2005 के फ़रवरी में बिहार विधानसभा के लिए चुनाव हुए और किसी भी दल या गठबंधन को सरकार बनाने लायक सीटें नहीं मिलीं. रामविलास पासवान की नई-नवेली लोक जनशक्ति पार्टी को 35 सीटें मिलीं और नई विधानसभा में वह किंग मेकर बन कर उभरी. लोजपा के इन 35 विधायकों में सीतामढ़ी ज़िले की बथनाहा सीट से जीती नगीना देवी भी थीं.
राजद या राजग में से किसी को न चुन कर इस पार्टी ने सत्ता की चाबी जेब में कुछ ऐसे दबाई कि सरकार का ताला खोलते समय वह मिली ही नहीं. ऐसे में राष्ट्रपति शासन लगा और एक वक़्त के बाद इस पार्टी के अन्दर एक बड़ी टूट हुई. इसके 21 विधायकों ने मूल पार्टी से टूट कर नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने के लिए एक अलग समूह बना लिया. नतीज़तन राज्यपाल को ख़रीद फ़रोख़्त का शुबहा हुआ. केन्द्र को इस बाबत भेजी गई उनकी रपट के बाद विधानसभा भंग हो गई.
नगीना देवी इन 21 विधायकों में शामिल नहीं थीं और टूट के बावजूद अपनी मूल पार्टी में बनी रहीं. छह महीने बाद नए सिरे से दोबारा चुनाव हुए. बिहार की जनता ने सरकार न बनने देने और एक ग़रीब राज्य पर दोबारा चुनाव थोपने के लिए लोक जनशक्ति पार्टी को कड़ी सज़ा दी. उसकी सीटें एक तिहाई रह गईं.
यहाँ नगीना देवी को फिर से याद रखिए. दोबारा हुए चुनावों में उन्हें सीतामढ़ी जिले की बथनाहा सीट से दोबारा लोजपा का टिकट मिला और चुनावी जीत भी मिली. अब वे अपने दल से चुन कर आए मुट्ठी भर विधायकों में से एक थीं.
हार के बाद भी हार नहीं मानने वाले राजकिशोर प्रसाद कुशवाहा
आमतौर पर चुनाव के तुरन्त बाद हारे हुए उम्मीदवार जीते हुए उम्मीदवार को बधाई देते हैं और अगले पाँच साल बाद का इन्तज़ार शुरू कर देते हैं.पर कोई-कोई ऐसा जीवट होता है जो कभी हार नहीं मानता. बथनाहा सीट पर नगीना देवी से हार चुके जदयू उम्मीदवार राजकिशोर प्रसाद कुशवाहा चुनावी हार की थकान उतार कर नए सिरे सक्रिय हुए. इसी क्रम में उन्होंने अपनी राजनीतिक प्रतिद्वन्दी की जन्मकुंडली निकाल दी. ये जन्मकुंडली ऐसी थी जो नगीना देवी की असल मुश्किल बन गई और उनकी विधायकी जाने की नौबत भी आ गई.
इस मामले को याद रखना ज़रूरी है. भारत-नेपाल के बीच मौजूदा तनाव के एक कारणों में उसका प्रस्तावित नागरिकता क़ानून भी है जो किसी भी विदेशी महिला को शादी के सात साल बाद तक नागरिकता के लिए प्रतीक्षा करवाएगा. ऐसा क़ानून भारत में भी रहा है पर नेपाल से आई बहुओं पर यह लागू नहीं होता. सदियों से दोनों देशों के लोगों के बीच रोटी-बेटी का रिश्ता है और सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वालों में इसकी एक साझा पहचान है. इसके तहत वे अबाध रूप से एक-दूसरे के यहाँ जाते हैं, सम्पति ख़रीदते हैं, विवाह करते हैं और मतदाता पंजीकृत हो जाते हैं.
पर नागरिकता? उसके लिए एक पूरी प्रक्रिया है. यह स्वतः नहीं मिल जाती. मतदाता सूची में दर्ज़ हो जाने भर से आप किसी देश के नागरिक नहीं हो जाते. राजकिशोर प्रसाद ने पटना हाईकोर्ट में याचिका दाख़िल करके यही कड़ी बात अपनी प्रतिद्वन्दी नगीना देवी को बताई. जदयू नेता कुशवाहा का आरोप था कि नगीना देवी नेपाल के सर्लाही जिले की निवासी हैं और सीतामढ़ी में भारतीय नागरिक से उनकी शादी हुई है. बावजूद इसके उन्होंने नेपाल की नागरिकता नहीं छोड़ी है और भारत में मतदाता सूची में दर्ज़ हैं. चूँकि भारत में दोहरी नागरिकता का प्रावधान नहीं है इसलिए नगीना देवी को नेपाल का नागरिक माना जाए और बथनाहा सीट से उनका निर्वाचन रद्द किया जाए.
ऐसी ही एक याचिका उन्होंने राजभवन को भी दी. राज्यपाल ने इस पर कुछ कहने से इसलिए मना कर दिया क्योंकि यह पूरा मामला चुनाव से पहले का था. ध्यान देने वाली बात है कि नगीना देवी को अयोग्य ठहराने के लिए राजकिशोर प्रसाद बिहार विधानसभा अध्यक्ष को ऐसी याचिका नहीं दे सकते थे. क्योंकि नगीना देवी ने अपना दल नहीं छोड़ा था और न ही किसी पार्टी व्हिप का उल्लंघन किया था. एक पार्टी के रूप में ऐसा सिर्फ़ लोजपा कर सकती थी. पर क्यों करती जब एक पार्टी नेता के तौर पर उसे नगीना देवी से कोई शिक़ायत ही नहीं थी.
राजकिशोर कुशवाहा के पास एकमात्र विकल्प के रूप में उच्च न्यायालय ही था. न्यायालय ने याचिका का संज्ञान लेते हुए गृह मंत्रालय को नगीना देवी की नागरिकता की जाँच करने के निर्देश दिए. मंत्रालय ने सम्बन्धित ज़िले के जिलाधिकारी को नागरिकता सत्यापित करने को कहा.
डीएम के यहाँ जब नगीना देवी तलब हुईं तब उन्होंने अपनी नागरिकता के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण तर्क दिए जिनके ऊपर ध्यान देना ज़रूरी है. उन्होंने कहा कि बेशक़ वो नेपाली नागरिकों की संतान हैं मगर 1958 में उनका जन्म उनके नाना के घर में हुआ था जो कि सीतामढ़ी ज़िले में ही है. इसलिए वो भारत की नागरिक हैं. 1972 में उनका विवाह भारत के नागरिक से हुआ. अतः वे भारत की नागरिक हैं. उनके नाम से चल-अचल संपत्ति है, शस्त्र लाइसेंस है और वे दशकों से सीतामढ़ी ज़िले की बथनाहा विधानसभा क्षेत्र में मतदाता पंजीकृत हैं और मतदान करती रही हैं. इसलिए वो भारतीय हैं.
इन सभी तर्कों से नागरिकता के लिए उनके पात्र होने का तो पता चलता था लेकिन ये नागरिक होने के पर्याप्त प्रमाण नहीं थे. वो तो सिर्फ़ तभी होता जब उन्होंने नेपाली नागरिकता त्यागने और भारतीय नागरिकता अपनाने का प्रमाणपत्र दिया होता. वे इसमें विफ़ल रहीं.
नागरिकता साबित नहीं हुई फिर कैसे बचीं?
ऐसे में जब उनकी भारतीय नागरिकता साबित नहीं हुई तब उच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को कहा कि चूँकि ये मतदाता होने की ज़रूरी शर्त नागरिकता में फेल हैं इसलिए मतदाता सूची से उनका नाम हटा दिया जाए. 2008 की बात है, ऐसा लगा कि नगीना देवी की सदस्यता रद्द हो जाएगी और नागरिकता साबित न करने के इल्ज़ाम में विधायकी खोने वाली वे भारत की पहली नेता हो जाएँगी.
आगे प्रक्रियागत बातों पर आते हैं. उच्च न्यायालय जो कर सकता था उसने किया. राज्यपाल ने पहले ही मामले से ख़ुद को अलग कर लिया था. अब केवल और केवल किसी विधायक की विधायकी रद्द करने की जिम्मेदारी विधानसभा अध्यक्ष की होती है. पर वे ऐसा तभी कर सकते हैं जब सदस्य का कोई आचरण सदन के अनुशासन से जुड़ा हो. उसके चुने जाने के पहले के किसी मामले को आधार बना कर स्पीकर ऐसा कोई भी फ़ैसला नहीं कर सकते थे.
ऐसे में नगीना देवी सदन की हाज़िरी में पूरी पाई गईं. सदन के भीतर उन्होंने कोई अशोभनीय आचरण नहीं किया था. अपनी पार्टी और उसके व्हिप को मानती रही थीं. स्पीकर के पास उनकी सदस्यता रद्द करने का कोई कारण नहीं था. गृह मंत्रालय नगीना देवी की नागरिकता रद्द नहीं कर सकता था क्योंकि तकनीकी रूप से वह भारत की नागरिक थी ही नहीं.
इसके पहले की मामला सर्वोच्च न्यायालय में जाता और अदालत इसके बारे में कोई पथ-प्रदर्शक आदेश देता नगीना देवी ने वैध दस्तावेजों के साथ गृह मंत्रालय में अपनी नागरिकता के लिए आवेदन कर दिया. शर्तें वे पूरी कर ही रही थीं, लिहाज़ा उन्हें नागरिकता मिल गई. अधर में लटकी उनकी विधान सभा सदस्यता को टिक जाने का एक ठोस आधार मिल गया और वे गरिमा के साथ विधायक बरक़रार रह गईं.
इस पूरे मामले में कई ऐसी बातें हैं जिनके ऊपर ग़ौर किया जाना चाहिए था. एक नागरिक के रूप में अपने देश के व्यवस्थागत और संस्थागत विकास के अध्ययन के लिहाज़ से यह बहुत महत्वपूर्ण था. किन्तु मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग में इसे पर्याप्त तवज्जोह नहीं मिली. एक छात्र के रूप में हमें इसका अध्ययन करना चाहिए| इससे कई बातें स्पष्ट होतीं हैं.
मसलन क्या सिर्फ़ भारत के नागरिक से विवाह करने मात्र से ही कोई भारतीय नागरिकता का दावा कर सकता है? अगर कोई विधायक/संसद सदस्य अयोग्य दिखाई पड़ रहा हो तो उसे ऐसा मानने वाली उपयुक्त संस्था कौन सी है? ऐसे मामलों में न्यायालय की क्या सीमा है? व्यक्ति के चुनाव से पहले और चुने जाने के बाद की ग़लतियों की सज़ा कौन सी अलग-अलग संस्थाओं के ज़िम्मे है? किसी की अयोग्यता के लिए याचिका दायर करने का उपयुक्त मंच और सही व्यक्ति कौन हो सकता है? अयोग्य सदस्य को सज़ा कितनी और क्या हो सकती है? और अंत में इस मामले से हमनें क्या सीखा?
द बिहार मेल के लिए यह आलेख अंकित दूबे ने भेजा है. अंकित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भाषा साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन केंद्र के पूर्व छात्र हैं. यहां व्यक्त विचार उनके अपने हैं और इससे ‘द बिहार मेल’ की सहमति हो, यह आवश्यक नहीं है.