उत्तर प्रदेश में पदयात्रा के समय ली गई तस्वीर
आज एक अरसे बाद मैंने बाहर की दुनिया की तरफ देखा. बाहर, मतलब कंप्यूटर की राइटिंग और सिनेमा स्क्रीन, किताबों और घर के आसपास के पेड़ों और झाड़ों के बाहर. मैं कोरोनावाइरस के बारे में उतना भी नहीं पढ़ रही हूँ, जितना परिवार और मित्र व्हाट्सऐप मैसेज में भेज रहे हैं.
मुझे जानना चाहिए. पर क्या?
फोन के नोटिफिकेशन में इज़राइल में घोषित लॉकडाउन की खबर आती है. मैं जानना चाहती हूँ कि ताकतवर इज़राइल में क्या हो रहा है. बीबीसी पर छह अप्रेल का वीडियो देखती हूँ. इज़राइल के उन ऑर्थोडॉक्स इलाक़ों को दिखाया जा रहा है, जहाँ स्टेट की नहीं, रब्बियों की बात सुनी जाती है. बड़े परिवार और कम्यूनिटी लाइफ़ उनके जीवन जीने का तरीक़ा है. ये इलाके इज़राइल की आधुनिक, प्रोग्रेसिव, अमीर और ताकतवर इमेज से मेल नहीं खाते. मैं बीबीसी के संवाददाता टॉम बेटमैन के साथ-साथ उन गलियों से घूमती हूँ.
फिर हम ग़ाज़ा जाते हैं. “लॉकडाउन जहाँ रोज़ की बात है.” एक रिफ्यूज़ी कैंप में रह रहे परिवार में महिला घर का आख़िरी बचा आटा सान रही है. यह आटा उधार लिए पैसे से आया है. वो बताती है कि अगले हफ़्ते के लिए उधार भी नहीं मिलेगा. बताया जाता है कि ग़ाज़ा के अस्पतालों में सिर्फ़ 70 बेड हैं, जो कि ज़्यादातर भरे हुए हैं. और यह भी कि संयुक्त राष्ट्र की मददगार एजेंसी ने फिलहाल अपना दफ़्तर बंद कर दिया है.
मैं जानना चाहती हूँ कि दुनिया के बुद्धिजीवी अब क्या बातें कर रहे हैं. बातें हो रही हैं कि कोरोना के बाद की दुनिया कैसी होगी. नया वर्ल्ड ऑर्डर क्या होगा.
टाइम की वेबसाइट पर 15 मार्च को बेस्टसेलर लेखक, इतिहासविद् युवल नोअ हरारी का लेख छपा है, “कोरोनावाइरस के ख़िलाफ़ युद्ध में मानवता के पास नेतृत्व नहीं है.”
तो क्या दुनिया कोरोनावाइरस के खिलाफ युद्ध पर है? इस पर भी वेस्टर्न मीडिया में काफ़ी बातचीत हो रही है. क्या इस आपदा से निपटने के प्रयासों के लिए युद्ध के शब्दकोश का इस्तेमाल सही है? भाषा, आम आदमी के लिए सिर्फ भाषा हो सकती है, संवाद का माध्यम. पर भाषा या संवाद की जड़ें कहीं गहरी हैं और फल कहीं व्यापक. भाषा की दुनिया हमारे इरादों से शुरू होकर हमारे फैसलों और उनके अमल तक जाती है.
द नेशनल इंट्र्स्ट में जेम्स होम्स लिखते हैं कि युद्ध में आपका एक शत्रु होता है, जिसके साथ या तो आप शाँतिवार्ता से मसला हल कर सकते हैं, या अपनी सेना और शस्त्र बल से उसे डराकर युद्ध रोकने की कोशिश करते हैं या फिर युद्धक्षेत्र में उसे हराने की कोशिश करते हैं. पर कोरोनावाइरस या कोई भी पैथोजन, इस तरह का शत्रु नहीं है. आप न तो उससे शाँतिवार्ता कर सकते हैं न ही उसे डरा सकते हैं.
वैज्ञानिक जानते हैं कि राष्ट्रीयता, धर्म, धन या अन्य किसी भी तरह की सीमाएँ पीछे छोड़कर मानव मात्र को इसके ख़िलाफ़ सुरक्षा देना ही इस वाइरस से बचने का एकमात्र तरीक़ा है.
पर मानव का दंभ बचने की जगह लड़ने को अधिक प्राथमिकता देता है.
युद्ध की बात आती है तो युद्ध की अर्थव्यवस्था यानी वॉर इकॉनमी की भी बात होती है. इस समय दुनिया को वेंटिलेटर्स की, बाकी स्वास्थ्य संबंधी वस्तुओं और उपकरणों की आवश्यकता है. अमेरिका जैसा सक्षम समझे जाने वाला देश भी इन कमियों से जूझ रहा है. युद्ध के समय पूरी अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है, सारा ज़ोर युद्ध में काम आने वाली वस्तुओं के उत्पादन में लग जाता है. अमेरिका की सरकार ने पिछले महीने डीपीए यानी डिफेंस प्रोडक्शन एक्ट फिर से लागू किया, इसका इस्तेमाल इससे पहले शीतयुद्ध के दिनों में किया गया था. इस क़ानून के ज़रिए रणनीतिक क्षेत्र में काम कर रहे निजी उद्योगों को प्राथमिकता पर संसाधन उपलब्ध कराए जाते हैं. इस समय यह रणनीतिक क्षेत्र स्वास्थ्य के लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन का होगा.
हालाँकि इसके ख़िलाफ़ आवाज़ भी उठती सुनाई देती है. कुछ विद्वानों का मानना है कि निजी क्षेत्र पर निर्भर डीपीए जैसे तरीक़ों से कहीं बेहतर है सरकारी उत्पादन तंत्रों की तरफ़ संसाधनों का बहाव. इससे रोज़गार भी बढ़ेगा और लाभ सिर्फ कुछ ही हाथों में जाने से बचेगा.
लाभ की बात पर ध्यान देना भी ज़रूरी है. विश्वयुद्धों के समय में भी कुछ तबकों ने इन त्रासदियों से अपनी तिजोरियाँ भरीं. इस पर काफ़ी सामग्री तलाशी और पढ़ी जा सकती है. लालच, बुरे समय में भी मानव स्वभाव से नहीं जाता. रूज़वेल्ट ने विश्वयुद्ध से लाभ कमाने वालों पर कर लगाए. इस त्रासदी के समय हमें पहले ही ध्यान देने की ज़रूरत है कि स्वास्थ्य क्षेत्र के बिचौलिए इस आपदा को अपनी तिजोरी भरने का माध्यम न बनाएँ.
पर यह देखेगा कौन? नेतृत्व, हमारा राजनीतिक नेतृत्व. पर राजनीतिक नेतृत्व अब भी राजनीति के छिछले खेलों में व्यस्त है. वे अब भी अपनी ज़िम्मेदारी से दूर हैं. वे अब भी इस आपदा के राजनीतिक, इलेक्टोरल लाभ लेने की तिकड़मों में व्यस्त हैं.
हरारी चौदहवीं शताब्दी की काली मौत या प्लेग से लेकर 2014 के इबोला संक्रमण तक के उदाहरण देते हुए लिखते हैं कि कोरोनावाइरस का ठीकरा वैश्वीकरण के सर फोड़ना ठीक नहीं. वे याद दिलाते हैं कि आज पहले से बहुत अधिक जनसंख्या और आवागमन के तीव्र गति के साधन होते हुए भी इस तरह के त्रासद संक्रमण उतनी अधिक जानें नहीं लेते. काली मौत को पूर्व एशिया से यूरोप तक पहुँचने में एक दशक से ज़्यादा समय लगा और इसने करोड़ों जानें लीं. आज वुहान से अमेरिका जाने में कुछ घंटों का फ़ासला है.
वे कहते हैं कि इस तरह की महामारियों से बचाव का सबसे प्रभावी तरीक़ा आइसोलेशन नहीं इनफर्मेशन है. जानकारी. काली मौत जैसे संक्रमणों के काल में लोग वाइरस और बैक्टीरिया के बारे में नहीं जानते थे. उनके लिए यह देवता का श्राप था. ऐसे समय में वे सामूहिक प्रार्थना के लिए इकट्ठे होते और संमक्रण और फैलता. और जानें जाती. पर अब हमें पता है कि इवोल्यूशन या जेनेटिक म्यूटेशन के कारण पुराने पैथोजन और नुक़सानदेह हो जाते हैं और नए पैदा होते रहते हैं.
वे लिखते हैं कि सीमाओं को सील कर देना इन बीमारियों से बचने का प्रभावी उपाय नहीं है. जानकारी साझा करना, उस जानकारी पर विश्वास करना और साथ मिलकर काम करना ही उपाय है. चीन को सब जानकारी दुनिया के साथ साझा करनी चाहिए. दुनिया को उस पर विश्वास होना चाहिए. साथ मिलकर काम करना इसलिए ज़रूरी है कि यदि एक भी देश में, एक भी व्यक्ति में वायरस बचा रह जाता है, तो उस वायरस में म्यूटेशन होने की, और भी डरावनी महामारी पैदा होने की संभावना बची रह जाती है. इस संभावना की ज़द में दुनिया का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति भी आता है और सबसे कमज़ोर भी.
वाइरस अमीर देशों के बड़े नेताओं तक पहुँच चुका है. उन तक भी जिनके पास विश्व की बेहतरीन निजी स्वास्थ्य सेवाएँ हैं. बुद्धिजीवी इस बात पर भी चर्चा कर रहे हैं कि विकासशील देशों में यह वाइरस सरकारें गिरा सकता है. वाइरस के कारण यदि नेताओं की जानें जाती हैं तो सत्ता का खेल बिगड़ जाएगा. फॉरनपॉलिसी डॉट कॉम पर पढ़ते हुए मैं राजनीति पर एक नया शब्द सीखती हूँ, जेरोन्टोक्रेसी, बूढ़े लोगों द्वारा शासित राज्य. कहा जा रहा है कि इन राज्यों को अधिक ख़तरा है.
हरारी आज के समय के विश्वास के संकट पर दुख जताते हैं. विभिन्न राष्ट्रों को एक दूसरे पर विश्वास नहीं है. राष्ट्रों को अपने नेताओं पर विश्वास नहीं है. नागरिकों को विज्ञान पर विश्वास नहीं है. “पिछले कुछ सालों में गैरज़िम्मेदार नेताओं ने जानबूझकर विज्ञान, सरकारी तंत्र और अंतरराष्ट्रीय सहयोग पर लोगों का विश्वास कम करने की कोशिश की है. नतीजतन हम एक ऐसी आपदा से गुज़र रहे हैं, जिसके लिए ज़रूरी वैश्विक प्रत्युत्तर को प्रेरित, संगठित और आर्थिक रूप से प्रबंधित कर सकने वाले वैश्विक नेता नहीं दिखते.”
2014 में इबोला के समय दुनिया को नेतृत्व देने वाला अमेरिका अब कहीं नहीं दिखता.
सीमाओं की सुरक्षा पर वे पैथोजन की दुनिया और मानव विश्व के बीच की सीमा की सुरक्षा की बात करते हैं. यह सीमा हर व्यक्ति से होकर गुज़रती है. उससे भी, जिसके पास आधारभूत स्वास्थ्य सुविधाएँ भी नहीं हैं.
यहाँ इज़राइल और फ़िलिस्तीन की सीमाएँ बेमानी हो जाती हैं. अगर ग़ाज़ा के रिफ्यूज़ी कैंप में वाइरस फैलता है तो इज़राइल की कॉलोनी उसकी ज़द में हैं. जैसे वुहान का संक्रमण अमेरिका को बीमार कर चुका है.
यह सिर्फ़ वर्ल्ड ऑर्डर की नई संभावनाएँ तलाशने का समय नहीं है. अपने भीतर की संवेदना को तलाशने का है. वही संवेदना हमें उस आख़िरी आदमी की सुरक्षा की फ़िक्र करने तक ला सकती है, जिसके सामने वाइरस के संकट से पहले रोटी का संकट खड़ा है.
वही संवेदना हमें विश्वास करना सिखा सकती है. हमें बचा सकती है.