खराब मौसम और कोरोना वायरस लॉकडाउन की दोहरी मार झेल रहे हैं किसान…

खराब मौसम और कोरोना वायरस लॉकडाउन की दोहरी मार झेल रहे हैं किसान…

हम एक ऐसे देश में रहते हैं जहाँ अगर कुछ प्रधान है तो वह है कृषि। कृषि पर दुनिया की सारी अर्थव्यवस्थाएं फलती-फूलती हैं, यह दैनिक जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। इसके बिना जीवन की कल्पना करने के लिए विज्ञान को अभी बहुत दूर तक यात्रा करनी होगी, लेकिन कृषकों की हालत पर गौर करें तो वे बदहाली की चरम सीमा पार कर चुके हैं. मजबूरी और खेती-किसानी साथ-साथ चलते हैं। चिलचिलाती धूप के बावजूद किसान अपने काम में जूझ रहे हैं। देशव्यापी संकट से उबरने के लिए तमाम कोशिश जारी हैं, लेकिन यह वर्ग  इस चपेट में आने के बाद उबर पाने की स्थिति में नहीं दिखता। किसान के जीवन से जुड़े कई पहलुओं को देखा जाए

तो इस विभीषिका में यह बात अच्छी तरह से समझी जा सकती है कि कृषि न सिर्फ किसान के लिए ज़रूरी है बल्कि इसकी कमी से पूरा देश प्रभावित होगा।

 गौरतलब है कि आधे मार्च से आधे अप्रैल तक किसानों के गेहूं की कटाई जोरों से होती है, लेकिन इस वर्ष भीषण महामारी के कारण किसानों की दुर्दशा किससे छिपी है। गेहूं की कटाई अक्सर किसान भोर में ही उठकर करना शुरू करते हैं और नौ बजते-बजते धूप और गर्मी देह को झुलसाने लगते हैं, लेकिन किसान हैं कि लगे हुए हैं। धान की पिछली फसल पर भी मौसम ने मेहरबानी नहीं दिखाई। उत्तर प्रदेश के पूर्वोत्तर इलाक़े में ज्यादातर किसानों ने धान की कटाई के बाद दंवाई की थी, ओसाई बाकी रह गई थी कि अचानक बारिश हो गई और ज्यादातर धान भींग गया। भींगने के बाद धान को कई दिन लगे सुखाने में लेकिन तब तक उसमें कई ऐब आ चुके थे। किसानों को उचित मूल्य से पांच – छः सौ रुपए कम में किसी तरह से बेचना पड़ा। प्रेमचंद ने गोदान में लिखा है कि किसान बड़ा स्वार्थी होता है, होगा भी क्यों नहीं उसके पास होता ही कितना है जो इस स्थिति में स्वार्थ को छोड़ दे, लेकिन स्वार्थता के अलग कारण है, दयालुता के लिए भी भारतीय किसान जाने जाते हैं। कुछ किसान अपने अनाज का भाव और अधिक चढ़ने के इन्तजार में बैठे रहे लेकिन भाव चढ़ने के बजाय ऐसा घटा कि उन्हें भी लगभग इतना ही नुकसान सहना पड़ा।

मौसम की मार किसान झेलते हैं, लेकिन पर्यावरण में आई अनियमितता के जिम्मेदार लोग मौसम का मज़ा लेते हैं। किसान जितने संवेदनशील होते हैं उतने ही सहज। फसलों के नुकसान की भरपाई कोई सरकार कभी नहीं कर पाएगी, उसके एवज में कुछ पैसे भले दे दे। किसान संतोषी होता है और हर तरह का घाटा सहते हुए भी अगली फसल की तैयारी में जुट जाता है, लेकिन इस बार किसानों की हालत एक जैसी थी, क्योंकि ज्यादातर किसानों को यह नुकसान झेलना पड़ा इसलिए एक-दूसरे को देखकर संतोष कर लिए। अगर कहीं ऐसा हुआ होता कि कुछ लोग अपनी फसल बचा लेते और कुछ किसानों की फसल बर्बाद हो जाती तो इस साल भारत में किसानों के आत्महत्याओं की खबरें आपको सुनने को मिलतीं। किसानों ने किसी तरह संतोष किया और इस उम्मीद से कि अगली डार की फसल में इस डार के नुकसान की कुछ भरपाई कर लेंगे।

अपनी बरबाद फसल देखकर परेशान किसान
 गेहूं की फसल के उत्पादन में इस बार किसानों ने विपत्तियों की कई सीमा रेखा पार की। गेहूं बोने के बाद अभी तक केवल नील गाय से रखवाली करनी होती थी, लेकिन उसका नुकसान इतना त्रासदीपूर्ण नहीं होता था जितना इस बार मवेशियों ने किया। किसानों ने बहुत जतन करके किसी तरह गेहूं तैयार होने तक उसे बचाए रखा लेकिन जैसे-जैसे गर्मी बढ़ने पर पानी की कमी होती गई जानवर किसानों के फसलों की ओर बढ़ने लगे। किसानों को फसल काटने में भी कई कठिनाइयां उठानी पड़ी। मवेशियों से परेशान होकर कई किसान अपनी फसल को कच्चा ही काटना शुरू कर दिए। कटाई हो ही रही थी कि आसमानी मिजाज़ बदलने लगे और एक दिन अचानक बारिश की संभावना बन गई लेकिन कुछ हल्की बूंदाबांदी के बाद स्थिति सामान्य बन गई। लेकिन किसानों की समस्या यहीं पर ख़तम न हुई। मिर्ज़ापुर में कई किसानों ने मवेशियों से अपने फसलों की सुरक्षा के लिए एक प्रयास किया और उन्हें इकट्ठा करके जंगल की ओर ले जाने का प्रयास किया लेकिन प्रशासन के द्वारा उन्हें प्रताड़ित किया गया और उठक- बैठक के साथ उन्हें छोड़ा गया इसलिए कई गावों को मिलाकर एक जगह पर जानवरों के चारे के लिए किसानों ने व्यवस्था की। लेकिन जानवरों को खुले में चरने की आदत लग चुकी है और किसान करें भी कितना उनके अपने भी जानवर हैं। ऊपर से प्रशासनिक दाबाव के कारण किसान मजबूर हैं।

आप सब को याद होगा फरवरी माह में एक प्राकृतिक आपदा ने फसलों की भीषण तबाही मचाई, इस आपदा में बड़े- बड़े ओले पड़े। यह ओले इतने बड़े थे कि इनसे न सिर्फ फसलें गिरीं बल्कि काफी बड़ी मात्रा में पौधे कट-फट गए। इन ओलों की मार से पूरा उत्तर भारत प्रभावित हुआ। सोशल मीडिया पर सभी को जगह- जगह की तस्वीरें देखने की मिली होंगी। इस त्रासदी ने किसानों को एकदम तोड़ दिया। इसके बाद बाकी बची उम्मीद उनकी दूसरी फसलों से ही थी।

अब जबकि देश में लॉकडॉउन के चलते एक जगह पर पाँच लोगों से ज्यादा इकट्ठा होना मना है इसलिए किसानों के लिए मजदूरों को खोजना और काम कराना सबसे बड़ी समस्या है। छोटे किसान अपने पूरे परिवार को लेकर अपनी खेती बचाने में जूझ रहे हैं। वहीं थोड़े बड़े काश्तकार लेबर की कमी के कारण अपनी फसलों को जानवरों से बर्बाद होता देख रहे थे ऊपर से मौसम के मिजाज़ पर कुछ भी कहना सही नहीं है। किसानों को लॉकडाउन के चलते कुछ अफवाहों का भी सामना करना पड़ा जिसमें कहीं-कहीं यह सुना गया कि सरकारी आदेश के तहत किसानों के खेत में लाल झंडी गाड़ी जा रही है, जिससे किसान फसल नहीं काट सकते। यह बात यहीं नही रुकी, इससे भी एक कदम आगे बढ़कर एक अफवाह आई कि सरकार किसानों के खेतों पर झंडे गाड़ रही है, और इन फसलों को वह खुद कटवा कर ले जाएगी। अनपढ़ किसानों में इसका प्रभाव कुछ हद तक देखा गया जिससे उनमें तनाव की स्थिति बनी।

सरकारी फाइलों में सब कुछ ठीक चल रहा है लेकिन वास्तविक स्थिति से ज्यादातर लोग वाक़िफ ही होंगे कि भारत की खेती मानसून पर निर्भर करती है इसलिए किसानों को कहीं- कहीं सूखे का भी सामना करना पड़ा। लॉकडाउन में एक जगह पर इकट्ठा होना मना किया गया है लेकिन गांव में आज भी ऐसे घर हैं जहाँ पीने के लिए पानी की बड़ी समस्या है खेती की बात तो दूर है। गाँव के कुओं और हैंडपंपों पर सुबह शाम काफ़ी भीड़ लग जाती है क्योंकि ज्यादातर कुएं और हैंडपंप सूख जाते हैं। यहाँ पर सामाजिक दूरी प्रभावित होती है, लेकिन जीवन बिना पानी कैसे संभव हो सकता है। सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार के चलते आम किसानों को यह तकलीफ झेलनी पड़ रही है। गाँव में किसान के यहाँ जब बेटी की शादी होती है तब उस वर्ष घर में पैदा होने वाला हर अनाज बेचकर शादी में होने वाले खर्चे का आधार बनाया जाता है, लेकिन खेती खराब होने और लॉकडाउन के चलते सामान की आपूर्ति न कर पाने के कारण कई शादियाँ तोड़ दी गई यह किसानों के लिए बेहद तकलीफ की स्थिति है। भारतीय किसान जो मध्यम वर्ग के अन्तर्गत आते हैं, वे अपने जीवनयापन के लिए कई तरह की फसलें उगाते हैं जिससे उन्हें बाज़ार पर कम निर्भर होना पड़े। जैसे दाल, तेल, सब्जियाँ आदि। इसमें जो फसलें तैयार की जाती हैं उनमें मुख्य फसल गेहूं के साथ अरहर, चना, मटर, सरसों, मसूर और अलसी आदि हैं, ये ऐसी फसलें हैं जो किसान के लिए बाज़ार की निर्भरता कम करती हैं, लेकिन आप आकलन करिए कि अगर ये सब एक साथ तबाह हो जाएं तो किसान का जीवन क्या होगा?

कोरोना का प्रकोप भारत में विस्तृत रूप से तब असर किया जब मजदूर वर्ग अपने गाँव से होली की छुट्टी मना कर शहर में गए। सब को पता है कि घर से शहर जाने पर कोई भी मजदूर वहाँ तक पहुँचने तक के खर्चे का इंतजाम रखता है, बाकी का वहाँ की कमाई पर आश्रित होता है। लेकिन लॉकडाउन के चलते काम मिलना बंद हो गया और मजदूरों के पास खाने को लेकर कई तरह की समस्याएं आईं। जो लोग अपने घरों में बैठकर यह ज्ञान दे रहे हैं कि सरकार उन्हें खर्च तो दे ही रही है, ये लोग फिर क्यों इतने परेशान हैं, तब आप ये बात समझ सकते हैं कि घर में आराम से रहने वाले लोग ऐसा वक्तव्य क्यों दे रहे हैं। ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि हर किसी का स्वाभिमान होता है, कितने लोग ऐसे हैं जो किसी की दया पर जीना चाहते हैं जबकि उनका घर है, बहुत लोगों के घर में खुद से खाने की व्यवस्था है। सरकार के अलावा जो लोग भी इस दिशा में उतरे हैं वह काबिले तारीफ़ है। अगर उन्हें हर तरह से चेक करके उनके घर पहुंचाने की व्यवस्था कर दी जाए और उसके बाद जिनके पास खाने की व्यवस्था नहीं है उन्हें यह व्यवस्था मुहैया कराई जाए तब स्थिति इससे ज्यादा बेहतर बनेगी। अगर बाहर शहरों में रहने वाले लोग अपने गाँव लौट आते हैं तो अपने घर के बचे- खुचे अनाज को बचा सकते हैं। इस स्थिति में मजदूर न इधर के हो रहें हैं न उधर के। जब देश का कोर्ट यह निर्णय दे सकता है कि जाँच मुफ्त नहीं किया जाएगा, तब हम सरकार से और क्या उम्मीद कर सकते हैं।

 व्यवस्थित तैयारी के अभाव में कई निर्णय गलत साबित हो जाते हैं। कई जगह सड़कों पर पुलिस लोगों को भोजन, पानी और मास्क बाँट रही है लेकिन कई जगह अपने घर पलायन कर रहे मजदूरों के साथ इतनी बर्बरता से पेश आ रहे हैं जो बहुत ही तकलीफदेह है। नियम लागू तब होते हैं जब सूचनाएं लोगों के बीच पहुँच जाती हैं। सोनभद्र से सटे हुए मिर्ज़ापुर के एक इलाक़े में कुछ किसान अपनी फसल काट रहे थे, वहाँ पुलिस के मना करने पर मारपीट भी हुई, क्योंकि सरकारी फरमान उन्हें पता ही नहीं था। सूचनाओं के अभाव में अव्यवस्थाएं हमेशा फैलती हैं। हम अगर गहरे रूप में देखें तो इस स्थिति में किसान और मजदूर सबसे त्रासद ज़िन्दगी जी रहे हैं, जिनके पास पैसे हैं वे अपनी व्यवस्था किसी तरह कर ले रहे हैं। लॉकडाउन में सबसे ज्यादा सताए हुए मजदूर और किसान हैं, जो इससे पहले मौसम, प्राकृतिक आपदा और जानवरों से परेशान हैं उसके बाद इस महामारी से जूझ रहे हैं।

नोट: यह आलेख हमें जुगेश कुमार गुप्ता ने लिखकर भेजा है, वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में शोधार्थी हैं. यहां व्यक्त विचार उनके अपने हैं और इससे ‘द बिहार मेल’ की सहमति आवश्यक नहीं है…