देश में लॉकडाउन का चौथा दिन है. लेकिन मेरे लिए नौवां दिन है. बीमार होने की वजह से मैं 19 तारीख़ से घर में हूं. इन नौ दिनों में एक जगह रहते-रहते मुझे कई बार उदासी, डिप्रेशन सा महसूस हुआ. वो भी तब जबकि मेरे पास एक लग्ज़री लाइफ़ है. इस दौरान मैंने हर रोज़ सुबह उठने के बाद चाय या कॉफी में क्या पीना है, वो चुना है. फिर नाश्ता, खाना, रात के डिनर के अलावा बीच-बीच में क्या खाना है, उसमें भी विकल्प चुनती हूं. नेटफ्लिक्स या प्राइम पर क्या देखना है, इसमें भी चुनाव करती हूं. इसके अलावा छत पर जाकर घंटों नीला आसमान देखती हूं. चिड़ियों का चहकना महसूस कर रही हूं. सोशल मीडिया के लिए इनकी तस्वीर उतारती हूं. अपनी मर्ज़ी से अपनी पसंद का खाना खाने के बाद, फ़िल्म देखने के बाद भी मुझे ये शिकायत थी कि ये कैसी ज़िंदगी है. लेकिन तभी बिहार, यूपी, महाराष्ट्र से उन मज़दूरों की तस्वीर सामने आने लगी, जो बिना खाए लगातार कई घंटों से चले जा रहे हैं.
मेरे और आपके जैसे लोग ऑफिस आने और जाने के लिए चौथे तल चढ़ने-उतरने में थक जाते हैं. क्या कभी हम ऐसे अपने घर लौटने का सोच सकते हैं? चाहे दुनिया ख़त्म ही क्यों ना हो रही हो. नहीं सोच सकते हैं, क्योंकि हमारे पास रहने को छत है, तीन वक्त का खाना है, मनोरंजन के तमाम साधन मौजूद हैं. लेकिन ये मज़दूर निकल पड़े हैं बिना कुछ सोचे मीलों जाने के लिए, क्योंकि इनके पास ना तो छत है और न दो वक़्त का खाना. पिछले चार दिनों से अपने-अपने घरों के लिए निकले इन लोगों में से कोई दो दिन बाद मिले खाने को देखकर रो रहा है, तो कहीं चलते-चलते बच्चे निढाल हो चुके हैं. कहीं कोई इस उम्मीद में गांव जा रहा है कि मरना है तो अपनों के बीच मरेंगे. कोई सिर्फ़ ये सोचकर कि गांव में कम से कम पानी तो मिलेगा. ये सारे लोग इस को बात जानते हैं कि जिस गांव को वो छोड़कर शहर भागे हैं ज़रूरत पड़ने पर वो शहर इन्हें सबसे पहले निकालेगा, जबकि गांव वो जगह है जो साथ नहीं छोड़ता.
अभी जब मैं ये सब लिख रही हूं तब शायद मैं रो रही हूं या रोना चाहती हूं. बहुत देर तक बिना आंसुओं को रोके. मन में ये चल रहा है कि हम सब बहुत ही मक्कार लोग हैं, जिन्हें सारे मनोरंजन के बाद उदासी महसूस होती है. जो पिछले चार दिनों से अलग-अलग तरह के पकवान बना कर उसकी फ़ोटो खींच रहे हैं. अगले 21 दिन के सोशल मीडिया के लिए हमने चैलेंज सोच रखा है. प्रकृति को महसूस कर रहे हैं. इसके अलावा बचे कुछ दिनों के लिए हमने कई चीजें प्लान कर रखी है. तीन वक्त का खाना भरपेट खाने के बाद, सोशल मीडिया खंगालने के बाद, नेटफ्लिक्स देखने के बाद, सारे सोशल मीडिया पर ख़ुद को अपडेट करके जब हम थक रहे हैं तो हमें उदासी और डिप्रेशन महसूस हो रहा है और हम उसे भी सोशल मीडिया में लिखकर सहानुभूति ले रहे हैं.
लेकिन उन हज़ारों लोगों का क्या जो बिना किसी उम्मीद निकल पड़े हैं उस मिट्टी में जाने को जहां से वो आएं थे और वो जानते है कि वो मिट्टी और वहां के लोग उन्हें इस मौके पर भी अपना लेंगे. मुझे अपने साथ ही उन सारे लोगों पर ग़ुस्सा आ रहा है जिनके पास हर चीज़ के लिए ढेरों विकल्प हैं लेकिन हम ये कह रहे हैं कि हम डिप्रेशन में जा रहे हैं या 21 दिन कैसे रहेंगे.
इस लॉकडाउन में जहां हम जैसे प्रीविलेज्ड लोग परिवार या दोस्तों के साथ अच्छा समय बिता रहे हैं और इसे ऐसे देख रहे हैं कि इस दौरान हम एक-दूसरे के क़रीब आएंगे जो कि फ़ोन और सोशल मीडिया की वजह से दूर हो चुके थे. वहीं एक तबका जो हर रोज़ कमाता है और परिवार पालता है. इस लॉकडाउन की वजह से ना तो उसके पास काम बचा है और ना ही छत, अपनों का साथ पाने के लिए कई घंटों से चला जा रहा है.
1 Comment
Uttam March 29, 2020 at 11:22 pm
मै चम्पारण से हूँ। अभी हैदराबाद यूनिवर्सिटी में सोशियोलॉजी में MA की पढाई कर रहा हूँ। आपलोगो का काम काफी सहारनीय है।
सब कुछ उदासी से भर देने वाला है। पर बहुत कुछ बेहतर कर सकते है। मैं भी आपलोगो के साथ काम करना चाहता हूँ।
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