‘पहचानते तो होगे निदा फ़ाज़ली को तुम, सूरज को खेल समझा था. छूते ही जल गया.’ बात उस शख्स की जो शायर से ज्यादा दार्शनिक था. जिसने आजादी के बाद दंगों से लहूलुहान देश को देखा. तब उस नौजवान आदमी के पास दो विकल्प थे. पहला विकल्प अपने परिवार के साथ पाकिस्तान चला जाए. या दूसरा जिस मिट्टी में पैदा हुआ, वहीं जिन्दगी के धूप-छांव देखे. उसने दूसरा विकल्प चुना. उन्होंने हिन्दुस्तान को अपनी जिन्दगी दी. हां, हम उसी निदा फ़ाज़ली के बारे में बता रहे जिन्होंने अपनी शायरी के जरिए जनमानस की बात लिखी. जिन्होंने लिखा-
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ नहीं मिलता
तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहां उम्मीद हो इस की वहां नहीं मिलता
सूरदास का वो भजन जिसने बदल दी जिन्दगी
यह 1960 के दशक की बात है. जब निदा ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में पढ़ा करते थे. इस दौर में भारत में साम्प्रदायिक दंगे उफान पर थे. परिवार पाकिस्तान में महफूज जगह तलाशने के बारे में सोच रहा था. निदा का मन-मस्तिष्क उस वक्त द्वंद्व से गुजर रहा था. एक सुबह जब कॉलेज जाते समय एक मंदिर से गुजरे तो उन्हें सूरदास की एक भजन सुनाई दी. उस भजन में राधा का वियोग था. राधा अपना वियोग पेड़-पौधे, जमीन और आसमान को बता रही थी. निदा फाजली अपने एक साक्षात्कार में इस वक्त को याद करते हुए बताते हैं, ”यह वह दौर था जब राधा अपनी बात प्रकृति को बता रही थी. इसका मतलब है कि इस पूरे आब-ओ-हवा को वो अपना परिवार मान रही थी. इस भजन का मुझ पर इतना असर हुआ कि मैंने भी सोच लिया, हिंदुस्तान में ही रहूंगा. यहां की जमीन, यहां की मिट्टी मेरी है, मैं इसे नहीं छोड़ सकता. जहां पैदा हुआ, वहीं रहना है. किसी और जगह नहीं जाना.”
धार्मिक पहचान के बदले इंसानियत की पहचान बने
साल 1964-1965 को याद करते हुए निदा फ़ाज़ली कहते हैं कि जमीन की तब्दीली मसाइल (समस्या) का हल नहीं हो सकती. जगह बदल लेने से समस्या का निदान नहीं होगा. वो कहते हैं कि मेरी नजर में मसाइल (समस्या) उस जमाने में हिंदू, मुस्लिम,सिख, ईसाई नहीं थे. मसाइल इंसान की सोच थी. वो इसे समझाने के लिए ग़ालिब के एक शेर को याद करते हुए कहते है “बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना ,आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना”. ग़ालिब कहना चाहते थे कि मां के पेट से जो पैदा होता है, वो आदमी होता है, लेकिन आदमी को इंसान होने के लिए लंबा सफर तय करना पड़ता है. जब आदमी लंबा सफर तय कर लेता है. तो वह अपनी धार्मिक पहचान भूलकर बुद्ध बन जाता है, महावीर बन जाता है और डॉक्टर राम मनोहर लोहिया बन जाता है. उसकी बिरादरी सिमटती नहीं बल्कि अनंत तक चली जाती है. इसलिए ‘आदमी’ को इंसान बनना चाहिए.
एक शायर को कैसा होना चाहिए?
निदा फ़ाज़ली का मानना रहा कि शायर वो है जो समय से संवाद स्थापित करता है. वो उस वक़्त को शायरी के शक्ल में दस्तावेज की तरह सहेजता है. इस मामले में उनका कहना था कि औरंगजेब के जमाने में वली दक्कनी ने एक शेर लिखा था “मुफ़लिसी सब बहार खोती है, मर्द का ए’तिबार खोती है”. क्या इस शेर को उस समय की अर्थव्यवस्था से अलग किया जा सकता है. यह शेर जब तक रहेगा तब तक औरंगजेब के जमाने की इकोनॉमिक्स को बताता रहेगा. उनकी राय थी कि एक शायर केवल शेर कहता या लिखता नहीं हैं वो उस जमाने की राजनीति और सामाजिकी को अपने शायरी में डाल कर लोगों के सामने पेश करता है.
मां के न चाहते हुए भी इस दुनिया में आए निदा फ़ाज़ली
निदा फ़ाज़ली बताते हैं कि किसी भी जमाने मे किसी का इस दुनिया में आना और नहीं आना केवल सेक्स पर निर्भर नहीं करता. किसी के होने और नहीं होना उस घर की इकोनॉमिक्स तय करती है. मैं अपने घर के बजट में नहीं आ रहा था. लेकिन मैं अपने माँ के गर्भ में आ गया था. मेरी माँ मुझे हिंदुस्तानी दवाओं के जरिये खामोश करने की कोशिश करती रही, लेकिन फिर भी मैं खामोश नहीं हो सका और इस दुनिया में आ गया.
शायर नहीं बदलते अपने शब्द
कारवां-ए-ग़ज़ल में तलत अजीज के साथ बातचीत के दौरान निदा फ़ाज़ली कहते हैं कि संगीतकार खय्याम के लिए उन्होंने एक गाना लिखा, ” कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता” जब यह गाना रिकॉर्ड होने जा रहा था तो खय्याम साहब अपनी कुर्सी पर बैठे थे. आशा भोसले भी वही पास के केबिन में थी. उन्होंने निदा फ़ाज़ली को बुलाया. निदा जब के पास गए. आशा भोसले ने कहा कि हिंदुस्तान की आर्थिक स्थिति ‘मुकम्मल’ शब्द को पचा नहीं सकती. इस शब्द को आप बदल दीजिए. फिर निदा फ़ाज़ली ने आशा भोसले से कुछ नहीं कहा और चुपचाप चले गए. उन्होंने खय्याम को जाकर कहा कि मैं अपने शब्द नहीं बदल सकता. इसी ट्यून पर मैं दूसरा गाना लिख देता हूं. तब संगीतकार खय्याम ने कहा कि आपने जो लिखा है वही गाया जाएगा. मुझे मेरे शायर पर ऐतबार है. और आखिरी में गाना उसी शब्द के साथ रिकॉर्ड किया गया. जिसे गायक भूपेंद्र ने मुकम्मल को ‘मुकम्मिल’ कहकर गया. इसी गज़ल को सिलसिला फ़िल्म के आखिरी में अमिताभ बच्चन से डायलॉग के तौर पर कहा गया. और फ़िल्म आहिस्ता-आहिस्ता में यह गाने के रूप में भूपेंद्र और आशा भोसले से गवाया गया.
इस गजल के पीछे के दर्शनशास्त्र के बारे में निदा फ़ाज़ली कहते हैं कि इसका नाता मशहूर दार्शनिक प्लूटो है. प्लूटो ने एक मिथ को गढ़ा था. जिसमे पुरुष और स्त्री की काया को मिलकर एक काल्पनिक वजूद को बनाया गया. इसे हिन्दू मैंथोलोजी में अर्धनारीश्वर कहते हैं. जब हिन्दू देवताओं ने इसे देखा तो उन्हें डर लगा. उन्हें लगने लगा कि यह काया कभी भी हमे चुनौती दे सकता है. फिर देवताओं ने मिलकर उस काया को पहाड़ पर ले जाकर दो भागों में बांट दिया. और दोनों टुकड़ों को विपरीत दिशाओं में फेंक दिया.तब से प्लेटो के अनुसार एक हिस्सा दूसरे हिस्से को तलाश रहा है. सही हिस्सा दूसरे सही हिस्से को नहीं मिलता. उसी तर्ज पर उन्होंने लिखा कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता.
होश वालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज है
जॉन मैथूज की फिल्म सरफरोश का वो गाना तो याद होगा आपलोगों को ” होश वालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज है, इश्क़ कीजिए फिर समझिए जिंदगी क्या चीज है.” इस गाने को लिखने वाले निदा फ़ाज़ली ही हैं. इस गाने के बनने के पीछे भी वो दर्शन को ही मानते हैं. निदा फ़ाज़ली एक इंटरव्यू में कहते हैं कि हिंदुस्तानी तारीखों में पहली ग़ज़ल कबीर की है. जो इस तरह है “हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या? रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या? इसी विचार को मैंने अपने तरीके से डिकोड कर के लिखा- होश वालों को खबर क्या, बेखुदी क्या चीज है. इस गीत को गानेवाले जगजीत सिंह को यह काम निदा फ़ाज़ली ने ही दिया था.