कोरोना डायरी: जब ज़ाती काम से अपने ‘गांव’ पहुंचा शख्स अपने ही ‘गांव’ में फंस जाए

कोरोना डायरी: जब ज़ाती काम से अपने ‘गांव’ पहुंचा शख्स अपने ही ‘गांव’ में फंस जाए

मैं, अपने एक ज़ाती काम से 18 मार्च को अपने गांव पीरू जिला औरंगाबाद आया था. काम तीन-चार दिन का था और इस बीच लॉकडाउन हो गया. मैं इधर ही फंस गया. अपने गांव में ही रहकर 22 मार्च के रोज ‘जनता कर्फ्यू’ के नजारे देखे और अब लॉकडाउन के दंश को भुगत रहा हूं. पहली दंश कि 26 मार्च से मुझे गांव में अख़बार पढ़ने को नहीं मिल रहा. प्रखंड मुख्यालय से हॉकर ने आना बंद कर दिया, अब आप इस पीड़ा को समझ सकते हैं? मेरे गाँव में उर्दू और हिंदी मिलाकर 28 परिवारों में रोजाना अख़बार आता था. इन परिवारों का अख़बार पढ़ना बंद हो चुका है. इस लॉकडाउन ने मेरे गांव को पढ़ने-पढ़ाने के सिलसिले से मरहूम कर दिया. मेरे लिए तो यह बड़ा ही पीड़ादायक है. लॉकडाउन के लिहाज से सरकार ने घोषणा की है कि सभी बीपीएल कार्डधारियों को तीन महीने का राशन मुफ्त में दिया जाएगा, लेकिन अब तक ये बातें महज घोषणा भर हैं. आप बस इन परिवारों के स्थिति की कल्पना कीजिए. मैंने अपने गांव के पीडीएस डीलर से इस बाबत जानने की कोशिश की, कि इन लाभार्थियों का यह राशन कब तक आएगा?

उनका जवाब था कि इस सम्बंध में अभी ‘एमओ साहब’ के ऑफिस से कोई सूचना नहीं मिली है. मैं सोचता हूं कि ये तो घोषणाएं हैं और घोषणाओं का क्या? मेरे गांव में कुल 16 किराना की दुकानें हैं. यहां से ग्रामीण अपने जरूरत का राशन-पानी, साबुन-सोडा, तेल-डालडा, साग-सब्जी खरीदते हैं. मैंने दो रोज़ पहले इन 16 दुकानदारों में से चार (अजय, कालू, जावेद और रमेशर से जानना चाहा कि लॉकडाउन ने उनकी दुकानदारी पर कितना असर डाला है, इनका जवाब रहा कि औसत रूप में डेढ़ से दो हज़ार की बिक्री कम हो गई है. इन चारों दुकानदारों की बिक्री से आप बिल्कुल निचले स्तर की अर्थव्यवस्था पर लॉकडाउन के प्रभाव का आकलन कर सकते हैं. इसके साथ ही इन दुकानदारों ने यह भी बताया कि जब वे अपनी मार्केटिंग के लिहाज से ब्लॉक के मार्केट में जाते हैं तो स्थानीय पुलिस के कोपभाजन के शिकार हो जाते हैं सो अलग.

दिनांक 8 अप्रैल – 2020
यहां मैं आपको बताता चलूं कि मेरा गांव पंचायत मुख्यालय भी है. मेरे ही गांव में पंचायत स्तर का एक ‘प्राथमिक स्वास्थ्य उपकेंद्र’ भी है. सरकार ने इसे तकरीबन दस साल पहले बनवाया था. आज लगभग ग्यारह बजे मैं उस स्वास्थ्य उपकेंद्र को देखने गया. खासतौर पर यह सोचकर कि इस कोरोना जैसी महामारी से निपटने के लिए सरकार ने पंचायत वासियों के लिये कैसे इंतजाम किए हैं? स्वास्थ्य उपकेंद्र की यथास्थिति को समझने के लिए नीचे तस्वीरें चस्पा कर रहा हूं. इन तस्वीरों से इस स्वास्थ उपकेंद्र के सहज स्वास्थ्य का अंदाजा आप खुद लगा लें. वो अंग्रेजी में कहावत है ना कि “A Picture is worth thousand words”. उधर से लौटते हुए चांदनी मोड़ के नजदीक भगवान दास से भेंट हो गई. मैंने हाल-चाल पूछा. भगवान दास बोले ग़ालिब भाई मत पूछिए, “कोरोनवा बाल-बच्चा सबके मारदेलक”. मैंने बात को आगे बढ़ाते हुये पूछा कि वृद्धा पेंशन ना हव मिलत? भगवान दास मुझसे ही पलटकर पूछने लगे कि, ‘बाबू सुनले ही कि सरकार तीन महीना के एक-एक हज़ार रुपया देत खाता में मगर अब तक मिलल ना हे’. मैंने फ़िर पूछा कि क्या कर्मचारी से पता किया? उनका जवाब था कोई के ना आएल हे. हुसैन भाई, जितेंद्र राम के माइयो के खाता में ना आएल हे. मैं घर पहुंचते तक स्वास्थ्य उपकेंद्र के हालात और भगवान दास की व्यथा पर ही सोचता रहा. अनेकों सवाल लेकिन कोई जवाब नहीं.

 

 

 

स्वास्थ्य उपकेंद्र की एक झलक (तस्वीर-ग़ालिब)

कोरोना वायरस से लड़ाई हेतु राज्य सरकार ने कुछ ज़रूरी घोषणाएं की हैं, जैसे हरेक गांव में पंचायत के माध्यम से जनता को सैनिटाइजर औऱ मास्क उपलब्ध करवाए जाएं. जरूरत पड़ने पर सामुदायिक किचेन खुलवाए जाएं. आइसोलेशन के लिए किसी जनताना बिल्डिंग को चिन्हित करके तैयार रखा जाए, लेकिन मेरे गांव पीरू जो कि पंचायत मुख्यालय भी है, वहां ऐसी कोई सुविधा नहीं दिखती. ब्लॉक के स्तर पर भी ऐसा ही हाल है. लोग अपनी व्यवस्था और इच्छाशक्ति से चल रहे हैं.

स्वास्थ्य उपकेंद्र की दूसरी झलक (तस्वीर- ग़ालिब)

दिनांक 9 अप्रैल – 2020
बिल्ली बोले म्याऊँ 2, कौवा बोले काओं 2, मुर्गी बोले ती-ती-ती, घोड़ा दौड़े टप 2, मेघ बरसे छप -छप-छप. आज अपने गांव के बिचली गली से गुजर रहा था. ग्यारह बजे के आस-पास. धूप जरा तेज होने लगी है. ये आवाजें पनो बीबी के दरवाज़े के भीतर आ रही थीं. साथ ही पनो बीबी का बेटा इन बच्चों को डांट भी रहा था. अरे लइकन घर गेले अप्पन. देख तो दुपहर हो गलई. साथ ही अपने बच्चों को भी ताक़ीद किया नसीमवा, हस्मतिया गेले घर में. मैंने रुककर जानना चाहा कि मोहल्ले के बच्चे स्कूल ना जाकर अपने दरवाजे पर क्यों खेल रहें हैं? पता चला, लॉक डाउन की वजह से तो सारे स्कूल बंद हैं. बच्चे तो फिर बच्चे ठहरे, करें तो क्या करें? कंहां जाएं? ऐसे खेल गीतों से भी ये बच्चे भाषा और गणित सीख सकते हैं. इनके इस बाल मन की लालसा और उत्सुकता को कौन समझेगा? कौन इन बच्चों को बताएगा कि तुम्हारे लिए देश में आज से दस साल पहले शिक्षा अधिकार क़ानून बना था. इस क़ानून में तुम्हारे बालमन के उड़ान की जगह भी थी. गांव में ज़्यादातर या सभी बच्चों की स्थिति ऐसी ही है. कोई अपने दलान में, कोई गली में, कोई खेत में, कोई खलिहान में यूं ही लाचार और बेबस है. कोरोना और लॉकडाउन के दंश को झेलते ये देशज बालक. इन्हें तो यह तक नहीं पता कि स्कूल में मिलने वाले दुपहरिया के भोजन के बदले सरकार ने इनके अभिभावकों के खाते में पैसा भेजने का ऐलान किया है. भले ही वो पैसा अबतक नहीं आया है. आखिर इनके अभिभावक भी करें तो क्या करें? सारी घोषणाएं फाइलों में फंसी हुई हैं.


गांव का बंद कोचिंग संस्थान

गांव का ही एक बंद पड़ा मदरसा

मेरे गांव में दो मिडिल स्कूल हैं. एक उत्क्रमित माध्यमिक विद्यालय है और तीन कोचिंग संस्थान हैं लेकिन बच्चे घरों में कैद हैं. मैं सोचता हूं कि इन बाल मनों और स्वप्नों की उड़ान को कौन समझेगा? फिर सोचता हूं कि ऐसा सिर्फ मेरे गांव के बच्चों के साथ तो हो नहीं रहा बल्कि प्रदेश और देश के हजारों पंचायतों और संबंधित गावों और शहरों के भी बच्चे तो एकदम से कैद हो गए हैं. दूसरे शब्दों में कहें तो भारत का भावी भविष्य आज एक प्रकार से अपने-अपने घरों व झोपड़ियों में क़ैद है. हालांकि इन बच्चों के साथ ही इनका पूरा परिवार और समूचा समाज एक अजीबोगरीब कैद में है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि इन बच्चों के अभिभावक बीपीएलधारी हैं, मनरेगा मज़दूर हैं, खेतिहर मज़दूर हैं, दिहाड़ी मज़दूर हैं…

-यह ‘कोरोना डायरी’ हमें ग़ालिब ने लिखकर भेजी है. वे जनआंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय से सम्बद्ध हैं और बिहार सरकार के साथ बतौर शिक्षा अधिकारी कार्यरत रहे हैं. यहां व्यक्त विचार उनके अपने हैं और इससे ‘द बिहार मेल’ की सहमति आवश्यक नहीं है…