पटना का सदियों पुराना कब्रिस्तान, जहां दफ़न हैं अंग्रेज अधिकारी और उनके परिवार

पटना का सदियों पुराना कब्रिस्तान, जहां दफ़न हैं अंग्रेज अधिकारी और उनके परिवार

‘ओनली द डेड स्टे सेवंटीन फॉरएवर’. पटना के सब्जीबाग में सदियों पुराने एक कब्रिस्तान में कब्रों को निहारते और उस पर लिखे नामों और उम्र को पढ़ते मुझे यही ख्याल आया. ह्यू कॉर्टनी नाम के एक बच्चे की कब्र है, जो इस दुनिया को महज पांच महीने और 20 दिन में 28 जनवरी 1856 को अलविदा कह गया. मैं 2020 में उसकी कब्र देख रही हूं और वह अब भी पांच साल का ही है.  मौत का हिसाब-किताब ऐसा ही है, ज़िंदा रहे तो बढ़ती उम्र की चिंता होगी, मौत के बाद उम्र आगे नहीं बढ़ती.

एक छोटे बच्चे की कब्र 

इस कब्रिस्तान को देखते हुए इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि इन्हें कितनी शिद्दत से डिजाइन किया गया था. बेहद खूबसूरत डिजाइन, लेकिन अब कब्रों से नाम मिटने लगे हैं और कब्रिस्तान से बाहर निकलते हुए बस एक ही चीज याद रह जाती है, वह है , ‘ इन द लविंग मेमरी ऑफ…’.

मैं कई बार खुद को इस बहस में भी फंसी पाती हूं कि मरने के बाद जलाना अच्छा होता है या दफनाना. इस पर सभ्यता, धर्म और प्रकृति की बहस शुरू होती है, फिर लगता है-यार, मर ही गए तो फिर क्या ही फर्क पड़ता है.

पटना के इस कब्रिस्तान में दो बार गई. यह कब्रिस्तान अशोक राजपथ पर पीरबहोर पुलिस थाने के लगभग सामने है और पास ही एक चर्च भी है. कब्रिस्तान बहुत पहले ही बंद हो चुका है, यानी यहां अब शव दफनाए नहीं जाते. पटना के ऐतिहासिक अशोक राजपथ से गुजरते हुए लगता भी नहीं कि यहां कोई इतना पुराना कब्रिस्तान भी होगा. कब्रिस्तान की दीवार से लगे हुए घर हैं, दुकानें हैं और कितने ही भूमाफियाओं की नजरें हैं जो इस जमीन पर कब्जा करने के फिराक में हैं.

कब्रिस्तान की देखरेख करनेवाले मोहम्मद इशहाक बताते हैं कि उनके अब्बाजान उनसे पहले यहां देखरेख करते थे. अब उन्होंने इस जिम्मेदारी को अपने कंधों पर ले लिया है. जब मैंने उनसे जानने की कोशिश की कि अब जब अंग्रेजों को यहां से गए हुए 70 साल से ज्यादा हो चुके हैं, तो कभी कोई अपने पुरखों को खोजता हुआ यहां आया क्या?

इस पर वह बताते हैं कि वर्षों पहले अमेरिका से एक महिला इस कब्रिस्तान मे आई थी. बनारस तक आई वह अमेरिकी महिला के दादी की दादी यहां दफन हैं. तो ऐसे मौके पर उन्होंने कब्र को अच्छे से धो-पोछकर साफ किया और फूलों से सजाया था.

यहां की कब्रों पर उकेरी गई कलाकारी तो बस अद्भुत हैं. मैंने इससे पहले इतनी खूबसूरती से पत्थर से बनाए गए कब्र नहीं देखे थे. वहीं कुछ कब्रें टॉवरनुमा हैं, ऐसा कहा जाता है कि यह कब्रें उस जमाने के बड़े अंग्रेज अधिकारियों की कब्रें हैं.

इस जगह के बारे में गूगल करने पर पता चलता है कि यह पटना का पहला ऐसा कब्रिस्तान था, जिसके दस्तावेज तैयार किए गए थे और इसका उद्घाटन 1830 में कलकत्ता के बिशप ने किया था. तब कलकत्ता ही शक्ति का केंद्र था-

यहां एक कब्र हेनरी डगलस की है, जो पटना डिविजन के मजिस्ट्रेट भी रह चुके हैं. इनके बारे में गूगल पर सर्च करने के दौरान यह भी जानकारी मिलती है कि पटना के गांधी मैदान और एग्जीबिशन रोड के आसपास पेड़ों को लगवाने में इनका योगदान है। api.parliament.uk प्राप्त जानकारी के अनुसार डगलस स्कॉटलैंड के रहनेवाले थे और जीवन के शुरुआती समय में ही भारत आ गए और पूरा जीवन यहीं गुजार दिया. उनकी मृत्यु यहीं पटना में हुई.

इशहाक कब्रों को दिखाते हुए कहते हैं कि कई वर्ष पहले यह जगह ठीक-ठाक करने के चक्कर में और तबाह हो गई, कई खूबसूरत डिजाइन वाले कब्र अंदर ही दब गए. उनसे जब पूछती हूं कि पास ही चर्च है तो क्या वहां से कुछ सहायता नहीं मिलती है तो वे ना में सिर हिला देते हैं. कब्रों पर बैठकर कुछ लोग चाय-पानी पी रहें हैं और धूप सेंक रहे हैं, बीच में एक कुआं है. इशहाक कहते हैं कि पर्व-त्योहारों पर भी चर्च से यहां कोई नहीं आता. बस कभी-कभी कुछ लोग इस पुराने कब्रिस्तान को देखने आ जाते हैं और इसे बर्बाद हालत में पाते हैं.

सेसिल फॉल्दर की कब्र 

यहां एक कब्र के पास कुछ फूल खिले हुए हैं, उस कब्र पर लिखा है, इन द लविंग मेमरी ऑफ माय हसबेंड. यह कब्र सेसिल फॉल्दर की है. उनके कब्र पर लिखी बातों से पता चलता है कि वह पटना डिविजन के कमिश्नर रह चुके हैं. कुछ टॉवरनुमा कब्र, जिसका जिक्र मैं ऊपर भी कर चुकी हूं, वह अब गिरने-गिरने की हालत में है.

वहीं एक कब्र किताब की डिजाइन में बना है. आह, कितना खूबसूरत- इसके ठीक सटे हुए दूसरा कब्र भी है. एक ही परिवार के दो लोग आसपास दफन हैं.

खैर, इन कब्रों को देखने के बाद यह एहसास और भी पुख्ता हो जाता है कि यह कब्रिस्तान ‘पटना के इतिहास’ का जरूरी हिस्सा है. यह कब्रिस्तान पटना की कहानी का अहम पड़ाव है. इसलिए भी इसे सुरक्षित व साफ-सुथरा करके रखा जाना चाहिए, लेकिन बिहार की नागरिक होने के नाते मैं इतना तो जानती हूं कि सरकार से ऐसी अपेक्षाएं बेमानी हैं. पटना की पहचान के तौर पर खड़े गोलघर का काम न जाने कितने वर्षों से हो रहा है. पुराने डच डिजाइन वाले कलेक्ट्रेट इमारत को बचाने के लिए पटना के नागरिक मुकदमा तक लड़ रहे हैं, लेकिन…जब राज्य में जिंदा लोगों की सरकार कोई सुध नहीं ले रहीफिर दफ़न लोगों की कौन पूछे? बाद बाकी इतिहास देखने की इच्छा रखने वाले लोग यहां आने पर निराश नहीं होंगे…