पटना की बात हो और पढ़ाई का जिक्र न हो तो लगता है जैसे कुछ छूट गया है. बिहार की राजधानी पटना. पूरे प्रदेश और अलग–अलग प्रदेशों से आने वाले स्टूडेंट्स को खुद में समाहित कर लेने वाला पटना. बहुतों के लिए सपनों की उड़ान तो बहुतों के लिए बेहतर रोजगार और मौके वाला पटना. बहरहाल, आज बात पढ़ाई–लिखाई और स्टूडेंट्स की है. जब बात पढ़ाई–लिखाई और स्टूडेंट्स की हो तो कभी ‘अपना बाजार‘ के नाम से चर्चित और आज उद्योग भवन या गांधी मैदान बुक मार्केट का जिक्र भला कैसे न हो? बिहार के ऐतिहासिक गांधी मैदान के पूर्वी तरफ है उद्योग भवन और उद्योग भवन के इर्द–गिर्द लगता है सेकंड हैंड बुक मार्केट. जहां की किताबें पढ़कर न जाने कितने डॉक्टर, इंजीनियर और आईएएस हो गए
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जहां क्रेता ही विक्रेता है
गांधी मैदान बुक मार्केट या उद्योग भवन बुक मार्केट के नाम से मशहूर सेकंड हैंड बुक मार्केट पूरी तरह जनताना है. दो नाम इसलिए क्योंकि फिलहाल इस बाजार का कोई आधिकारिक नाम नहीं. हालांकि यहां के दुकानदार बताते हैं कि कोई 10-15 साल पहले इसे वे ‘अपना बाजार‘ कहते थे लेकिन उद्योग भवन के पॉपुलर होने से ये नाम बैकग्राउंड में चला गया. तो इसे जनताना बाजार भी कहा जा सकता है. अब आप सोच रहे होंगे कि हमने तीसरा नाम सुझा दिया. तो ऐसा इसलिए क्योंकि ये बाजार जनता द्वारा संचालित होता है. जनता के द्वारा और जनता के लिए. यहां बेचनेवाला ही खरीदार भी है. ऐसी ही एक दुकान पर अपनी किताब बेचने आए नवलेश 11वीं पास हुए हैं. वे पटना से सटे फतुहा के रहने वाले हैं. 11वीं की किताबें बेचकर 12वीं की किताबें खरीदने आए हैं. दुकानदारों से मोलभाव कर रहे हैं. वे कहते हैं कि हर साल नई किताबें खरीदना उनके बस का नहीं. यदि उनकी किताबें सही दाम में बिक गईं तो वे 12वीं की किताबें खरीद लेंगे.
जन्म से मृत्यु तक सारी किताबें
यहां किताब बेच रहे राहुल कहते हैं कि अब जमाना बदल गया है. बच्चे को पैदा होते ही किताबें थमा दी जाती हैं और ये सिलसिला मृत्यु तक चलता है. उनके पास हर एज ग्रुप के लिए किताबें हैं. उनके दादाजी साल 1965-70 से यहां दुकान चला रहे हैं. गांधी मैदान का इलाका तब राजनीतिक और साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र था. दादाजी ने मैग्जीन की दुकान से शुरुआत की थी. जैसे–जैसे समय और लोगों की जरूरतें बदलीं. वे भी बदलते गए. उनकी तीसरी पीढ़ी दुकान लगा रही है और वे नॉवेल, इंजीनियरिंग और मेडिकल की तैयारी के लिए किताबें रखने के साथ ही शीर्ष संस्थानों की ओर से तैयार किए गए मैटेरियल भी रखते हैं. कुल मिलाकर उद्देश्य यही होता है कि उनके पास किताबें लेने वाला लौट कर न जाए. वे यूपीएससी की तैयारी करने वाले स्टूडेंट्स के लिए ऑल टाइम फेवरेट एनसीईआरटी की किताबों का भी जिक्र करते हैं.
यहां की किताबों ने कितने ही डॉक्टर–इंजीनियर बना दिए
हम राहुल और उनके भाई से बात कर ही रहे थे कि पास के दुकानदार कैमरा देखकर हमारे पास आ जाते हैं. अपना नाम सूरज प्रसाद बताते हैं. हम जब उनसे इन दुकानों की रेगुलेटरी बॉडी (नियामक संस्था) के बारे में पूछते हैं तो वे BIADA का जिक्र करते हैं. Bihar Industrial Area Development Act 1974. हिंदी में कहें तो बिहार में होने वाले औद्योगिकी की नियामक संस्था. वे कहते हैं कि यहां पूरे प्रदेश के साथ ही दूसरे प्रदेश से स्टूडेंट्स किताबें खरीदने आते हैं. वे सन् 75 से दुकान चला रहे हैं. उनके पास स्टूडेंट्स इंजीनियरिंग, मेडिकल और आईएएस की तैयारी की किताबें लेने आते हैं. जब हम उनके फायदे और कारोबार पर बात करते हैं तो वे कहते हैं, ‘वे 30 से 40 प्रतिशत तक में किताबें ले लेते हैं और 10 प्रतिशत फायदे पर बेच देते हैं. इतना कि दुकानदारी और दो जून की रोटी चलती रहे.
इंटरनेट और ऑनलाइन मार्केटिंग से हुआ है नुकसान
हमारी टीम सूरज प्रसाद से बात कर ही रही होती है कि राहुल बोल पड़ते हैं, भाई साहब इंटरनेट और लोगों के ऑनलाइन किताबें खरीदने ने धंधा को जरा मंदा कर दिया है. लोगों को अब अधिकांश किताबें अमेजॉन और फ्लिपकार्ट पर मिल जा रही हैं. वे यहां आ ही नहीं रहे. कुछ लोग पीडीएफ भी डाउनलोड कर रहे हैं. राहुल जोड़ते हैं कि उनकी पूरी कोशिश रहती है कि ग्राहक को खाली हाथ न लौटना पड़े. वे दूसरे दुकानों से मंगाकर किताबें देने की कोशिश करते हैं लेकिन साथ ही जोड़ते हैं कि ये सारी बातें तो तब की हैं जब ग्राहक दुकान तक चलकर आए, वो इंटरनेट पर ही घूमता रहेगा तो उनका फायदा तो फंस गया ना? वे यहां दुकान लगाने के लिए BIADA को दी जाने वाली राशि का जिक्र करते हैं. 4,051 रुपये प्रतिमाह.
चिराग तले अंधेरा
हमें जब वहां इतनी किताबें दिखीं तो सामान्य जिज्ञासा जगी कि किताबों के बीच में ही रहने वाले कितने पढ़े–लिखे हैं. वहां के अधिकांश दुकानदार ग्रेजुएशन ड्रॉपआउट हैं. पढ़ाई–लिखाई पर बातचीत पर कन्नी काटने लगते हैं. समय और धंधे का हवाला देते हैं. वहीं दुकान पर बैठ रहे एकलव्य ने अंतिम नॉवेल ‘हाफ गर्लफ्रेंड‘ पढ़ी है. वे सूरज प्रसाद के बेटे हैं और ग्रेजुएशन फर्स्ट ईयर में हैं. वे नाम तो शेक्सपीयर से लेकर एपीजे अब्दुल कलाम तक का गिनाते हैं लेकिन उन्हें पढ़ा नहीं. इसी बीच राहुल कहते हैं कि हमारी स्थिति ‘चिराग तले अंधेरा‘ वाली ही समझिए. हम भी फिर और सवाल नहीं करते.
अंत में बस यही कहना है कि यदि आप पटना में हैं तो एक बार इधर जरूर आइए. निराश नहीं होंगे. कुछ–न–कुछ जरूर मिलेगा और वो भी ऐसा कि जैसा पूरी दुनिया में कहीं नहीं मिलेगा. बस जरा सा धैर्य रखिए और अपने मनमाफिक किताबें खोज लीजिए…