लॉकडाउन यूँ तो पिछले रविवार से ही शुरू हो चुका है, पर इस 21 दिन लंबे लॉकडाउन का आज पहला दिन है. मैं देहरादून में हूँ. पिछले बुधवार को, यानी एक हफ्ते पहले कुछ काम से यहाँ आना हुआ, फिर कोविद-19 के फैलते जाने की खबरों ने मुझे वापस दिल्ली नहीं जाने दिया. यहाँ दिल्ली के फ्लैट जैसी सुविधाएँ और आराम नहीं है, पर मैं खुश हूँ कि मैं दिल्ली में नहीं हूँ. दिल्ली में यूँ भी हमेशा बड़ी घुटन महसूस होती है. चारों तरफ इमारतें ही इमारतें, लोग ही लोग, हर क़िस्म के, गरीब, अमीर, बहुत गरीब, बहुत अमीर…
क़िस्में और भी हो सकती हैं. पर इससे ज़्यादा हम लोगों में देखते ही क्या हैं, उनके बारे में जानते ही क्या हैं. दिल्ली में मेरे फ्लैट के साथ वाले फ्लैट में एक बच्चा रहता है, मेरे फ्लैट की इकलौती बालकनी के पीछे बने टिन की छत वाले लगभग झुग्गीनुमा मकानों में से एक में भी एक बच्चा, नहीं बच्ची रहती है. इन दो बच्चों के चलते मैं इन दो परिवारों के बारे में कुछ-कुछ जानती हूँ. ज़्यादा कुछ नहीं, बस उन बच्चों के रोने के समय और कारण, और उनकी माँओं के नाम. और यह भी कि झुग्गी वाली बच्ची के रोने के कारण, फ्लैट वाले बच्चे के रोने के कारणों से बहुत अलग हैं.
खैर मैं खुश हूँ कि मैं देहरादून में हूँ, देहरादून भी नहीं, शहर से लगभग बाहर, एक गाँव के बाहरी छोर पर बने लगभग आख़िरी मकान में. मकान के दाँई तरफ जंगल और पहाड़ियाँ हैं, पहाड़ी नाले हैं, सागौन, बाँस और पीपल के पेड़ हैं, बाकी पेड़ों को मैं अभी पहचानती नहीं हूँ. दिन भर मैं चिड़ियों की बोलियाँ सुन सकती हूँ, कभी-कभी लगता है कि ठीक से सुनूँ तो सीख भी सकती हूँ. और घर के पीछे मैदान में चरती गायों के गले की घंटियों की आवाज़ भी. मेरे कमरे की खिड़की और बालकनी इसी मैदान की तरफ खुलती है. यह पूरब दिशा है. पिछले एक हफ्ते में मैं समझने लगी हूँ कि धूप अगर बिस्तर के इस हिस्से पर पड़ रही है तो अभी क्या वक्त हुआ होगा. लॉकडाउन मेरे लिए कुछ ख़ास बदलाव लेकर नहीं आया है. मैं ग़ालिब का शेर याद करती हूँ.
हुआ जब ग़म से यूँ बे-हिस तो ग़म क्या सर के कटने का
न होता गर जुदा तन से तो ज़ानू पर पर धरा होता
Image Source – Pradeepika
एक बेरोज़गार लेखक-पत्रकार की ज़िंदगी यूँ भी बहुत अलग नहीं है. जिन दिनों काम नहीं होता, तब बस रहने को एक ठिकाना ही तो चाहिए होता है, जहाँ लिखा-पढ़ा जा सके, दिन में दो वक्त खाने, और दो-तीन चाय का इंतज़ाम रहे. यहाँ बताना ज़रूरी है कि बेरोज़गार शब्द का इस्तेमाल किसी तरह की सहानुभूति जुटाने के लिए नहीं, बल्कि सिर्फ़ यथास्थिति बताने के लिए है. जब आप एक सिस्टम में अपने लिए मनचाही जगह नहीं बना पाते तब आपके पास अपना खुद का सिस्टम बनाने के सिवा कोई चारा नहीं बचता. और जबतक आप अपना सिस्टम नहीं बना लेते, तब तक कभी बेरोज़गारी तो कभी बेगारी आपके साथ-साथ चलती है. खैर.
आज की सुबह सिद्धार्थ के ट्वीट के साथ हुई, सिद्धार्थ यानी सिद्धार्थ गिगू, मेरे पसंदीदा लेखक और व्यक्ति. सिद्धार्थ ने लिखा था, “चैलेंज. गोइंग टू राइट अ बुक इन ट्वेंटीवन डेज़. डेडलाइन: एप्रिल 21. एनीवन लिस्निंग? येस, यू गेस्ड द थीम एंड द टाइटल!” एक दिन पहले सिद्धार्थ ने लिखने को लेकर मेरी क्लास लगाई थी. तब से मैं लिखने को लेकर गंभीर होने की कोशिश कर रही थी. कंप्यूटर खोलकर एक-दो नए डॉक्यूमेंट्स, नए टाइटल के साथ सेव किए जा चुके थे. कमरे में मेज़ के सामने एक कुर्सी की जुगाड़ भी कल रात कर दी गई थी. पर आज सुबह बिस्तर पर लेटे हुए इस ट्वीट को पढ़ने के बाद पहला काम यही किया कि गरम पानी-वानी पीकर कंप्यूटर के सामने जा बैठी. एक और नया डॉक्यूमेंट खोला. नाम दिया लॉकडाउन. और पिछले दिनों से जो एक कहानी का अदृश्य ताना-बाना अपनी अंगुलियों पर बुन रही थी, उसके कुछ फंदे सफ़ेद स्क्रीन पर उतार दिए.
पिछली उपन्यासिका मैंने मात्र पंद्रह दिनों में लिखी थी. अब तो 21 दिन हैं. देखते हैं क्या लिखा जा सकता है. पर लिखने के लिए सिर्फ कुर्सी, मेज़ और कंप्यूटर काफी नहीं. मुझे अपना कमरा व्यवस्थित करना था. मैं चौधरी के कमरे में रह रही हूँ. इंजीनियरिंग के आख़िरी साल का विद्यार्थी चौधरी छोटे भाई का दोस्त है और अभी अपने घर आगरा गया हुआ है. यूँ तो जिस रात मैं यहाँ आई थी उसी रात इस कमरे की ठीक-ठाक सफ़ाई कर दी थी. पर अब क्योंकि अगले 21 दिन यहीं रहना है, उस पर भी सिर्फ रहना नहीं लिखना भी है, तो कमरा अपने मन मुताबिक़ होना ही चाहिए. वर्जीनिया वुल्फ़ कहती हैं, ‘अ वुमन मस्ट हैव मनी एंड अ रूम ऑफ हर ओन, इफ़ शी इज़ टू राइट फ़िक्शन’ यानी अगर एक औरत गल्प लिखना चाहती है तो उसके पास अपना पैसा और अपना कमरा होना चाहिए. फिलहाल अगले 21 दिनों के लिए पैसा भी है और कमरा भी. गल्प लिखा ही जाना चाहिए.
तो खिड़की के पर्दे धोए जाने के लिए उतार दिए गए, पलंग को खिड़की के नीचे से हटाकर सामने की दीवार से सटा दिया गया, मेज़ को खींचकर खिड़की के बाईं तरफ के कोने में लगा दिया गया. यहाँ रौशनी भी है, धूप भी और चार्जिंग के लिए सॉकेट भी. कमरे का फ़र्श एक बार फिर रगड़ कर साफ किया गया. पलंग और मेज़ के नीचे के छिपे हुए हिस्से में जमी हुई महीनों पुराने खानी की परतें और भी न जाने क्या-क्या आख़िरकार कमरे से बाहर गया. अब यहाँ मैं हूँ, मेरी कहानी है, और बस. मेरी कहानी को बासी-सड़ा हुआ खाना, धूल के बगूले और खोए हुए काग़ज़, कैंचियाँ, मोज़े ज़रा पसंद नहीं आते. इनकी बू भी आती है तो कहानी कोसों दूर भागती है.
सफ़ाई अभियान में दो-तीन घंटे बीत गए. दिन सर पर चढ़ आया था और नाश्ता नहीं बना था. एक बार चाय बनाकर पी थी, गौरव को जगाकर उसे भी दी थी. पर वो जनाब, क्योंकि रात भर उल्लू की तरह जगे हुए थे तो चाय पीकर फिर सो गए. गौरव मेरे साथ वाले कमरे में रहते हैं. मेरे चचेरे भाई हैं, मुझसे पाँच साल छोटे. इनके पास पलंग होते हुए भी ये नीचे फ़र्श पर बिस्तर लगाकर सोते हैं. पलंग सामान रखने की अलमारी का काम करता है और अलमारी इनके दिमाग की तरह बेइस्तेमाल, बेकार पड़ी है. पर आज सिद्धार्थ के ट्ववीट का बटरफ़्लाइ इफैक्ट इन साहब तक भी पहुँचा. दीदी को सफ़ाई करते देख इन्होंने भी अपने कमरे का कायाकल्प कर लिया. इस बात में ज़रा भी शक नहीं कि ‘योर एक्शंस स्पीक लाउडर दैन योर वर्ड्स.’ जो काम सिद्धार्थ मुझसे, और मैंने गौरव से कहकर न करा पाया, वो खुद करने से करा लिया गया.
डायरी लिखते हुए मोबाइल पर फ्लैश होता है, ‘न्यूज़ फॉर यू: प्रिंस चार्ल्स टेस्ट्स पॉज़िटिव फॉर कोरोनावाइरस.’ मैं थोड़ा डरती हूँ. ये अजीब क़िस्म का डर है. पहले कभी महसूस नहीं किया. एक अजीब सी अनिश्चितता. क्या यह नया वाइरस वाक़ई इस ग्रह पर मंडराता बड़ा ख़तरा है? बड़े ख़तरे का मतलब आखिर होता क्या है. संसाधनों का अन्यायपूर्ण बँटवारा सबसे बड़ी समस्या लगता रहा है. अब यह समस्या जटिल होती दिखती है. प्रिंस चार्ल्स, दुनिया की सबसे बड़ी औपनिवेशिक ताकत रहे ब्रिटेन के राजकुमार चार्ल्स. वे इस ख़तरे की ज़द में हैं. और दिल्ली में मेरे घर पर काम करने आने वाली मंजू का छोटा बच्चा भी. वो मज़दूर भी जो ख़तरे के बावजूद गाड़ियों और बसों में भरकर अपने गाँव-देहात पहुँचे हैं, वो भी जिनके घर इस तालाबंदी में खाना न बन सकेगा. एक वक्त था जब मैं ऐसे लोगों को नहीं जानती थी जिनके घर एक दिन की दिहाड़ी न आने पर खाना नहीं बनता. मुझे यह बात अतिश्योक्ति जैसी लगती थी. पर अब जानती हूँ.
एक दोस्त ने फ़ोन पर बताया कि उसके घर खाना बनाने आने वाली दीदी ने फ़ोन किया और पूछा कि क्या वो घर चला गया है. दीदी को फ़िक्र थी कि वो अकेले खाना कैसे बना-खा रहा होगा. उसने दीदी को कहा कि मार्च और अप्रेल का पैसा वह भेज देगा. पर दीदी ने बताया कि उन्होंने पैसे के लिए नहीं, उसका हाल जानने के लिए फ़ोन लगाया था. इस ज़िक्र के बाद इस बारे में मेरा कुछ भी कहना बेमानी रह जाता है.
सरकार ने निर्देश जारी किए हैं कि हम 21 दिन अपने घरों से न निकलें. पर इस अफ़रातफ़री के बीच अपने घर जाना चाहने वाले छात्रों-मज़दूरों के लिए कोई व्यवस्थाएँ नहीं कीं. किया तो बहुत कुछ नहीं, पर सरकार का रोना आखिर कितना रोया जा सकता है. योर एक्शंस स्पीक लाउडर दैन योर वर्ड्स. बेहतर होगा जिसे रोना आए, वो कुछ कर सके. जितना करने की स्थिति में हो उतना ही कर सके. एक बेहतर नागरिक बनने के बारे में सोचे, बने. सिद्धार्थ ने कहा है कि वह एक वक्त खाना छोड़ रहे हैं, ताकि उनकी जगह किसी और तक वो खाना पहुँच सके. मैं बाहर जाकर किसी मज़दूर के परिवार तक खाना नहीं पहुँचा सकती. पर मैं एक वक्त का खाना छोड़ सकती हूँ. और भी देखूँगी कि क्या कर सकती हूँ. करूँगी. इस बीच रोज़ लिखूँगी.
7 Comments
Kapil March 26, 2020 at 10:55 am
उम्मीद है इन दिनों में हमें बहुत कुछ नया पढ़ने को मिलेगा। 🙂🙂
Pradeepika Saraswat March 27, 2020 at 9:06 am
कोशिश रहेगी उम्मीद पर खरा उतरने की.
Saurabh saraswat March 27, 2020 at 9:56 am
Good morning story and 21 days sort day by day
Prabhat Kumar March 28, 2020 at 10:12 am
Bahut sukun dena wala hai.. Kyun pata nahi
Prabhat Kumar March 28, 2020 at 10:14 am
Bahut sukun dene wala hai yeh. Kyun.. Pata nahi
Puskar Pande March 28, 2020 at 3:43 pm
इस मुश्किल समय में लेखन ही एक सहारा है. आप खुशकिस्मत है कि देहरादून में है.
Adarsh rai April 13, 2020 at 2:18 pm
मैं आपका लिखा जहां पाता हूँ पहले उसको पढ़ने का काम करता हूं फ़िर कोई दूसरा काम.