जिंदगी छै तs जियअ पड़तै न बाबू…

जिंदगी छै तs जियअ पड़तै न बाबू…

जिंदगी छै तs जियअ पड़तै न बाबू. ये शब्द किसी दार्शनिक के नहीं हैं. ये शब्द हैं बिहार के जिला सुपौल के भपटियाही गांव निवासी श्यामलाल यादव के. वे 75 वर्षीय बुजुर्ग हैं. उनका घर कोशी नदी के तटबंध के भीतर है पड़ता है. वर्तमान परिस्थितियों में वे अपने घर-बार को छोड़कर तटबंध पर रुके हैं. वे बातचीत के क्रम में रोने लगते हैं और कहते हैं कि बराज बनने के पचास साल के इतिहास में जुलाई के महीने में कभी इतना पानी नदी में नही आया था.
अपनी आपबीती सुनाते हुए वे आगे कहते हैं कि अचानक से पानी आने की वजह से वे सिर्फ अपनी जान बचा सके. अब उनके पास खाने के लिए भी कुछ नहीं है और ना ही सरकार के तरफ से कोई मदद मिली है. शनिवार की रात कोशी बराज से 3.90 लाख क्यूसेक पानी छोड़े जाने की वजह से तटबंध के भीतर के लाखों लोगों के घरों में तीन फीट से अधिक पानी अचानक चला आया. हजारों की संख्या में तटबंध के भीतर के लोग घरबार को छोड़कर तटबंध पर शरण लिए हुए है.

तटबंध पर रात-दिन काटते लोग (तस्वीर- कृष्णा मिश्रा)

पिछले साठ साल में जब से कोशी नदी पर बराज बना है 15 जून से 15 अक्टूबर तक तटबंध के भीतर के लोग कई बार अपना घरबार समेटकर इसी तरह तटबंध पर आते हैं और फिर वापस चले जाते हैं. इनकी यह समस्या स्थायी हो चुकी है. ग्राउंड जीरो पर पहुंचने के बाद मैंने कोसी बराज से तटबंध पर लगभग 90 किलोमीटर की दूरी तय की. मुझे कई स्पर कटते हुए नज़र आए. (स्पर का मतलब होता है वैसा बांध जो नदी के धारा को मुख्य तटबंध से दूर धकेलता है और नदी के करंट को तोड़ता है)

कई जगह नदी लगभग तटबंध को छूती हुई गुजर रही थी. कई जगहों पर तटबंध को बचाने के लिए मजदूर काम करते नज़र आए. इस पूरे इलाके के जलमग्न होने पर बड़े-बूढ़े कहते हैं कि बराज बनने के बाद आजतक जुलाई के पहले पखवाड़े में कभी इतना पानी नहीं आया था कि तटबंध के भीतर के लोग बुरी तरह तबाह हो जाएं. माल-मवेशियों का नुकसान हो सो अलग. वे आगे कहते हैं कि बराज बनने से पहले कोशी नदी का पानी सैकड़ों छोटी-बड़ी नदियों व नाले में फैल जाता था. जिसकी वजह से बाढ़ इस कदर विकराल रूप नहीं अख्तियार कर पाता था.

तटबंध निर्माण में लगे मजदूर (तस्वीर- कृष्णा मिश्रा)

नेहरू की मौजूदगी में हुआ था बराज का शिलान्यास
यहां हम आपको बताते चलें कि कोशी बराज का शिलान्यास 30 अप्रैल 1959 को नेपाल के तत्कालीन राजा महेन्द्र बीर विक्रम के हाथों पंडित नेहरू और भारत-नेपाल की जनता की मौजूदगी में हुआ था. बराज के लिए नदी पर बांध बनने के बाद इस इलाके के भीतर सैकड़ों की संख्या में बहने वाले छोटे- बड़े नदी नाले या तो सूख गए या पूरी तरह खत्म हो गए.

बराज निर्माण के बाद दो नहरों का निर्माण हुआ. एक पूर्वी कोशी केनाल और दूसरा पश्चिमी कोशी केनाल. पूर्वी कोशी केनाल से भारत में सिंचाई होती है एवं पश्चिमी कोशी केनाल से नेपाल में सिंचाई का काम किया जाता है. पूर्वी कोशी केनाल से नब्बे के दशक तक स्थानीय जनता व किसानों को खासे फायदे मिले लेकिन अब उसका 90% हिस्सा बर्बाद हो चुका है और अब केनाल से खेतों की सिंचाई लगभग ना के बराबर होती है.

कोसी बराज (तस्वीर- कृष्णा मिश्रा)

मई-जून की झुलसाती गर्मी से राहत दिलाने वाली फुहारें कोसी-सीमांचल के लोगों के समक्ष बाढ़ के दृश्य प्रस्तुत करने लगती हैं. एक तरफ सुपौल और मधेपुरा के लोग जहां कोसी की बाढ़ से भयभीत रहते हैं. वहीं अररिया, पूर्णिया, कटिहार किशनगंज के लोग परमाण, बकरा, कनकई, सौरा एवं महानंदा जैसी दर्जनों छोटी- बड़ी नदियों में आने वाली बाढ़ से परेशान रहते हैं.

क्या कहते हैं विशेषज्ञ?
उत्तरी बिहार के हर साल बाढ़ से जूझने की स्थिति पर बिहार की नदियों पर खासा काम करने वाले दिनेश मिश्र अपनी फेसबुक वॉल पर लिखते हैं, ” मैंने तीन साल पहले जल संसाधन मंत्रालय, दिल्ली को लिखा था कि हमारी बाढ़ ढाई दिन की जगह ढाई महीने की हो गई और बाढ़ ने अपनी चपेट में गांवों के साथ साथ शहरों को भी ले लिया है। कम से कम अब हमें पानी की निकासी पर गहन अध्ययन करके इस समस्या का समाधान खोजना चाहिए. देश और बिहार में फ्लड कमीशन तो कई गठित किए गए पर अब समय आ गया है कि जल निकासी के लिए भी एक आयोग गठित किया जाए. साल भर बाद जवाब आया कि आपका सुझाव विचारणीय है। फिर क्या हुआ पता नहीं.”

यहां यह भी बताना जरूरी है कि अररिया और किशनगंज जिले का अधिकांश हिस्सा हर साल बाढ़ से प्रभावित होता है. कल की तारीख में भी अररिया के जोकीहाट, कुर्साकांटा, अररिया सदर, सिकटी एवं फारबिसगंज प्रखंड के सैकड़ों गांवों में बकरा और परमाण नदी का पानी फैल गया है. कई जगह संम्पर्क पथ ध्वस्त हो चुका है और लोग काफी परेशानी महसूस कर रहे हैं.

कमला-बलान नदी द्वारा किए जा रहे कटान को देखता एक बुजुर्ग (तस्वीर- सोशल मीडिया)

बकरा और परमाण नदी के बीच स्थित रहटमीना और तमकुड़ा गांव के हालात बेहद खराब हैं. रहटमीना गांव निवासी विपुल कुमार कहते हैं, “बाढ़ से तो हम हर साल आमने-सामने होते हैं लेकिन इस बार पानी कहीं अधिक बढ़ गया. अधिक पानी आने की वजह से सबकुछ बर्बाद हो गया. ग्रामवासी किसी तरह अपनी जान बचा पाए.”

बाढ़ की भयावहता और प्रशासन द्वारा इससे निपटने की समुचित व्यवस्था न होने की वजह से बाढ़ पीड़ितों में काफी आक्रोश है. बाढ़ पीड़ितों ने अपनी समस्याओं की सुनवाई के लिए NH57 को भी घंटों जाम रखा. आपदा की घड़ी में लोगों मदद में लगे करन कुमार पप्पू मुझसे बातचीत में कहते हैं कि 2017 की बाढ़ से प्रशासन ने कोई सबक नहीं लिया था. सरकार की ओर से जो व्यवस्था की जा रही है वो ऊंट के मुंह में जीरे के समान है…