मोतिहारी बस स्टैंड में बैग लिए हुए मुसाफिरों की चहलकदमी बढ़ चुकी है. ये मुसाफिर फिर से शहर का रुख कर रहे हैं. पीठ पर बैग और हाथ मे झोला लिए ये लोग चल पड़े हैं अपने गांव से दूर शहर की ओर. चेहरे पर पसीना, माथे पर शिकन और आंखों में काम मिलने की आश लेकर. ये वही प्रवासी मजदूर हैं, जो तीन महीने पहले बस, ट्रक, ट्रेन, साईकल और पैदल किसी तरह शहर से अपने घर तक पहुँचे थे.
मार्च में लॉकडाउन लगने के बाद जब मजदूरों को काम-काज बंद हो गया तो उनके पास केवल बेगारी बची थी. काम नहीं मिलने से बचत के पैसे खर्च होने लगे. थोड़े बहुत पैसों से जब तक दाल- रोटी नसीब हो रहा था, तबतक शहर में ठहरने का धैर्य था. लेकिन जब पैसे खत्म हो गए, और सरकार की तरफ से उन्हें कोई मदद नहीं मिली तो फिर मजदूर शहर छोड़ने के लिए मजबूर हो गए. कोरोना संक्रमण के दौर में अपना जान जोखिम में डाल कर मजदूर किसी तरह घर पहुँचे. और कई मजदूरों की मौत रास्ते में ही गई.
अब जब अनलॉक-4 चल रहा है. परिवहन के साधन फिर से बहाल हो गए हैं तो मजदूर कोरोना महामारी के बढते खतरे के बीच फिर से शहर की ओर चल पड़े हैं. मोतिहारी से दिल्ली जाने वाली बस के इंतज़ार में बैठे रामबालक कहते हैं कि कमाने खाने वाला आदमी, कमाएगा नहीं तो खाएगा कैसे? काम बंद होने से कर्ज बढ़ गया है. इसलिए जाना पड़ रहा है. बैग बनाने वाले फैक्टरी में काम करने वाले 20 साल के किशोर कुमार कहते है कि 6 महीने से घर पर बैठा था. गाँव में कोई काम नहीं मिल रहा है. भुखमरी की स्थिति बनी हुई है. जिंदा रहने के लिए तो कमाना ही पड़ेगा. अगर शहर नहीं गए तो घर- परिवार कैसे चलेगा.
रोजगार देने का सरकार का दावा हुआ फेल
जब मजदूर शहर से गाँव लौटे तो सूबे के मुखिया नीतीश कुमार ने कहा कि “सरकार सभी लोगों को काम देगी किसी को भी संक्रमण काल मे बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है”. इस बारे में बात करने पर मजदूरी करने वाले खैरवा गाँव के निवासी निराले बताते है, ” सरकार ने ये बात कही तो जरूर है लेकिन हमें कोई काम नहीं मिला. ये बेमानी बाते है, सरकार की तरफ से कोई भी मदद नहीं मिली. अगर हमें काम मिलता तो हम परिवार से दूर क्यों जाते? 3-4 महीने तो किसी तरह कट गए, लेकिन आगे नहीं चल पाएगा.”
इसी बात पर दिहाड़ी मजदूरी करने वाले सिसवा के मदन कहते है कि सरकार का तो कोई आदमी तक का चेहरा नहीं दिखा. क्या कोई काम देगा? गाँव मे तो सरकार की तरफ से किसी को भी काम नहीं मिला.
बढ़ते संक्रमण के बावजूद बदस्तूर जारी है पलायन
मौजूदा समय में देश में कोरोना संक्रमण के रिकॉर्ड केस दर्ज हो रहे हैं. भारत संक्रमण के मामले में दूसरे नंबर पर है. देश में संक्रमितों की संख्या 50 लाख के पार हो गई है. महामारी रूक नहीं रही, लेकिन फिर भी मजदूर शहर की ओर बढ़ रहे हैं. टोपी बनाने वाले कंपनी में काम करने वाले जुबैर बताते है कि- जान की चिंता किसे नहीं है. कौन जान जोखिम में डाल कर बाहर जाना चाहता है. लेकिन मजबूरी है. गाँव में काम नहीं है. काम नहीं मिलने की वजह से घर पर 5 महीने से खाली बैठा हूँ. कर्ज लेकर बाहर जाना पड़ रहा है. अगर घर पर काम मिल जाता तो कौन बाहर जाता. भूखे मरने से अच्छा है कि बीमारी से मरे.
गाँव में काम मिलने की बात पर मुंबई में काम करने वाले संजीत कहते हैं कि गाँव में पिछले 6 महीने में अबतक तीन बार ही काम मिला है. अगर किसी से उधार के लिए बोलो तो वो कहता है कि लॉकडाउन में पैसा कहाँ से आएगा?
चुनावी समय होने के बावजूद पलायन नहीं है मुद्दा
बिहार में कुछ दिनों में चुनाव होने वाला है. अगले 5-10 दिनों में कभी भी चुनाव की तारीख की घोषणा हो सकती है. लेकिन इस चुनाव में मजदूर और उनसे जुड़ी कोई भी समस्या चुनावी मुद्दा नहीं है. पिछले तीन साल से मार्बल बनाने वाली कंपनी में काम करने वाले 27 साल के संजीत महतो कहते हैं, ” गरीब की परवाह किसे है? कोई गरीबों के लिए नहीं सोचता है. इस संकट की घड़ी में कोई नेता भी तो मिलने नहीं आया. सहयोग की बात तो दूर है. कहने के लिए तो सारे नेता कहते हैं कि हम आपका ध्यान रखेंगे. लेकिन रखता कोई नहीं है.”
द बिहार मेल के लिए यह रिपोर्ट ‘कल्याण स्वरूप’ ने लिखी है. कल्याण पूर्व में ईटीवी भारत के साथ जुड़कर काम करते रहे हैं. फिलहाल मोतिहारी में रहते हैं.