फिर आया साल 2013, जब सीएसडीएस के मीडिया फेलोशिप के लिए खगड़िया जिले का फरकिया इलाका चुना. पांच नदियों की गोद में बसे इस इलाके में न सरकार की सड़क पहुंची है, न उसका कानून. इस इलाके के बारे में आप किसी स्थानीय जानकार से पूछेंगे तो वह आपको राजा टोडरमल का किस्सा सुनाएगा. बड़े गर्व से कहेगा-
‘‘ जानते हैं, अकबर के नवरत्नों में से एक टोडरमल पूरे हिंदुस्तान का लैंड सर्वे करने निकले थे. मगर हमारे इलाके में आकर फंस गए. क्योंकि यहां हर दो किमी पर एक नदी थी और ये नदियां भी बहुत जल्द रास्ता बदल लेती थीं. वे यहां महीनों बैठे रहे, मगर सर्वे नहीं करवा पाए. फिर नक्शे में इस इलाके को घेरकर उन्होंने लिख दिया. फरक किया मतलब अलग कर दिया। और यह फरक किया ही अब फरकिया हो गया है.’’
बहरहाल उस ट्रिप में मेरा फरकिया के कई इलाकों में जाना हुआ. केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के पैतृक गांव शहरबन्नी भी गया, जो बदलाघाट-नगरपाड़ा तटबंध के भीतर बसा है. बदलाघाट-नगरपाड़ा तटबंध के बीच बसे दर्जनों गांवों के बीच शहरबन्नी की एक अनूठी पहचान है, वह यह कि उस गांव में एक सीमेंटेड सड़क है और कुछ पक्के मकान. यानी आप समझ लीजिए, इलाके के किसी भी दूसरे गांव तक पहुंचने के लिए पक्का रास्ता नहीं है, ईट की सोलिंग भी नहीं. पगडंडियां हैं, नावें हैं और पैदल रास्ते हैं. शहरबन्नी में भी सड़क इसलिए है, क्योंकि यह लगातार कई टर्म में केंद्रीय मंत्री रहे देश के मशहूर राजनेता रामविलास पासवान का गांव है.
शहरबन्नी के तीन-चार किमी आगे है, गुलरिया गांव. शहरबन्नी के बाद ही सड़कें खत्म हो जाती हैं. धूल में मोटरसाइकिल चलाते हुए हम मोहराघाट पहुंचे फिर वहां से नाव के सहारे उस पार. मोटरसाइकिल समेत. गुलरिया गांव की पहचान यह है कि भारत में चल रहे पल्स पोलियो अभियान के सिलसिले में दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति बिल गेट्स पहुंचे थे. यह 2010 की बात है. जब 2013 में मैं वहां गया, तो पता चला कि तीन साल से गांव के लोग उस बिलगोटिया (बिल गेट्स) का इंतजार कर रहे हैं. कहने लगे
‘‘ एगो भारी पैसा बाला अंगरेज आया था, नाम, बिलगोट. उसके साथ एक दर्जन अंगरेज, दू दर्जन सिपाही, डीएम, कलट्टर, एमबे-बीए (एमएलए), भीडीओ (बीडीओ), नेता-चमचा, छापी लेने वाला (फोटोग्राफर-वीडियोग्राफर) सब आया था. मेला-ठेला जैसा लग गया था. गांव से बेसी बाहर का आदमी. घर में घुस-घुस के मौगी आ बच्चा सबका छापी लेता (फोटोग्राफी), माइक भिड़ाकर पूछापाछी करता था.
बाद में कोई बोला कि पूरा गुलरिया गांव को गोदी में ले लिया है. मैंने वहां से लौटकर पता किया तो बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने साफ-साफ जवाब दे दिया कि एडॉप्ट करने (गोद लेने) की कोई बात ही नहीं हुई थी. पता नहीं मीडिया वालों ने कहां से खबर उड़ा दी.
इसके अलावा मैं कई दूसरे गांवों में भी गया, जहां अलग-अलग किस्म के किस्सों से सामना हुआ. पता चला कि टोडरमल ने जिस फरकिया को लाल स्याही से घेर दिया था, वह आज भी तमाम सवालों से घिरा जवाब के इंतजार खड़ा है. कोई सरकारी सुविधा नहीं, कानून का कोई राज नहीं, वह कुल मिलाकर 18वीं सदी की एक छूटी हुई दुनिया है, जहां रहनेवाले लोग कभी-कभार अपने काम से 21वीं सदी की दुनिया में आ जाया करते हैं. टाइम ट्रेवेल किया करते हैं.
नोट: बिहार के रहनेवाले पत्रकार पुष्यमित्र ने बिहार को लेकर हाल में एक किताब लिखी है, इसका नाम है ‘रुकतापुर’. उपर्युक्त हिस्सा इसी किताब का अंश है. इसका प्रकाशन राजकमल प्रकाशन समूह के उपक्रम सार्थक ने किया है.