कभी-कभी हम जो कुछ कर रहे होते हैं, सब वहीं छोड़कर, किसी ऐसी जगह चले जाते हैं, जिसे बहुत साफ़ देख तो नहीं पाते पर महसूस कर सकते हैं. वह हमारे भीतर की दुनिया है, हमारा इनर वर्ल्ड. अभी मैं साइकोएनालिसिस की एलीमेंट्री स्टूडेंट हूँ. एबीसी सीख रही हूँ. तो नहीं जानती कि इनर वर्ल्ड की ज़मीन क्या है और आसमान कैसा है, वहाँ इमारतें हैं या सिर्फ जंगल. पर जन्म के बाद के सालों ने बता दिया है कि इनर वर्ल्ड बाहर की दुनिया से कम महत्वपूर्ण नहीं है. ज़्यादा हो, तो हो सकता है. इतना समझ पाई हूँ कि ये दोनों संसार एक दूसरे को खूब प्रभावित करते हैं, और इन दोनों का असर मानव अस्तित्व की स्थिति पर पड़ता है.
मानवीय स्थिति या ह्यूमन कंडीशन पर पढ़ते हुए आज एरिक फ्रोम से मुलाक़ात हुई. फ्रोम ख़ास हैं क्योंकि उन्होंने कार्ल मार्क्स के समाजवाद और सिग्मंड फ्रॉइड की साइकोएनालिसिस, दोनों को एक साथ लाकर उस पर काम किया. पच्चीसों किताबें लिखीं. वे कहते हैं कि एक तरफ़ तो आदमी अपनी आज़ादी के लिए हज़ारों युद्ध लड़ता है, युद्ध में अपनी जान देकर अपनी आज़ादी का, अपने चुनाव का दावा करता है. दूसरी तरफ़ वही आदमी, बड़े आराम से अपनी आज़ादी, अपनी तर्क करने और चुनाव करने की क्षमता, ‘एक छोटे बच्चे की तरह’ फ़ैसले न लेने का आराम चाहते हुए एक ताकतवर आदमी को सौंप देता है, जैसा कि हम नाज़ीवाद और फासीवाद के समय में देखते हैं.
ऐसा क्यों होता है? इस सवाल पर फ्रोम का मानना है कि आदमी के भीतर दो तरह की ख्वाहिशें होती हैं. एक आज़ादी की, दूसरी उस आज़ादी के साथ आई ज़िम्मेदारी से बचने की. वे कहते हैं कि आदमी की सोचने और महसूस करने की शक्ति ने उसे बाकी जानवरों की तरह प्रकृति का आम हिस्सा न रहने देकर, उसे सबसे अलग कर दिया. इन शक्तियों ने उसे एक तरफ़ आज़ादी का गौरव दिया तो दूसरी तरफ़ अकेले पड़ जाने का दंड भी. एक तरफ़ हृदय और मस्तिष्क की इन दो ताक़तों ने उसे खुद पर गर्व करना सिखा दिया दूसरी तरफ़ अकेलेपन की ओर ढकेल दिया. यह अकेलापन हमारी बरबादी साबित होता है. इसने हमारे स्वभाव को इतना विकृत कर दिया कि हम अपने लिए ही अजनबी होते चले गए हैं. इतने अकेले कि दूसरों के साथ कोई रिश्ता महसूस करना ही भूलने लगे हैं.
फ्रोम का कहा हुआ इतने सालों बाद भी सही मालूम होता है. एक अप्रैल रात दस बजे मेरे साथियों की हेल्पलाइन पर कच्छ, गुजरात से एक महिला का फोन आता है. उसकी भाषा हम ठीक से समझ नहीं पाते, पर मोटी-मोटी बात यह है कि उसके परिवार के पास तीन दिन से खाने का खाना नहीं है. वह रो रही है. टीम का एक वॉलंटियर बनारस-भदोही हाइवे पर पटरी लगाकर बैठा है. रात साढ़े ग्यारह बजे वो चार व्यक्तियों के बारे में अपडेट देता है. ये लोग कलकत्ता से चलकर जबलपुर तक पैदल जाने निकले हैं. वे इतने हाँफ़ रहे हैं कि बोल नहीं पा रहे हैं. वे इतना लंबा चलकर आ चुके हैं कि रुकने के लिए तैयार नहीं हो पाते. हज़ार किलोमीटर से ज़्यादा, आठ दिन लगातार, दिन में कम से कम 100 किलोमीटर. टीम के साथी परेशान हैं, उन्हें डर है कि वे और चले तो मर जाएंगे.
पर इन पलायितों के फिर पलायित होने का दर्द अब सोशल मीडिया और मीडिया से दूर धकेला जा चुका है. टीवी पर अब कोरोना जेहाद चल रहा है. सोशल मीडिया पर तबलीगी ज़मात के पक्ष और विपक्ष में चर्चाएँ, या कहा जाए तो तर्क-कुतर्क चल रहे हैं. सतही करुणा पर भीतर की गहरी नफ़रत भारी है. टीवी पर खबर चल रही है कि ओमर अब्दुल्ला ने दाढ़ी ट्रिम करा ली है. ओमर खुद इस पर तंज़ करते हुए कहते हैं कि दर्शकों का ध्यान खींचने के लिए अब मेरी दाढ़ी की लंबाई से ज़्यादा कुछ नहीं बचा.
हम इतने अकेले हैं कि दूसरों के साथ कोई रिश्ता महसूस करना भूलने लगे हैं. हमारा यह अकेलापन ख़ाली नहीं है. ख़ाली कुछ भी नहीं होता. कम से कम धरती पर तो नहीं. इस अकेलेपन को ध्यान से देखे जाने की ज़रूरत है. इस अकेलेपन का उद्गम आदमी की इस जानकारी में है कि वह बाक़ियों से अलग है. जो उससे अलग हैं, वे अजनबी हैं. वह उन्हें प्यार नहीं करता, उनका पक्ष नहीं लेता. वह उन पर सवाल करता है.
आदमी के अकेलेपन की इस जेल में सिर्फ उसके बाक़ियों से अलग होने की जानकारी नहीं है. इसमें और भी जानकारियाँ, विचार और भाव हैं. जैसे कि वह जानता है कि वह जैसा है, वैसा कल नहीं रहेगा, वह जानता है कि वह एक दिन मर जाएगा, वे लोग जिन्हें वह अपने से अलग नहीं समझता, जिन्हें वह प्यार करता है, वे भी मर जाएंगे. वह यह भी जानता है कि इन जानकारियों के बावजूद भी वह कुछ नहीं कर सकता. वह इन्हें बर्दाश्त करने पर मजबूर है. इस मजबूरी की शर्म उसकी तमाम ताकत पर भारी पड़ती है.
इस शर्म से बचने के लिए वह और अकेला होता जाता है. उसके भीतर की दुनिया और बाहर की दुनिया का फ़ासला भी बढ़ता जाता है. डिप्रेशन और पागलपन जैसी बीमारियाँ इसी बढ़ते फ़ासले के साथ आती हैं. इस फ़ासले को, आदमी से आदमी के फ़ासले को, आदमी के प्रकृति के फ़ासले को और आदमी के भीतर और बाहर की दुनिया के बीच के फ़ासले को ख़त्म करना ही उसे उसके अकेलेपन से बचा सकता है.
भारतीय आध्यात्म में मोक्ष का उल्लेख भी यही कहता है, आदमी और ईश्वर के बीच के फ़ासले का मिटना. पर आस-पास देखने पर ये फ़ासले कम नहीं होते दीखते, सिर्फ़ बढ़ते हैं. लिंग, जाति, धर्म, गाँव, शहर, अमीरी-ग़रीबी, रंग, वर्ग, राजनीति, भाषा, भोजन, पसंद, शौक़, स्वभाव और भी न जाने क्या-क्या हमें हर दिन थोड़ा और बाँटता चला जाता है.
शहरों में क़ैद लोग इन दिनों दूसरी तरह के अकेलेपन से गुज़र रहे हैं. परिवारों से दूर रहने वाले मध्यवर्ग के तमाम युवा शहरियों की समस्या है कि वे अपने-अपने फ्लैट्स में अकेले रह गए हैं. उनके पास बात करने के लिए, उन्हें सुनने के लिए कोई नहीं है. यह शहरों पर मानसिक स्वास्थ्य के ख़तरे को बढ़ा रहा है. गाँव लौटते आदमी की फ़िक्र इस समय रोटी की भूख है, तो शहर में फँसे आदमी के पास दूसरी भूख है.
फ्रोम कहते हैं कि अगर हर आदमी, महिला या पुरुष या अन्य, अगर पूरी स्वतंत्रता से अपनी मौलिकता तक पहुँच सके, तो वह अकेला नहीं रह जाएगा. वह अपना साथ महसूस कर सकेगा. और इसी तरह दूसरों का भी. पर अपने आप तक का फ़ासला भी काफ़ी लंबा है. उसे पाना आदर्श है. ठीक उसी तरह जिस तरह कोरोना जिहाद पर बहस कर रहे व्यक्ति से सड़क पर भूखे चल रहे आदमी का कष्ट महसूस करने की उम्मीद आदर्श है. आदर्श तक पहुँचना हमें भले ही याद न रहे, पर यह ज़रूर याद रह जाना चाहिए कि अकेलापन हमारी अनडूइंग है, हमारा नाश है.