजधानी रांची के अंतर्गत आता है. इसी दोनों संस्था (झारखंड वन अधिकार मंच, आईएसबी हैदराबाद) ने फरवरीमार्च में लोकसभावार एक अध्ययन रिपोर्ट जारी की थी. इस रिपोर्ट के मुताबिक रांची लोकसभा में 607 वैसे गांव बताए गए जो जंगलों से लगे हैं. 739269 लोग वन अधिकार कानून 2006 लाभार्थी बताए गए. इसमें से 458347 वैसे वोटर हैं जो वन अधिकार कानून 2006 के लाभार्थी हैं. इसमें 200885 आदिवासी वोटर हैं जो वन अधिकार कानून के लाभार्थी हैं.

वन अधिकार कानून 2006 एक इंसाफ

अध्ययन रिपोर्ट से स्पष्ट होता है बेड़ो, मांडर और अन्य आदिवासी बहुल इलाके जो रांची जिले में हैं वहां के आदिवासी और अन्य वन परम्परागत लोगों की आजीविका और जीवन आज भी पूरी तरह से जंगल पर ही निर्भर हैं. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल फरवरी में वनो पर आश्रित 16 राज्यों के 11 लाख से ज्यादा लोगों को अतिक्रमणकारी मानते हुए उन्हें जगंलों से बेदखल करने का आदेश दिया था. हालांकि जल्द ही सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के दखल के बाद अपनी अगली सुनवाई में बेदखल वाले आदेश पर रोक लगा दी. इन्हीं 11 लाख लोगों में से झारखंड के करीब 27 हजार वनों पर आश्रित रहने वाले आदिवासी लोग हैं. फिलहाल मामला अब भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैइसीलिए जो चिंता पद्मश्री सिमोन उरांव जाहिर कर रहे हैं. वही वन अधिकार कानून पर काम करने वाले एक्टिविस्ट ग्लैडसन डुंगडुंग भी करते हैं, “जगंलों में रहने वाले आदिवासियों को जंगलों से बेदखल करने कोशिश ब्रिटिश काल से शुरू हुई. दर्जनों कानून बनाए गए. आदिवासियों के जंगल हातियाए गए और उन्हें बेदखल किया गया. आजाद भारत में भी धीरे धीरे यही कोशिश हुई. लेकिन मेरा मानना है कि यूपीए की केंद्र सरकार ने वन अधिकार कानून 2006 बनाकर बहुत हद तक आदिवासियों को उनका हक देने की कोशिश की. इस कानून के तहत आदिवासियों को जंगलों पर मालिकाना हक दिए जाने को सुनिश्चित किया गया. लेकिन राज्य सरकार ने इस कानून को कॉरपोरेट के स्वार्थ को देखते हुए सही से लागू नहीं किया.”

(यह स्टोरी एनएफआई मीडिया फेलोशिप प्रोग्राम 2019-20 के तहत प्रकाशित की गई है)