भारतीय समाज जातिवाद नामक महामारी को सदियों से ढोते चला आ रहा है. यह एक ऐसी बीमारी है, जो इस समाज को खोखला बना चुका है. यह रोग समाज को तथाकथित जाति के आधार पर काल्पनिक उच्च और निम्न हिस्सों में विभाजित करके समाज में छुआछूत, ऊँच-नीच, भेदभाव, प्रेम और विवाह संबंधी प्रतिबंध लगाता है. इसके उपचार हेतु बुद्ध, कबीर, संत तुकाराम, ज्योतिबा फुले से लेकर भीम राव अंबेडकर तक ने अपने जीवन के कतरे-कतरे को लगा दिया, लेकिन आज भी यह रोग हमारे समाज में मौजूद है.
सवाल है क्यों? किसी भी रोग के रोकथाम के लिए सबसे पहले रोग की पहचान करने की आवश्यकता होती है. रोग के वाहकों का पता लगाया जाता है और अंत में इसका उपचार विकसित किया जाता है. लेकिन अब सवाल यह आता है कि उस स्थिति में क्या किया जाए, जब रोगी अपने रोग को ही निदान मान कर बैठा हो. इसकी अभिव्यक्ति भारत में लगातार होने वाली जाति केंद्रित हत्या, बलात्कार, नरसंहार, लूट, फ़र्ज़ी मुकदमे-नियुक्तियाँ, भेदभाव और यहाँ तक की चुनावों से भी होती हैं.
जाति-पहचान के आधार पर भेदभाव भारत में अपराध है, लेकिन घटनाएं थम नहीं रही
इस जाति वायरस का सबसे बड़ा वाहक यहाँ मौजूद ब्राह्मणवाद है. वर्तमान संस्थाएं और खासकर मीडिया का एक बड़ा वर्ग इसकी खुली पैरोकारी करता है. इस प्रकार के रोग की वैक्सीन का निर्माण शिक्षण संस्थानों में होता है, जहाँ से निकले लोग समाज को सही रास्ते में ले जाने की दिशा दिखाते हैं. मगर जब इन्हीं संस्थाओं से रोहित वेमुला और पायल तांडवी जैसे होनहार दलित स्टूडेंट्स की आत्महत्या की खबर आती है, तब इस समाज का नंगापन खुल कर सामने आ जाता है. ये सच्चाई उजागर हो जाती है कि कैसे जाति का यह वायरस लगभग तीन हजार सालों से भारत में मौजूद है. न सिर्फ भारत में बल्कि भारत से भी बाहर जहाँ-जहाँ इसके रोगी गए हैं, वहाँ-वहाँ उन्होंने इस रोग को फैलाया है.
मगर दलित ऐसे होते हैं जो यह ठान लेते है कि उन्हें इस रोग का निदान करना ही है. लगभग तीन साल दिन-रात एक करके डॉ. भीम राव अंबेडकर ने जाति जैसे कई वायरस से लड़ने की ‘संविधान’ नामक वैक्सीन तैयार की. 25 नवंबर, 1949, को संविधान सभा के अंतिम भाषण में उन्होंने आगाह किया कि कौन ऐसे रोगों के इतने समय तक इस देश में मौजूद रहने के लिए उत्तरदाई है, वे कहते हैं,”मुख्य विषय यह है कि जो स्वततंत्रा इसके (भारत) पास थी, उसे वह एक बार गँवा चुकी है. उसे उसने अपने ही लोगों के धोखे व छल के कारण (बार-बार) गँवाया है“. (डॉ बाबा साहेब अंबेडकर: राइटिंग्स एण्ड स्पीचेस, वॉल्यूम 13, पेज. 1214) यहाँ पर अंबेडकर उनलोगों के बारे में आगाह करते हैं, जिन्होंने 1857 जैसे कई मौकों पर अंग्रेजों का साथ देकर अपने ही सैनिकों का विरोध किया.
इस महामारी पर समाज के उच्च जाति के लोग गर्व करते हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो क्यों इस समाज का एक बड़ा हिस्सा इसको फैलाने वाले मानसिकता का उपयोग कोरोना वायरस के दौर में भी कर रहा होता? देश में 30 जनवरी को कोरोना वायरस का पहला मरीज केरल में मिलता है. इसके एक दिन बाद ब्रिटेन के नामी अखबार ‘द संडे टाइम्स’ में एक रिपोर्ट छपती है, जिसके अनुसार प्रसिद्ध वेबसाइट Shaadi.com अपने साइट पर उच्च जाति के प्राथमिकता के अनुसार चयन की सुविधा के लिए ‘Schedule Caste’ से संबंधित प्रोफाइल को फ़िल्टर करने का ऑप्शन दे रहा है. इस रिपोर्ट के मुताबिक अगर यूजर उच्च जाति से संबंध रखता है और वो सभी जाति (All Castes) का विकल्प चयन न करे तो उसे केवल उच्च जाति का ही प्रोफाइल दिखेगा. आपको बताते चलें कि जाति और पहचान के आधार पर भेदभाव न केवल भारत के कानून के मुताबिक दंडनीय है बल्कि ब्रिटेन के ‘इक्वालिटी लॉ’ का भी उल्लंघन करता है.
कहीं पानी की बूंद ने जान ले ली तो कहीं घास खाने को मजबूर हैं दलित
17 फरवरी को मध्य प्रदेश के शिवपुरी से एक खबर आती है कि 15 वन विभाग में काम करने वालों कुछ लोगों ने पानी की बूंद के कारण दलित की जान ले ली. इस मामले में मृतक मदन वाल्मीकि की पत्नी ने अपनी शिकायत में यह कहा था कि उसकी दो बेटियाँ पास के ही एक नल से पानी भर रही थी, तभी फॉरेस्ट रेंजर सुरेश शर्मा अपनी बोतल में पानी भरने आए. इस दौरान उसकी बेटी के हाथ से पानी की कुछ बूंदें फॉरेस्ट रेंजर पर गिर गिया, जिसके बाद सुरेश शर्मा उसकी बेटियों को गंदी-गंदी जाति सूचक गालियाँ देने लगा. उस दौरान मौके पर एक और वन विभाग का कर्मचारी आता है और उसकी बेटियों के साथ मारपीट करने लगता है. जब बेटियों को बचाने के लिए मदन वाल्मीकि अपने भाई के साथ पहुँचता है तो उसके साथ भी मारपीट की जाती है. वे भागने का प्रयास करते हैं, तभी दोनों पर गोली चला दी जाती है. गोली लगने के कारण मदन वाल्मीकि की मौत हो जाती है. पहले पहल तो सरकारी अमले ने मामले को ढकने की कोशिश की. लेकिन जब ग्रामीणों ने प्रदर्शन करना शुरू किया तब जाकर मामला दर्ज किया गया. इस मामले को लेकर मध्यप्रदेश विधानसभा में विपक्ष ने हंगामा भी मचाया था. परंतु इसी घटनाएं बदस्तूर जारी हैं.
25 मार्च के लॉकडाउन के दो दिन बाद वाराणसी के एक क्षेत्रीय अखबार ‘जनसंदेश टाइम्स’ में एक खबर छपती है- खबर यह थी कि प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में मुसहर समुदाय के बच्चे अपनी भूख मिटाने के लिए जमीन पर पड़ा घास खा रहे थे. मध्यप्रदेश की तरह जब यहाँ विपक्ष ने इस मुद्दे पर सरकार से प्रश्न किया, तब वाराणसी के सरकारी अमले द्वारा संपादक को ही नोटिस जारी कर दिया जाता है. ये कहते हुए कि यह घास नहीं एक प्रकार की दाल है. यहाँ तक की वाराणसी के जिलाधिकारी ने ट्वीट करके लिखा कि वे और उनका बच्चा तथाकथित घास खुद खाते हैं.
अगर सरकारी अमले और जिलाधिकारी की बात मान भी लिया जाए तो भी यह प्रश्न है, आखिर किन वजहों से मुसहर समुदाय के बच्चे इतने भूखे थे? क्या इसके पीछे लॉकडाउन कारण नहीं था? क्या वे जमीन पर रखी हुई घास को नहीं खा रहे थे? क्या इन गरीब मुसहर बच्चों का इस हालत में जमीन पर रखी घास की जगह ‘रोटी’ या अन्य चीज को खाना भी इंसानियत को शर्मिंदा नहीं करता है? क्या जिलाधिकारी महोदय भी इसी प्रकार जमीन से उठा के तथाकथित दाल (सरकारी अमले के अनुसार) खा सकते हैं?
कोरोना दौर में भी नहीं थम रहा दलितों के साथ अत्याचार
शादी डॉट कॉम को छोड़कर अन्य दो मामले जातिगत भेदभाव के सामान्य पैटर्न से संबंधित है. लॉकडाउन के बावजूद लोग अपनी मानसिकता बदलने को तैयार नहीं है. हालांकि इसके अतिरिक्त एक और पैटर्न है जो लॉकडाउन की देन है. यह पैटर्न इस बात को उजागर करती है कि दलितों के खिलाफ दुर्भावना का वायरस हमारे बीच किस हद तक मौजूद है. 29 अप्रैल को ‘द हिन्दू’ ने इससे जुड़ा एक आंकड़ा भी छापा था. तमिलनाडु की एक गैर सरकारी संस्था ‘Evidence’ के बीते एक महीने के अध्ययन अनुसार लॉकडाउन के दौरान दलितों पर हो रहे अत्याचार में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इस संस्था की रिपोर्ट की माने तो लॉकडाउन के दौरान लोग बड़ी संख्या में दलित को जान से मारने या उससे मारपीट करने के लिए जमा हो रहे हैं. वजह, किसी दलित का अंबेडकर से संबंधित टी-शर्त पहनना या प्रेम विवाह करना. इनलोगों को कोरोना वायरस का कोई डर नहीं है. इसमें ज्यादातर मामले ऑनर किलिंग, जमीन विवाद और छुआछूत से संबंधित हैं. इन मामलों के अलावा भी कई ऐसी घटनाएं हैं, जो लॉकडाउन की वजह से दर्ज ही नहीं हो पा रही हैं.
इस समय जब पूरा विश्व कोरोना वायरस की चपेट में है, तब जातिगत भेदभाव की ये शर्मनाक घटनाएं इस ओर इशारा करती हैं कि हमारे देश में जाति का यह वायरस कोरोना वायरस से भी ज्यादा खतरनाक है. हमारे देश में मौजूद इस वायरस ने किस हद तक समाज को खोखला बना दिया है. अगर 21वीं सदी में भी पानी की कुछ बूंदों की कीमत एक दलित की जान से अधिक कीमती है तो यह दिखलाता है कि हमारा समाज किस हद तक अपने अंदर फैले जातिगत वायरस को प्राथमिकता देता है. कोरोना वायरस का निदान हम खोज लेंगे किन्तु इस वायरस से निजात पाने के लिए हमारे समाज को बहुत प्रयास करना होगा. जब तक हम इस वायरस से संबंधित “संविधान” नामक वैक्सीन के मूल्यों का पालन नहीं करेंगे तब तक इसका अंत होना दूर की कौड़ी है.
यह आलेख ‘द बिहार मेल’ के लिए विकास कुमार ने लिखा है. विकास जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पीएचडी शोधार्थी हैं. यहां व्यक्त विचार उनके अपने हैं और इससे ‘द बिहार मेल’ की सहमति आवश्यक नहीं है.