जेनुइनली JNU के बारे में जानने की इच्छा रखने वाले लोगों के लिए

जेनुइनली JNU के बारे में जानने की इच्छा रखने वाले लोगों के लिए

ये पोस्ट सिर्फ वो लोग पढ़ें जो जेनुइनली जेएनयू के बारे में जानना चाहते हैं. जो लोग पहले से मान चुके हैं कि जेएनयू बेकार जगह है या फिर जेएनयू एक महान जगह है वो इस पोस्ट को पढ़ने का कष्ट बिल्कुल न करें. आपको निराशा होगी.

फिलहाल अभी फीस के झोलझाल से शुरु करते हैं. हुआ क्या है. हुआ ये है कि फीस बढ़ी है. लेकिन मुद्दा कमरे के किराए का नहीं है जिसे दस रूपए महीने से बढाकर तीन सौ किया गया है. मुद्दा है सर्विस चार्ज जो हर महीने सत्रह सौ प्रस्तावित है. मुद्दा है मेस में जमा की जाने वाली राशि जो पांच हज़ार से बढ़ाकर बारह हज़ार की गई है. मोटा मोटा समझिए कि अभी जेएनयू में रहने वाला छात्र जो महीने का बिल करीब दो ढाई हजार भरता है उसे नए नियमों के तहत पांच से छह हज़ार तक बिल भरना पड़ सकता है.

मुद्दा नया हॉस्टल मैनुअल भी है जिसके तहत लड़का लड़की क्या पहनें. कितने बजे कमरे में आ जाएं. खाना खाने कैसे जाएं. क्या कपड़े पहनें ये तक प्रशासन तय कर रहा है. (इस पर पोस्ट में कम चर्चा करेंगे)

इसमें दिक्कत क्या है.

दिक्कत है. दिक्कत ये है कि जेएनयू प्रशासन के डाटा के अनुसार ही कैंपस के चालीस परसेंट बच्चे गरीबी रेखा से नीचे हैं यानी कि इनके मां पिता महीने का बारह हज़ार रूपए भी नहीं कमा पाते हैं. ऐसे में वो बच्चे महीने का पांच से आठ हज़ार कैसे भरेंगे.

ये तत्काल का मुद्दा है लेकिन बड़ा मुद्दा कुछ और है. बड़ा मुद्दा है शिक्षा के निजीकरण का. जो लगभग लगभग शुरु हो चुका है. आईआईटी आईआईएम में लगातार फीस बढ़ी है. अब चूंकि लोगों को पता है कि जो आईआईटी आईआईएम में जाता है वो पास होते ही लाखों की नौकरी पा जाता है तो मां बाप पेट काटकर भी ये पैसा भर देते हैं.

लेकिन सोशल साइंस और आर्ट की पढ़ाई का अंतर हमें आप सबको समझना होगा. इंजीनियरों का योगदान कम नहीं है लेकिन क्या सोशल साइंस का कोई योगदान नहीं है देश में और समाज में???? अगर आपका जवाब हां है तो ये पोस्ट आगे न पढ़ें.

लेकिन आपको लगता है कि सोशल साइंस के विषय ज़रूरी हैं क्योंकि वो आपको सोचने पर मजबूर करते है. समाज को बेहतर करने में मदद करते हैं तो आपको पता है कि सोशल साइंस में ग्रैजुएट के लिए विकल्प कम है. उसे एमए और पीएचडी करते करते नए विकल्प मिलते हैं. शोध में उसके लिए नए रास्ते पैदा होते हैं.

मैं पोस्ट से इतर एक जानकारी दे दूं. दुनिया के टॉप दस इंटेलेक्चुअल का नाम खोजिए…मसलन नोएम चोमस्की, एडवर्ड सईद, रिचर्ड डॉकिन्स, उम्बर्तो इको, पॉल क्रूगमैन, अमर्त्य सेन, क्रिस्टोफर हिचन्स (ये लिस्ट रैंडम है)….इनमें से ज्यादातर लोग पढ़ने लिखने के पेशे से जुड़े हुए हैं. कोई इंजीनियर या डॉक्टर नहीं है.

क्या ऐसे युवा लोगों की की समाज में ज़रूरत नहीं है. अगर ज़रूरत है तो क्या इनके लिए शिक्षा फ्री नहीं होनी चाहिए या कम कीमत पर नहीं होनी चाहिए.

अब आते हैं दुनिया से तुलना करने पर – अमरीका और यूरोप में ग्रैजुएशन करने में बड़ी फीस लगती है लेकिन प्राइमरी शिक्षा फ्री है. साथ ही पीएचडी में हर अच्छी यूनिवर्सिटी में पैसे दिए जाते हैं क्योंकि वो मानते हैं कि पीएचडी करने वाला समाज में कुछ बड़ा योगदान करेगा और लोग करते भी हैं.

फिर जेएनयू के छात्रों को बूढ़ा, सिगरेट पीने वाला और राष्ट्र विरोधी कह कर गाली क्यों दिया जाता है.

इसे समझने के लिए थोड़ी सी राजनीति समझनी पड़ेगी. जेएनयू में वामपंथियों का वर्चस्व रहा है और उनकी राजनीति में कई तरह की समस्याएं हैं . वर्तमान में सरकार राइट विंग की है जो इस राजनीति को तोड़ना या समझिए खत्म करना चाहती है.

अब बौद्धिक लड़ाई का जवाब बौद्धिक लड़ाई है या फीस बढ़ाकर छात्रों को अच्छी शिक्षा से वंचित करना. ये फैसला मैं पढ़ने वालों पर छोड़ता हूं.

मुझसे उपाय पूछेंगे तो मैं यही कहूंगा कि वामपंथी बौद्धिक वर्चस्व का जवाब देने के कई और बेहतरीन रास्ते थे मसलन हार्वर्ड से लेकर कैंब्रिज तक कई भारतीय प्रोफेसर अलग अलग विषयों पर पढ़ा रहे हैं. उन्हें जेएनयू बुलाया जाना चाहिए था भले ही वो कुछ साल के लिए आते या ज्यादा वेतन पर आने को तैयार होते. उनके पढ़ने के स्टैंडर्ड से वाम के बौद्धिक वर्चस्व को चुनौती दी जाती तो समय ज़रूर लगता लेकिन कम से कम वर्चस्व खत्म हो जाता हमेशा के लिए.

सरकार ने वो उपाय नहीं चुना क्योंकि इस सरकार को बुद्धि का मार्ग चाहिए नहीं. इस सरकार को वाट्सएप मार्ग चाहिए. सरकार ने पहले जेएनयू को अपने गुर्गों द्वारा बदनाम कराया और अब फीस बढ़ा कर, छात्रों की पिटाई कर के पूरे के पूरे सोशल साइंस को खत्म करना चाहती है.

फैसला आपको करना है कि आप अपने बच्चों के लिए कैसी शिक्षा चुन रहे हैं. आने वाले समय में हर यूनिवर्सिटी की फीस लाखों में हो जाएगी तब सोचिए गरीब कहां जाएगा…

औऱ आज जो लोग अपनी तनख्वाहों पर इतना उछल रहे हैं वो भी जान लें आऱटिफिशियल इंटेलीजेंस के दिन दूर नहीं. नौकरियां तो आपकी भी जाएंगी..तब पता चलेगा कि बचना उसे ही है जो शोध कर रहा है. स्पेशलाइज़ड नॉलेज जुटा रहा है चाहे वो सोशल साइंस का नॉलेज हो या साइंस का.

जेएनयू का एक पूर्व छात्र जो न लेफ्ट है न राइट है लेकिन बिल्कुल टाइट है.

नोट: यह जेएनयू के पूर्व छात्र जे सुशील ने अपने फेसबुक वॉल पर लिखा है.