लेखक शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के जीवन पर एक किताब है ‘आवारा मसीहा’. इस किताब को लिखने वाले हैं विष्णु प्रभाकर. किसी लेखक के जीवन के ऊपर बेहद शोध करके लिखी गई किताबों में इसे शीर्ष 10 किताबों की सूची में तो आप आराम से रख सकते हैं.
अब आते हैं शरतचन्द्र पर, जो इस लेखक का नाम नहीं जान रहे हों उनके लिए बता दूं कि यह ‘देवदास’ उपन्यास के लेखक हैं. अब मुझे पता है कि आप समझ गए होंगे कि मैं किस लेखक की बात कर रही हूं. मैं ‘आवारा मसीहा’ किताब से शरतचन्द्र के जीवन के एक वाकिये का जिक्र कर रही हूं
शरतचन्द्र ने रंगून में शराब छोड़ी थी. इसकी चर्चा उन्होंने अपने मित्र हरिदास शास्त्री से करते हुए कहा था, ‘‘ श्रीरामपुर से जो लड़की मुझसे मिलने आई थी, वह कैसी अद्भुत थी, जानते हो?
हरिदास बोले ‘‘नहीं तो’’
शरतचन्द्र ने कहा, ‘‘ वह लड़की मेरे पास आई और बोली, ‘‘ बहुत दिनों से आपसे मिलने की इच्छा थी लेकिन मेरे आत्मीयजनों ने मुझसे कहा कि तुम भले घर की लड़की हो, भला तुम शरतचन्द्र से मिलोगी! कैसा साहस है तुम्हारा? यह सब बताकर उसने पूछा, ‘’ क्या आप सचमुच ऐसे हैं कि आपसे कोई युवती मिल भी नहीं सकती ? मैं हंस पड़ा, उत्तर दिया, ‘अगर दस वर्ष पहले के शरत् के संबंध में ऐसा कहा जाता तो मैं कुछ न कहता, क्योंकि तब मैं खूब नशा करता था. दिन–रात नशे में चूर रहता था, लेकिन तब भी मैं कह सकता हूं कि मैंने कभी किसी नारी का अपमान नहीं किया. और अब तो मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूं. निडर होकर तुम मेरे पास आ सकती हो।’’
शास्त्रीजी ने पूछा, ‘‘ खूब शराब पीते थे?’’
शरत् बोले, ‘’ हां भाई पीता था किन्तु एक दिन छोड़ दी।’’
‘‘ कैसे छोड़ दी?’’
‘’ अच्छा बताता हूं. एक और चट्टोपाध्याय थे, एक बर्मी बन्धु थे. हम तीनों एक साथ शराब पीते थे. अचानक वे बर्मी बन्धु बीमार हो गए. डॉक्टर ने उन्हें शराब पीने से मना कर दिया. छुट्टी लेकर वे अपना इलाज भी कराने लगे. एक दिन क्या हुआ कि लगभग रात के ग्यारह बजे दूसरे चट्टोपाध्याय मेरे घर आकर मुझे पुकारने लगे. पूछने पर उन्होंने बताया कि दुकानें बंद हो गई हैं और उन्हें प्यास लगी है, कुछ शराब चाहिए. लेकिन मेरे पास जितनी थी उससे उनकी प्यास नहीं बुझी. बोले, ‘चलो उन बर्मी बन्धु के घर चले।’’
‘‘ मैं राजी नहीं हुआ. लेकिन वह क्यों मानने लगे थे? मुझे उनके साथ जाना ही पड़ा. रात का एक बज चुका था. बहुत आवाज देने पर बन्धु की पत्नी खिड़की से झांकी. बोलीं, ‘ मेरे स्वामी बीमार हैं, कृपा करके आप लोग चले जाएं।’’
‘’ लेकिन तब तक हमारी पुकार सुनकर वह बन्धु भी जाग पड़े थे. उन्होंने अपनी पत्नी से अनुरोध किया, ‘‘ दरवाजा खोल दो. हमारे घर में एक बोलत है. उसकी हमें क्या जरूरत है? मैं तो अब शराब पीता ही नहीं हूं.’’
‘’ मैं होश में था. उस समय भी मैंने वपास लौट चलने का अनुरोध किया, लेकिन चट्टोपाध्याय नहीं माने. अंदर जाकर हम लोग एक छोटी–सी मेज के पास बैठ गए. बर्मी बन्धु की पत्नी भी पहरा देने के लिए वहीं बैठी हुई थीं. परंतु दिन–भर के परिश्रम से थकी होने के कारण वे शीघ्र ही उंघने लगीं. यह देखकर चट्टोपाध्याय ने बर्मी बन्धु से भी शराब पीने का इशारा किया. लेकिन पत्नी की ओर देखकर उन्होंने इंकार करर दिया. फिर धीरे–धीरे पत्नी को सचमुच नींद आ गई. चट्टोपाध्याय ने फिर अनुरोध किया. बर्मी बंधु इस बार मना नहीं कर सके. एक बार, दो बार, और तीसरी बार पीते समय पात्र उनके हाथ से गिर पड़ा। ‘आं–आं’ ऐस भयानक शब्द करते हुए वे खुद भी गिर पड़े. यह शब्द सुनकर उनके स्त्री–पुत्र सब जाग पड़े. और तब उन बंधु की छाती पर लोट–लोटकर उन्होंने जो चीत्कार किया, उसे सुनकर हमारा नशा न जाने कहां चला गया. रात–भर थाना–पुलिस हुआ और फिर अगले दिन बंधु का अंतिम संस्कार. वहां से लौटकर प्रतिज्ञा की कि अब शराब नहीं पियूंगा. चट्टोपाध्याय ने भी प्रतिज्ञा की, लेकिन वे उसकी रक्षा न कर सके. तो हरिदास, एक भला आदमी स्त्री–पुत्र को लेकर सुख से सो रहा था. रात के एक बजे दो आदमी उसके घर में घुसे और मार डाला। ऐसा भयानक कर्म होने पर भी शराबी को ज्ञान नहीं होगा तो कब होगा?
हालांकि शरतचंद्र इस तरह का एक और भी किस्सा शराब छोड़ने को लेकर सुनाते रहे थे और कोई भी किस्सा एक–दूसरे से मेल नहीं खाता था. विष्णु प्रभाकर कहते हैं कि अपने–अपने स्थान पर दोनों वक्तव्यों में काफी सत्य है. शरतचंद्र का पूरा जीवन विरोधाभारसों में पूर्ण रहा और उसके बीच में से उस सत्य को खोज निकालना भी उतना ही कठिन रहा है.