जानिए कृषि विधेयकों के बारे में जिसे हरसिमरत कौर ने ‘जियो’ से जोड़ा

जानिए कृषि विधेयकों के बारे में जिसे हरसिमरत कौर ने ‘जियो’ से जोड़ा

देश में किसान एक बार फिर सड़क पर हैं। कारण है लोकसभा में पेश हुए तीन विधेयक। अब ये विधेयक लोकसभा से पारित भी हो चुके हैं और इसका विरोध करते हुए एक केंद्रीय मंत्री इस्तीफा भी दे चुकी हैं। ये विधेयक पहले अध्यादेश के रूप में थे। इन विधेयकों के बारे में सरकार का तर्क है कि इससे किसानों की आधुनिक तकनीक और बेहतर इनपुट तक पहुंच सुनिश्चित होगी, किसानों की आय में सुधार होगा और एक देश और एक कृषि बाजार बनाने की दिशा में ऐतिहासिक कदम साबित होगा। लेकिन सरकार के इन दावों का विरोध करते हुए पंजाब में किसान कोरोना वायरस महामारी के खतरे उठाते हुए भी सड़क पर हैं, एक किसान संगठन ‘रेल रोको’ की चेतावनी भी दे चुका है। वहीं इस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आश्वासन भी आ चुका है कि कृषि सुधार विधेयकों का पारित होना देश के किसानों और देश के कृषि क्षेत्र के लिए ऐतिहासिक क्षण है।

सबसे पहले जानते हैं इन विधेयकों के बारे में-

कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक, 2020 : यह विधेयक कानून का रूप लेने पर राज्य सरकार को मंडियों के बाहर की गई कृषि उपज की बिक्री पर कर लगाने से रोकता है और किसानों को लाभ के आधार पर उपज बेचने की स्वतंत्रता प्रदान कराता है। इसमें कहा गया है कि अब ‘व्यापार क्षेत्र’ के रूप में कोई भी क्षेत्र या स्थान, वेयर हाउस, फैक्ट्री परिसर, कोल्ड स्टोरेज समेत अन्य स्थान हो सकता है। हालांकि इसमें बाजार समितियों द्वारा संचालित और प्रबंधित परिसरों और स्थानों का जिक्र नहीं है। इसमें एपीएमसी अधिनियम (कृषि उत्पाद बाजार समिति) के तहत गठित मंडियों को नए कानून की व्यापार क्षेत्र की परिभाषा से बाहर रखा गया है यानी इसका जिक्र नहीं है। वहीं सरकार का दावा है कि मंडियों से इतर अतिरिक्त व्यापार क्षेत्र मिलने से किसानों को व्यापार और अपने उत्पादों की बिक्री और दामों की स्वतंत्रता मिलेगी।

इन तीनों विधेयकों को लेकर किसानों का बड़ा विरोध इस विधेयक के बारे में है। उन्हें आशंका है कि इससे न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को खत्म करने का रास्ता साफ हो जाएगा। वह ‘व्यापार क्षेत्र’ ‘विवाद सुलझाने के मसले’ ‘मुक्त बाजार’ से जुड़ी आशंकाओं को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं। इस पर कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने लोकसभा में चर्चा के दौरान कहा कि इससे किसानों के पास कहीं भी अपनी फसल को बेचने की आजादी होगी और वह फसल की कीमत भी तय कर सकेंगे।

मंडी, तस्वीर साभार-इंडियन एक्सप्रेस

आवश्यक वस्तु अधिनियम (संशोधन) विधेयक,2020: इसके तहत अब आवश्यक वस्तुओं की सूची से अनाज, आलू, प्याज, खाद्य तेल, दाल जैसी वस्तुएं बाहर हो जाएंगी। अब राष्ट्रीय आपदा या अकाल को छोड़कर इन वस्तुओं के भंडारण पर कोई सीमा नहीं लगेगी और किसान थोक विक्रेताओं से सीधे जुड़ने में सक्षम होंगे। लेकिन इस विधेयक के बारे में किसानों का कहना है कि देश में ज्यादातर किसान लघु या छोटे किसान हैं और ऐसे में उनके पास भंडारण करने की क्षमता नहीं होती है तो इसका मतलब है कि यह विधेयक कृषि क्षेत्र में काम करनेवाली बड़ी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए लाया गया है। बड़ी कंपनियां अब इन उत्पादों का बड़ा भंडारण करने में सक्षम होंगी और वे ऊंची कीमतों पर इन उत्पादों को बेचेंगी। किसान संगठनों का दावा है कि खाद्यान्नों का नियंत्रण सरकार के हाथ में होने की वजह से कोरोना जैसी महामारी के बीच सरकार लोगों को कम से कम अनाज तो मुहैया करा रही है लेकिन जब यह खाद्यान्न धीरे-धीरे निजी हाथों में चले जाएंगे तो विपरित परिस्थतियों में स्थिति और विकराल हो जाएगी।

तस्वीर साभार-गूगल

मूल्य आश्वासन व कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अनुबंध विधेयक-2020: इस विधेयक में किसान अपने कृषि उत्पादों को पहले से तय दामों पर बेचने के लिए कृषि क्षेत्र की कंपनियों, थोक विक्रेताओं, प्रोसेसर (प्रसंस्करण के काम से जुड़े कार्य करनेवालों), निर्यातकों या खुदरा विक्रेताओं के साथ अनुबंध कर सकते हैं। सरकार का तर्क है कि इसमें जोखिम कम होगा और उन्हें खरीददार तलाश करने में परेशानी नहीं आएगी। सरकार यह भी कह रही है कि इस विधेयक के कानून बनने से किसानों की उपज दुनिया भर में पहुंच सकेगी और कृषि क्षेत्र में निजी निवेश बढ़ेगा।


जानिए इन विधेयकों का विरोध करनेवाले संगठन और नेता क्या तर्क दे रहे हैं–
अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति का कहना है कि सरकार एक देश, एक बाजार की बात करती है जबकि किसान अपने स्थानीय बाजार में भी अपनी उपज बेचने में सक्षम नहीं हो पाते हैं। तो फिर वह दूरदराज का क्या करेंगे, क्या वह अपनी फसलों को लेकर दूर-दूर तक बेचने जाएंगे, उनके पास यह खर्चा कहां से आएगा और इसका वहन कैसे होगा? विधेयक में इस पहलू को नजरअंदाज किया गया है। इसके अलावा विवाद की मुख्य वजह है एमएसपी। किसानों को आशंका है कि इससे एमएसपी खत्म हो जाएगा।

आपको बता दें कि बिहार में पिछले कई वर्षों से एमएसपी लागू नहीं है और यहां हाल में चुनाव भी होने वाला है। प्रधानमंत्री कृषि विधेयकों के बारे में किसानों की आशंकाओं को दूर करने के दौरान बिहार का हवाला देते हैं। वह कहते हैं कि नीतीश कुमार भली भांती समझते हैं कि एपीएमसी एक्ट से किसानों को कितना नुकसान होता है और इसलिए उन्होंने बिहार में इस एक्ट को खत्म कर दिया। आपको बता दें कि इसी एक्ट के तहत मंडियों का गठन हुआ है जो सरकारी मूल्य पर किसानों से उनका उत्पाद खरीदती है। प्रधानमंत्री भले ही इसको एक उदाहरण बता रहे हों लेकिन किसान सुरेश कुमार सिंह का कहना है कि इससे बिहार के किसानों को नुकसान हुआ है और व्यापारी कम दामों में किसानों से फसल खरीदते हैं जो कि जगजाहिर है और इससे किसानों की परेशानियां खत्म नहीं हुई बल्कि वह और संकट में चले गए। इन कृषि विधेयकों में किसानों की इन समस्याओं का हल नहीं बताया गया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, तस्वीर साभार-आउटलुक

एमएसपी को लेकर स्वराज इंडिया पार्टी के अध्यक्ष योगेंद्र यादव का भी बयान आया है कि एमएसपी मंडियों के साथ कई दिक्कते हैं और किसान इससे खुश भी नहीं हैं लेकिन सरकार की नई व्यवस्था भी ठीक नहीं है। वह कहते हैं कि इन अध्यादेशों में यह तो कहा गया है कि बड़े व्यापारी किसानों से सीधे उनकी उपज खरीद सकेंगे लेकिन यह नहीं बताता है कि जिन किसानों के पास मोल-भाव करने की क्षमता नहीं है, उन्हें कैसे लाभ मिलेगा?

इस विधेयक के विरोध में शिरोमणि अकाली दल की नेता और केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर इस्तीफा दे चुकी हैं। उनका कहना था कि किसानों को चिंता है कि आने वाले दिनों में नए कानून की वजह से निजी कंपनियां कृषि सेक्टर पर नियंत्रण कर लेंगी और उन्हें नुकसान पहुंचेगा। कौर ने टीवी चैनल को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि एक किसान ने हमें केंद्र के इस कानून से पड़नेवाले असर का उदाहरण दिया। उसने कहा कि जब जियो आया था तो उसने फ्री फोन भी लोगों को दिए, जब सभी ने इन फोनों को ले लिया तो वे इन पर निर्भर हो गए, इस क्षेत्र में प्रतियोगिता खत्म हो गई और बाद में जियो ने अपना रेट भी बढ़ा दिया। किसानों का कहना है कि कॉर्पोरेट कंपनियां किसानों के साथ ऐसा ही करना चाह रही हैं।

हरसिमरत कौर

कौर ने कहा कि वह इस अध्यादेश को आने से लगातार दो महीने से किसानों और किसान संगठनों के साथ बैठकें कर रही थीं लेकिन जब यह विधेयक संसद में आ गया तो वह समझ गईं कि सरकार उनकी बात का समर्थन नहीं कर रही है।