याद. वो लमहे, दिन और साल जो अब सामने नहीं मगर भीतर कहीं हैं. बचपन में पिता को अकसर एक गाना गाते सुनती थी, ‘दिन जो पखेरू होते, पिंजरे में मैं रख लेता. पालता उनको जतन से मोती के दाने देता. सीने से रहता लगाए. याद न जाए बीते दिनों की…’ याद की बात कर रही हूँ, और खुद उसमें इस क़दर उतरती जाती हूँ कि उठकर ये गाना बजा देती हूँ.
मुझे लगता है मुझे बहुत कम चीज़ें याद रहती हैं. कई बार लगता है कि महीनों और सालों का पूरा का पूरा स्लॉट मेरी हार्ड डिस्क से इरेज़ हो चुका है. पर जानती हूँ कि इरेज़ कुछ नहीं होता. सही अड्रेस डालते ही, सही कॉन्टेक्स्ट आते, सब वापस रिट्रीव हो जाता है. शायद इतना कुछ स्टोर कर लेती हूँ कि सबकुछ सतह पर रखना संभव नहीं रहता.
बचपन की यादों में अधिकतर यादें पिता के साथ की हैं. उनके साथ की गई यात्राएँ, उनके साथ बिताया वक़्त, उनकी चिट्ठियाँ, उनकी नसीहतें. मेरे सवालों पर उनके जवाब और उनके सवालों पर मेरे. एक याद है जो अक्सर याद आती है. ख़ासकर जब हिंदू-मुसलमान बहुत होते सुनती हूँ. मेरे पिता खुद को दक्षिणपंथी कहते हैं. वे मानते हैं कि मुसलमान उनके देश के लिए एक समस्या हैं. ख़ैर, मैं याद की तरफ़ आपको ले जाती हूँ. बात सन 94 की है. पिता की सरकारी नौकरी का पहला साल. हम ग़ाज़ियाबाद शहर से सीधे इटावा के एक छोटे से क़स्बे में शिफ़्ट हुए थे. वहाँ अच्छे स्कूल तक नहीं थे. पर बच्चों को स्कूल तो जाना ही था. पास के एक स्कूल में हमारा दाख़िला करा दिया गया. शुरुआती दिनों की बात है, मुझे और बहन को स्कूल जाते शायद एक या दो दिन हुए थे. दोपहर का वक़्त था. हम स्कूल से लौट कर आए थे. और पिता अपनी डिस्पेंसरी से. मैं तीसरी कक्षा में थी. बहन दूसरी में.
दोपहर के खाने के बाद सब साथ बैठे थे. पिता ने पूछा कि स्कूल हमें कैसा लग रहा था. ये भी पूछा कि क्या हमारी किसी से दोस्ती हुई. मैंने एक लड़के का नाम लिया. वो लड़का जो यूनिफ़ॉर्म पहन कर नहीं आता था. उसकी मस्टर्ड टीशर्ट मुझे आज भी साफ़-साफ़ याद है. शाहनवाज़. क्लास का गुंडा था वो. टॉपर भी. मैंने उससे बात तक नहीं की थी. पर मैंने उसका नाम लिया. शायद मैं उससे दोस्ती करना चाहती थी. अब क्योंकि मैंने एक लड़के का नाम लिया था तो बहन क्यों चुप रहती, उसने भी एक नाम लिया. एक और मुसलमान लड़के का.
अब मैं और बहन जब भी इस बात को याद करते हैं, तो खूब हँसते हैं. अपने आप पर. इस घटना पर. और यह भी सोचते हैं कि उस वक्त बेचारे पिता पर इसका क्या असर हुआ होगा. दोनों बेटियों ने दोस्ती भी की तो किससे. मुझे ऐसा कुछ याद नहीं है कि पिता ने ऐसी किसी दोस्ती पर सवाल उठाया हो, या मनाही की हो. कुछ और बड़े होने पर चीज़ें वैसी नहीं रहीं, वो एक अलग बात है. शाहनवाज़ से आगे भी कभी दोस्ती न हो सकी. मैं उसकी कंपीटिटर जो बन गई थी.
पिता के साथ की एक और याद है जिसका हाल में मैंने कई बार ज़िक्र किया है. साल कौन सा था, मुझे याद नहीं. पर मैं शायद दस-बारह साल की रही होउँगी. हम या तो इटावा से हाथरस मेरे पैतृक गाँव की ओर आ रहे थे या फिर वहाँ से इटावा जा रहे थे. रेल का सफ़र था. गाड़ी फिरोज़ाबाद से गुज़री तो पिता ने शहर के बारे में बताया कि ‘फ़िरोज़ शाह’ के नाम पर इस शहर का नाम रखा गया. उन्होंने यह भी कहा कि कल तुम्हारे नाम पर भी किसी शहर का नाम रखा जा सकता है. तुम भी कोई शहर बसा सकती हो.
एक युवा होती लड़की से उसके अनुशासक पिता का ऐसा कहना बहुत मायने रखता था. उस एक घटना ने अचानक उसका आसमान बहुत ऊँचा और बड़ा कर दिया. उसने फिर कभी बने हुए, बसे हुए शहरों से अपने लिए जगह नहीं माँगी, उसने अपने शहर खुद बसाना चुना.
बिलकुल ऐसी ही एक याद मुझे हाल मैं मुझे आज़मगढ़ के एक मुसलमान परिवार में सुनने को मिली. पिछले दिनों फ़रवरी में यात्रा के दौरान जब हम आज़मगढ़ में थे तो वहाँ एक नज़म भाई के घर रात का खाना खाने की व्यवस्था हुई. रास्ते में हमारे साथ चलते हुए वे मुझे अपनी माँ के बारे में बताते रहे थे कि किस तरह उनकी माँ ने लोगों के लिए काम किया है. उन्होंने मदरसों में चलने वाले मिनी आइटीआइ के शिक्षकों के लिए नियमित आइटीआइ शिक्षकों जैसी व्यवस्था व तनख़्वाह दिलवाने की लड़ाई लड़ी थी. लगभग अकेले अपने दम पर.
मैं उनकी माँ से मिलना चाहती थी. आज़मगढ़ जैसे शहर के मुसलमान परिवार की महिला का ऐसा नेतृत्व, ऐसा जुझारुपन बहुत प्रभावित करने वाला था. शाम को उनसे मुलाक़ात हुई. वे लखनऊ से लौटी थीं. और आते ही दस-बारह मेहमानों के खाने के इंतज़ाम में जुट गई थीं. मटर पनीर, दाल, रायता, फिरनी न जाने क्या-क्या बना डाला था उन्होंने. खाना बनाते वक़्त मैं उनके साथ बैठकर उनके संघर्ष की कहानी सुनती रही.
सब सुनने के बाद मैंने उनसे पूछा कि आखिर इतना सब करने की हिम्मत उनमें कहाँ से आई. उनका जवाब हैरान कर देने वाला था. उन्होंने बताया कि जब वे छोटी थीं, तो उनके पिता और चाचा हमेशा उन्हें कहते थे कि वो बहुत सुंदर हैं. बचपन में इस बात ने उनमें बहुत आत्मविश्वास भर दिया. सिर्फ़ सुंदर कहा जाना भी किसी को आत्मविश्वास दे सकता है. कैसे. यह जानने के लिए हमें उनके बचपन में जाकर देखना होगा. शायद वहाँ एक लड़की के लिए यही सबसे बड़ी खूबी हो. शायद यही वो तिनके का सहारा हो जिसने उन्हें तैरना सिखाया हो.
याद की गली में उतरते हुए मैं एक और गली तक जाती हूँ. नवंबर 2018 में मैं गोकर्ण रहने गई थी. कोई चार महीने के लिए. कर्नाटक के इस समुद्री गाँव में समुद्र से पाँच सौ मीटर की दूरी पर मेरा कमरा था. हर शाम सूर्यास्त के समय जब मैं तट की तरफ़ जाती तो वही पाँच सौ मीटर वाला छोटा रास्ता लेकर जो आधा प्याज़, बीन्स और कचालू के खेतों से होकर गुज़रता और बाकी आधा काँटेदार झाड़ियों और नारियल के दरख़्तों के बीच से. जब मैं झाड़ियों के बीच से गुज़रती तो उनकी कँटीली डालियाँ अक्सर मेरे पाँवों और हाथों पर लाल लकीरें छोड़ जातीं. समंदर के खारे पानी में उतरती तो उनमें खूब जलन होती. लेकिन फिर भी मैं उसी रास्ते से लौटती और अगली शाम फिर वहीं से होकर गुज़रती.
तस्वीर- प्रदीपिका सारस्वत
उन लाल लकीरों को अपने ऊपर महसूस करते हुए मैं यह सोचकर मुस्कुराती कि ‘गोइंग डाउन द मैमरी लेन’ ऐसा ही होता है. आप वहाँ खिंचे चले जाते हैं और लौटते हैं तो ख़ुद पर ऐसी ही लकीरें लेकर लौटते हैं. बीते हुए दिन इस वक्त के लमहे को हाथ पकड़कर वहीं पीछे खींच ले जाना चाहते. खरोंचें तो आनी ही थीं.
मुझे वो खरोंचें, वो लकीरें और अच्छी लगतीं.
यादों का अपना एक संगीत भी होता. संगीत की अपनी यादें. हर गीत से एक, और कई बार अनेक यादें जुड़ जातीं. गोकर्ण वाले दिनों में कुछ गीत मैं बहुत सुना करती, ज़्यादातर नुसरत के.
पिछले दिनों मैंने उन गीतों को पीछे छोड़ दिया था. मैं शायद उन यादों से आगे बढ़ना चाहती थी. आज बहुत दिन बाद मैंने तय किया कि मैं याद की उस कँटीली गली मैं फिर जाउँगी. किसी भी चीज से बचकर भागना रास नहीं आता. आज शाम एक के बाद एक मैंने सब गीत सुने. मैं समंदर में भी उतरी. पर कोई जलन नहीं हुई. लौटी तो देखा कहीं कोई खरोंच न थीं. बस मुस्कुराहटें थीं. बीते दिनों को शायद आज का लमहा अच्छा लगने लगा था. अब वे उसे पीछे ले जाने की ज़िद में नहीं दिखते थे.