‘बागी बलिया’ किताब में बलिया के बागीपन को हिन्दू मुस्लिम पुट के साथ लिख कर सत्य व्यास ने इक्कीसवीं सदी के लड़कों की बात कही है. ये वो लड़के हैं जिनके सपने नही होते. बाते होती हैं और फिर सीधे एक्शन प्लान होता है. संजय और राशिद दोस्त हैं. वैसे ही जैसे सबका एक करीबी होता है, मर मिट सकने वाला दोस्त. गाली गलौज वाला दोस्त. इनकी बाकमाल दोस्ती घर परिवार सरीखी है. यानी संजय की चचेरी बहन ज्योति, रफीक को राखी बांधती है. और संजय दिन भर रफीक के बुलेट पर घूमता है.
यकीनन पूर्वांचल के जिलों (बनारस भी) में छात्र राजनीति इस तरह की ही रही है. यहां के भौगोलिक और आंचलिक संवाद पर खूब किताबें मिलेंगी लेकिन बलिया, मऊ, आजमगढ़ सरीखे जिलों में छात्र राजनीति की लगभग स्थिति यहां बयान हुई है. व्यक्तिगत तौर पर लॉबिंग और जातीय समीकरण के तीन – पांच को देखने के बाद यह किताब पढ़ कर साक्षात्कार की तरह महसूस हुआ. इलाकों और कॉलेज के परिवेश का शानदार वर्णन उल्लेखनीय है.
रह रह कर बड़े से पैराग्राफ में लेखक ने दर्शन की बातें की हैं, वह सच लगती हैं. संजय रफीक के आपसी संवाद अचंभित करते हैं. यह सबकुछ बड़े करीने से अश्लील और भद्दे होते होते बच गये हैं या कहें तो बचा लिए गये हैं. उनका आपसी सम्बोधन एकदम अपना सा लगता है. कई बार यह इतना पवित्र या यथार्थ लगता है कि बस आप मुस्कुरा उठेंगे. जैसे किताब के अंत में पहुँचने पर एक भावुक क्षण आता है जब संजय, रफीक को उसके नाम से सम्बोधित कर देता है. रफीक तुरन्त कहता है, ‘…….वो सब तो ठीक है नेता लेकिन अगली बार नाम लेकर मत पुकारना, एकदम गाली जैसा लगता है साला’. या ज्योति को फोन दिलाने के लिए रफीक के साथ का संवाद. या झुन्नू भैया से रफीक का व्यंग्यात्मक बातचीत. यह सब कुछ बहुत ग़ज़ब है ऐसी सहज कोमलता अभी भी बरकरार हो ऐसी उम्मीद है. यह किताबों में ही सही मगर सुखकर है.
किताब ‘बागी बलिया’ नाम से जरूर है मगर किरदार और संवाद के स्तर पर पूरे उत्तरप्रदेश और भारत के हिंदी भाषी क्षेत्रो में अपने हिस्से भर सामंजस्य बनाए रखे है. ऐसा इसलिए भी, कि ऐसे स्थानों पर कॉलेजों की अवस्था और छात्रसंघ का प्रारूप लगभग ऐसा ही है. दोस्तों के बीच संवाद लगभग ऐसे ही हैं. आपसी पारिवारिक रिश्ते भी ऐसे ही हैं और अंततः पढ़ाई लिखाई, लाइब्रेरी के मामले में तो सब जगह हालात एक से ही हैं.
दो सौ पचपन पन्ने की यह किताब कई बार असमंजस में डाल देती है कि सब फिल्मी क्यों हो रहा है. कहानी भी थोड़ी थोड़ी फ़िल्म लगेगी लेकिन अगर आपने जीवन के शुरुआती पच्चीस वर्षों में से दो चार वर्ष भी भारत के इस तरह के शहर में बिताया है तो आप यह सबकुछ मान सकने की स्थिति में आ जाएंगे. मसलन रफीक के दोस्त को गोली मारने वाला नाबालिग इतना करीबी निकल जाए तो आपको लग सकता है कि ऐसे कैसे हुआ. मगर उस हिस्से तक पहुँच कर आप अनुपम राय और झुन्नू भैया के गणित के हिसाब में लगे होंगे. और आपको जल्दी से क्लाइमेक्स से आगे बढ़ने की पड़ी रहेगी सो आप पढ़ते चले जाएंगे.
‘बागी बलिया’ उपन्यास ऐसे कॉलेजों की ज़बानी कह रहा है जो पढ़ाई लिखाई में उतने ही पिछड़ते जा रहे हैं जितना राजनीति में. ऐसी राजनीति का भी बहुत लाभ नही है यह बात छात्रनेता रफीक और संजय को नही मालूम. बावजूद इसके वह उसको करने पर आमादा हैं क्योंकि वह अब उनके ‘ईगो’ पर आ गया है. बल्कि इस तरह की खबर इस दशक में तो नही आयी है. फिर भी पूरे उपन्यास को पढ़ने के बाद आपको इन छोटे जिलों के कॉलेजों की यथास्थिति मालूम चल जाएगी. नकल या हनक के लिये लिखी गईं बातें लगभग सही हैं. सिमकार्ड या वोट के बदले छात्रों को ‘कुछ’ देने की स्थिति अभी तक तो नही है मगर हाँ वोट की जातिगत और धार्मिक अवस्था ऐसी ही है जैसे दर्ज है.
सत्य व्यास की यह चौथी किताब, छात्रसंघ पर पूर्वांचल की स्थिति को लेकर बातचीत करती एक सच्ची किताब है. वह अपनी बात कह पाने में सक्षम हुए हैं. और अंततः उन्होंने सभी किताबों की तरह पहले पन्नो पर अपने अलग अंदाज़ में लिखे चंद पंक्तियों से मन प्रसन्न कर दिया है. मसलन, “नेपोलियन की वह डिक्शनरी जिसमें असम्भव शब्द नही था, बलिया में छपी थी” या, सौ शुक्रिया शीर्षक से आभार प्रदर्शन. हर अध्याय के शुरुआत में लिखे गए शेर सटीक और शानदार हैं. कुल मिलाकर नई वाली हिंदी के लिस्ट में एक और उल्लेखनीय किताब जुड़ गई है जो अपने आप में नई वाली बात करती हुई प्रतीत होती है।