करमपुरातो हटिया में हमारी मुलाकात पहले जुगल पहाड़िया और फिर जिन परो से हुई. जुगल पहाड़िया ने तो साफ इनकार कर दिया कि वे पहाड़ बेचते हैं. उनका कहना था कि पहाड़ बेचने से पहाड़ खराब हो जाता है. इसलिए हम उसे नहीं बेचते, घर चलाने के लिए जंगल से लकड़ी बिन कर लाते हैं. मगर जिन परो ने कहा उनके पास 250 एकड़ का पहाड़ है, वे छह हजार रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से इसे बेच देंगे. उन्होंने हमसे हमारा फोन नंबर लिया और कहा कि अपने प्रधान से बात करा देंगे. हालांकि हमने उन्हें पहले ही बता दिया था कि हम लोग पत्रकार हैं, मगर वे शायद समझे नहीं. अंत तक हमें पहाड़ का खरीदार ही समझते रहे, जो उनसे पहाड़ लीज पर लेकर स्टोन चिप्स क्रशर मशीन चलाते हैं और माइनिंग का कारोबार करते हैं. जिन परो ने हमें किसी कुशल मार्केटिंग एजेंट की तरह अपने पहाड़ की खूबियां बतायी. उन्होंने कहा कि उनके कुछ पहाड़ ‘तिन पहाड़‘ स्टेशन के पास भी हैं, यानी मुख्य मार्ग से करीब का लोकेशन. और यह भी बताया कि उनके पहाड़ों में मिट्टी न के बराबर है. शुक्र था कि उन्होंने हमसे अपने पहाड़ों का बयाना नहीं मांगा.
करमपुरातो हटिया झारखंड राज्य के साहिबगंज जिले में तालझाड़ी इलाके के पास लगता है. जहां हर सोमवार के दिन इलाके के संथाल और पहाड़िया जनजाती के लोग हफ्ते की खरीदारी और मौज मस्ती के लिए जुटते हैं. वैसे तो हम किसी पहाड़िया गांव में जाकर उन्हें पहाड़ों की खरीद बिक्री की कथा समझना चाहते थे. मगर मौसम और वक्त ने, और हमारी सवारी ने हमें इस बात की इजाजत नहीं दी कि हम पहाड़ों पर चढ़ कर पहाड़ियाओं के गांव तक पहुंच सकें. हटिया में पहाड़ियों से बात तो हो गयी, मगर उनके गांव देखने का मनोरथ अधूरा ही रह गया. हालांकि करमपुरातो हटिया में जो हमने देखा वह कम नहीं था. जगह-जगह सूअर काटे और भूने जा रहे थे, महुआ और ताड़ी के देसी मयखाने सजे थे और स्त्री-पुरुष साथ बैठ कर उनका आनंद ले रहे थे. सत्यम ने कहा कि सिमोन द बुआ और दूसरे महिला अधिकार विचारक जिस लैंगिक समानता की बात करते हैं, वह तो यहां सहज ही बिना किसी वैचारिक क्रांति के दिख रहा है.
हालांकि हम वहां किसी और मकसद से गये थे, हम साहिबगंज शहर में यहां-वहां से सुनी उस बात की पुष्टि करना चाहते थे कि आप चाहें तो यहां छह-सात हजार रुपये खर्च करके पहाड़ खरीद सकते हैं. और वहां जिन परो हमें अपना पहाड़ बेचने के लिए तैयार थे. हालांकि टेक्निकली यह पहाड़ बेचना नहीं था, पहाड़ को साल भर के लिए लीज पर देना था. लीज की दर छह हजार रुपये प्रति एकड़ बतायी जा रही थी. हालांकि सरकार ने इस लीज की दर को आठ हजार रुपये प्रति एकड़ की दर पर फिक्स कर दिया है. और इस तरह साहिबगंज औऱ पाकुड़ जिले में राजमहल की पहाड़ियां छह से आठ हजार रुपये प्रति एकड़ की दर से बिक और स्टोन चिप्स के लिए तोड़ी जा रही है. जिन्हें सरकार से इजाजत लेकर काम करना है, वे आठ हजार की दर चुकाते हैं और जिन्हें स्थानीय प्रशासन को दो पैसे देकर कारोबार करना है, उनके लिए ये पहाड़ छह हजार रुपये प्रति एकड़ की दर पर एक साल के लिए उपलब्ध हैं. शायद ही कहीं और आपने पहाड़ों को इतनी कम कीमत में बिकते देखा होगा. वह भी पर्यावरण जागरुकता के इस दौर में.
झारखंड के साहिबगंज और पाकुड़ जिले में राजमहल की प्राचीन और पादप जीवाष्म से भरी पहाड़ियों का यही मोल है. इसी वजह से आपको पूरे साहिबगंज जिले में हर जगह वैध और अवैध स्टोन क्रशर उद्योग चलते नजर आयेंगे. बिहार से झारखंड की सीमा में घुसते ही मिर्जाचौकी के पास से ये दिखने शुरू हो जाते हैं और पाकुड़ तक दिखते रहते हैं. इनकी वजह से आपको हर जगह ये पहाड़ियां बदरंग, बदहाल, कटी-छंटी, ध्वस्त दिखेंगी, कई जगह तो सपाट धरती में ये तब्दील हो गयी हैं. इन्हीं स्टोन क्रशर मशीनों की वजह से साहिबगंज जिले का हर इलाका धूल-धूसरित रहता है, अक्सर सांस लेना मुश्किल हो जाता है. लगातार सैकड़ों डंपर के चलने से जिले के किसी भी इलाके की सड़कें दुरुस्त नजर नहीं आतीं. झारखंड का यह छोटा सा जिला जिसे अपनी प्राकृतिक सुषमा की वजह से किसी छोटे-मोटे हिट स्टेशन जैसा होना चाहिए था, एक बदरंग कस्बा दिखने लगा है.
झारखंड के प्रमुख अखबार प्रभात खबर के स्थानीय प्रभारी सुनील ठाकुर कहते हैं, इस छोटे से जिले में इस वक्त आठ से नौ हजार स्टोन क्रशर उद्योग चल रहे हैं. मगर जब आप जिला खनन पदाधिकारी से बात करेंगे तो वे बतायेंगे कि यहां सिर्फ 343 क्रशर मशीनें चल रही हैं. यानी इतनी ही मशीनें ही निबंधित हैं, शेष गैरकानूनी. ( खनन पदाधिकारी ने हमें 450 मशीनों की जानकारी दी). हालांकि इस बात का पता सबको है. मगर कोई इनके खिलाफ कार्रवाई की बात नहीं करता. क्योंकि इनमें से ज्यादा क्रशर पोलिटिकल पावरफुल लोगों के हैं. और लोगों को भी लगता है, इसी बहाने कुछ कारोबार, कुछ रोजगार तो हो रहा है. भले इस अनियमित रोजगार की वजह से 40-50 साल में राजमहल की पहाड़ियां ही खत्म हो जाये और आने वाली पीढ़ी पहाड़ को सिर्फ किताबों में देखे.

निश्चित तौर पर ये क्रशर मशीनें राजमहल की पहाड़ियों के लिए अस्तित्व का खतरा बन गये हैं. एक स्थानीय भूगर्भशास्त्री प्रो रंजीत कुमार सिंह के मुताबिक पिछले तीस-चालीस साल में एक चौथाई पहाड़ गायब हो गये हैं. उनके लिए इस तरह चिंतित होने की एक और वजह है. लगभग 120 मिलियन साल पुरानी ये पहाड़ियां दुनिया भर में दुर्लभ माने जाने वाले प्राचीनतम पादप जीवाश्म का जखीरा हैं. इन पहाड़ियों में जहां-तहां ये जीवाश्म बिखरे नजर आ जाते हैं, दुनिया भर के भूगर्भशास्त्रियों के लिए इसी वजह से राजमहल की पहाड़ियां खुली प्रयोगशाला की तरह हैं. प्रो रंजीत कुमार सिंह इसी वजह से लगातार इन पहाड़ियों को नो माइनिंग जोन बनाने की मांग करते रहे हैं. इस बार झारखंड विधानसभा चुनाव में भी उन्होंने सभी स्थानीय उम्मीदवारों से इस मसले को अपने चुनावी वादों में शामिल करने का आग्रह किया है. मगर वे यह भी जानते हैं कि अभी साहिबगंज क्या, झारखंड और देश के स्तर पर राजनीतिज्ञों की समझ इतनी विकसित नहीं हुई है कि वे प्लांट फॉसिल्स के महत्व को समझ सकें और उनकी रक्षा के लिए वहां चल रहे आठ हजार के करीब स्टोन क्रशर उद्योगों को बंद करा दें. इसलिए प्रो रंजीत अपनी बात में गाहे-बगाहे पर्यावरण की चिंता को भी शामिल करते हैं. हां, यह राजनेताओं की उपलब्धि जरूर है कि जिले में एक फॉसिल्स पार्क का बनना शुरू हो गया है.
उनकी ही सलाह पर हम मिर्जाचौकी के रास्ते मंडरो तक पहुंचे, जहां यह कथिन फॉसिल्स पार्क बन रहा था. जहां मिर्जाचौकी से आगे कई किमी तक रास्ता खस्ताहाल था, मंडरो से कुछ किमी पहले अचानक हमें नयी नवेली सड़क मिली जो मंडरो के उस स्पॉट पर खत्म हो गयी. सामने एक खुला मैदान था, जहां ढेर सारे पत्थर बिखरे थे. इनमें फॉसिल्स भी थे. मगर पहली नजर में हमें उन्हें पहचानना नहीं आता था. एक स्थानीय किशोर ने ही हमें बताया कि ये जो पेड़ जैसी संरचना वाले पत्थर हैं, वही फॉसिल्स हैं. फिर हमें भी ऐसे कई फॉसिल्स यहां-वहां बिखरे दिखने लगे. सबसे विचित्र बात थी कि इन बहुमूल्य फॉसिल्स की सुरक्षा और रखरखाव का कोई इंतजाम नहीं था. इन्हें बस झाड़ियों से ढक दिया गया था. हमें बताया गया था कि यहां एक गार्ड की नियुक्ति हुई है, मगर वह भी हमें कहीं नहीं दिखा. स्थिति यह थी कि कोई भी उन बहुमूल्य फ़ॉसिल्स को उठाकर बड़ी आसानी से अपने साथ ले जा सकता था. कोई रोकने टोकने वाला नहीं था.
प्रो रंजीत सिंह ने हमें बताया था कि ऐसा लगातार होता रहा है. यहां अक्सर भूगर्भ शास्त्री आते हैं और फॉसिल्स उठा कर ले जाते हैं. जाने-माने पुरावनस्पति वैज्ञानिक बीरबल साहनी ने तो यहां के प्लांट फॉसिल्स का ही प्रमुखता से अध्ययन किया और उनके संस्थान, लखनऊ स्थित बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट ऑफ पेलियेबोटोनी में ज्यादातार साहिबगंज के प्लांट फॉसिल्स ही प्रदर्शित हैं. प्रो रंजीत बार-बार यह मांग भी करते हैं कि यहां के फॉसिल्स को कई भी भूगर्भशास्त्री अपने साथ उठाकर ले जाता है, यह ठीक नहीं है. यहीं इनकी सुरक्षा और रखरखाव हो.
मगर सवाल सिर्फ सुरक्षा और रखरखाव का नहीं है, क्योंकि जिस खूबसूरत सड़क से चलकर हम मंडरो पहुंचे थे, बाद में मालूम हुआ कि उस सड़क का निर्माण भी फॉसिल्स वाले पत्थरों से ही हुआ है. सड़क बनाने के लिए जो पत्थर खोदे गये वह भी उसी फॉसिल्स संपन्न इलाके की पहाड़ियों के थे. हालांकि प्रो रंजीत कहते हैं कि राजमहल की पहाड़ियों में यहां फॉसिल्स है और वहां नहीं, यह कहना गलत होगा. यहां हर जगह ऐसे फॉसिल्स के मिलने की संभावना रहती है. इसलिए हम नो माइनिंग जोन की बात करते हैं.

वैसे तो लगभग 26 सौ वर्ग किमी में फैली राजमहल की पहाड़ियों का विस्तार झारखंड के अलावा बिहार और बंगाल के इलाकों में भी है, मगर इसका मुख्य भाग झारखंड के दो जिलों साहिबगंज और पाकुड़ में ही दृश्यमान होता है. इन पहाड़ियों की उम्र अमूमन 118 मिलियन वर्ष मानी जाती है. साहिबगंज के ही एक अन्य वरिष्ठ भूगर्भशास्त्री प्रो सीताराम सिंह कहते हैं, इन पहाड़ियों का जन्म उस जमाने में 13 से 16 बार हुए ज्वालामुखी विस्फोट की वजह से हुआ. इस बीच में उन पहाड़ियों के बीच बनस्पतियां जन्म लेती और चट्टानों के बीच दबती रहीं, इसलिए ये पहाड़ियां प्राचीनतम पादप जीवाश्म का गढ़ हैं. मगर इन पहाड़ियों की पहचान सिर्फ पादप जीवाश्मों की वजह से ही नहीं है. गंगा के किनारे स्थित ये पहाड़ियां इस इलाके के आबोहवा को भी स्वच्छ बनाती रही है. इस इलाके में गर्मी का मौसम एक या दो हफ्ते के लिए ही हुआ करता था. यहां बाढ़ न के बराबर आती थी. अब धूलकण, भीषण गर्मी और बाढ़ इस इलाके की पहचान बनती जा रही है.
उन्होंने कहा कि इस इलाके में वैसे तो स्फटिक और चूना के लिए खनन हमेशा से होता रहा है, मगर हाल के बीस वर्षों में यह किसी आपदा की तरह यहां छा गया. इसकी मुख्य वजह रही बिहार में स्टोन माइनिंग पर प्रतिबंध लगना. इस प्रतिबंद्ध के बाद बिहार के लोगों के लिए स्टोन चिप्स की जरूरत यहां से पूर्ण की जाने लगी. प्रशासकीय सख्ती के अभाव में लगातार अवैज्ञानिक और अवैध उत्खन्न हो रहा है. यह हमारे इलाके की आबोहवा और भूगर्भशास्त्रीय धरोहर दोनों को तबाह कर रहा है.
हम स्टोन क्रशर मालिकों से भी बात करना चाहते थे, पहाड़ तोड़ते स्टोन क्रशरों की क्रूरता भी देखना चाहते थे. मगर हमें ज्यादातर लोगों ने मना कर दिया और चेताया कि वहां जाकर फोटोग्राफी करने और उनसे सवाल करने से मारपीट और हत्या तक की नौबत आ सकती है. फिर भी हमने महादेवपुर, मिर्जा चौकी, सकरी गली, राजमहल और तालझारी के इलाकों की यात्रा की, वहां पहाड़ों की दुर्दशा और स्टोन क्रशरों के परिचालन को देखा और चोरी छिपे कुछ तस्वीरें भी लीं.
कटे-छटे और जमींदोज होते पहाड़ों को देखना हृदयविदारक अनुभव था. मेरे साथ सत्यम बार-बार परेशान होते थे. हमारे साथ दो दिन दो अलग-अलग ड्राइवर थे, वे भी हमें चेताते और स्टोन क्रशर माफियाओं की दबंगई की कहानियां सुनाते रहे. दोनों ड्राइवरों ने कहा कि हमारी अगली पीढ़ी शायद ही इन पहाड़ों को देख पायेगी.

प्रो रंजीत ने इस बारे में हमें एक दिलचस्प किस्सा सुनाया. उन्होंने कहा कि सरकारी दल के एक बड़े राजनेता सड़क मार्ग से इस रास्ते से गुजर रहे थे. उन्होंने सड़क के किनारे जब इस तरह के कटे-छटे पहाड़ों को देखा तो उनका दिल भी द्रवित हो उठा. उन्होंने रांची जाकर इस बात की शिकायत की, फिर तय हुआ कि सड़क से नजर आने वाले पहाड़ों पर स्टोन क्रशर नहीं चलेंगे. हालांकि यह नियम भी ज्यादा दिनों तक नहीं चला, अब फिर से सड़क किनारे पहाड़ तोड़ते क्रशर देखे जा सकते हैं. हां, यह नियम जरूर है कि जहां क्रशर चल रहे हों उन्हें टीन से ढक दिया जाये. कुल मिलाकर मसला सौंदर्यबोध से जुड़ा है, पर्यावरण से इनका कोई लेना देना नहीं है.
प्रो रंजीत कहते हैं, कभी कभार इस प्रसंग में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल जरूर सक्रिय होता है, मगर उसका असर भी कुछ हफ्तों तक ही रहता है. कुछ प्रतिबंध लगते हैं, फिर सब पहले जैसा हो जाता है.
मगर पहाड़ महज छह हजार में क्यों बिक जाते हैं, पहाड़िया समुदाय के लोगों को पहाड़ लीज पर देने का अधिकार क्यों है, यह पूरा सिस्टम क्या है? ये सवाल अभी भी हमारे मन में थे. हमने इसलिए पहाड़िया गांवों की यात्रा करने की कोशिश की और करमपुरातो में पहाड़िया लोगों से मुलाकात की. फिर हमने संथाल परगना के इलाके में लंबे समय तक पत्रकारिता करने वरिष्ठ पत्रकार आरके नीरद से इस विषय में बातचीत की. उन्होंने कहा कि संथाल परगना टेनेंसी एक्ट को बेवजह बदनाम किया जाता है. इस कारोबार में उसकी कोई भूमिका नहीं है. हां, पहाड़िया लोग लंबे समय से पहाड़ों पर रहते हैं. पहाड़ों पर उनकी खूब जमीन है. चुकि वे भोले भाले आदिवासी हैं, तो उन्हें कोई थोड़े से पैसे देकर उनके पहाड़ लीज पर ले लेता है. फिर उन्हीं का नाम आगे कर स्टोन क्रशर का कारोबार चलाता है. वे भोले-भाले प्रिमिटव आदिवासी उस पैसे को महुआ पीने में खर्च कर डालते हैं. जिन पहाड़ों को ये पहाड़िया अपना पाहन(ईश्वर) मानते हैं, उन्हें ही आगे करके राजमहल की इन पहाड़ियों को बर्बाद किया जा रहा है.
स्थानीय पत्रकार सुनील ठाकुर भी इस बात की पुष्टि करते हैं. वे कहते हैं, अक्सर इन पहाड़िया लोगों की ठगी के मामले सामने आते रहते हैं. क्रशर संचालक अक्सर इन्हें ऐसा चेक दे देते हैं, जो बाउंस हो जाते हैं. फिर ये पहाड़िया कुछ नहीं कर पाते. प्रो रंजीत कहते हैं, यही क्रशर इन्वायरमेंट क्लीयरेंस के लिए एजेंसियों पर लाखों खर्च करते हैं, वन विभाग और खनन विभाग से अनापत्ति लेने के लिए खूब चढ़ावा डालते हैं, मगर जमीन के मालिक पहाड़िया लोगों को छह हजार में टरकाने की कोशिश करते हैं. वह तो हम लोगों ने लड़ झगड़ कर नियम बनाया है कि लीज की न्यूनतम दर आठ हजार हो.
इस बारे में बात करने पर साहिबगंज के जिला खनन पदाधिकारी बिभूति कुमार कहते हैं, यहां जो खनन हो रहा है वह पूरी तरह नियमानुसार है. हमलोग इस स्टोन क्रशर उद्योग की वजह से 125 करोड़ रुपये सालाना रेवेन्यू कमाते हैं. जिले में 272 क्रशर उद्योग पर्यावरणीय सहमति और खनन के लाइसेंस से चल रहे हैं, कुल 450 क्रशर मशीनें संचालित हो रही हैं. हां, जो क्रशर अवैध तरीके से संचालित हो रहे हैं उन पर हम कार्रवाई करते हैं. अब तक सौ से अधिक ऐसे मामलों में एफआईआर हो चुके हैं. छह हजार में पहाड़ के बिकने की बात पर वे कहते हैं, जो होता है वह नियम के मुताबिक ही होता है. पर्यावरण के सवाल पर उन्होंने कहा कि जब पर्यावरणीय सहमति ली ही जा रही है तो फिर हम क्या कर सकते हैं.
यह रिपोर्ट वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र और सत्यम झा ने साझा तौर पर की है.