भारतीय पुलिस सेवा का अपना इतिहास है। यह एक गर्वीली सेवा है। मैंने अपने पत्रकारिता के 35 साल के जीवन में अनेक मौक़ों पर आईपीएस अफ़सरों को सेना से भी अधिक सुयोग्य देखा है। लेकिन ताज़ा घटनाक्रम बताता है कि हमारी इस गर्वीली सेवा के अधिकारियों में कितना पतन आ गया है। क्या इस पतित अवस्था के लिए हमारे जीनियस युवा इस सेवा में भर्ती हुए थे? क्या देश और संविधान के प्रति उनका कोई दायित्व नहीं है? क्या वे सिर्फ़ नेताओं की कठपुतली बनने के लिए ही पैदा हुए हैं? क्या ऐसा करना अपने कर्तव्य से द्रोह नहीं?
किसी भी राष्ट्र या समाज की मूलभूत आवश्यकता रूल ऑफ लॉ होती है। यह इसे अक्षुण्ण रखना पुलिस के अधिकारियों का काम है। पुलिस को प्रोफेशनलाइज करना राज्य का दायित्व है, लेकिन अगर राज्य ऐसे लोगों के हाथों में आ जाए, जो सत्ता के लिए छीना झपटी कर रहे हों और उनके लिए संवैधानिक दायित्वों का कोई मतलब न रह जाए तो क्या पुलिस के अधिकारी भी उनके हाथों का खिलौना बन जाएं? ममता बैनर्जी अगर अपनी सत्ता को बचाने और उसे लोकसभा चुनाव में फिर से पाने के लिए सीबीआई के दुरुपयोग पर उतरे कुछ नेताओं के विरुद्ध अगर विद्रोह पर उतर सकती हैं और एक दु:साहसी दुर्गा के अवतार में आ सकती है, तो क्या हमारे जांबाज पुलिस अधिकारी ग़लत को ग़लत नहीं कह सकते? वे क्यों नेताओं का खिलाैना बन जाते हैं?
लेकिन क्या इस राजनीतिक समाज में सिर्फ़ दोषी एक दल है? आप सच्चाई को परखें तो ऐसी कौन सी सरकार है, जो किसी आईपीएस अधिकारी को ठीक से काम करने देती है? कौन सी सरकार है जो दो साल तक न्यूनतम काम करवाने की मर्यादा का पालन करती है? कौनसा मुख्यमंत्री है, जो अपने निजी हित पूरे नहीं होने के बाद भी किसी अधिकारी को दो साल तक उसके पद पर रखता है? कौन सी ऐसी महान पार्टी है, जो मनचाहे डीजीपी को नहीं लगाती है और पुराने को नहीं बदल देती है? क्या ऐसे लोग डीजीपी के पद पर सुशोभित नहीं किए गए जाते हैं, जो अपराधी मंत्रियों को मीटिंग से ही फोन करके उनकी मनपसंद का जांच अधिकारी लगाने की अनुमति लेते हैं? क्या कोई ऐसा गृहमंत्री आया है, जिसने कभी इन्वेटीगेशन और पैट्रोलिंग के लिए अलग-अलग स्टाफ की बात मानी हो? क्या कोई ऐसा मुख्यमंत्री या गृह मंत्री देश में है, जो कानून और व्यवस्था तो चाहता हो, लेकिसी किसी एसपी को थानेदार एक मर्यादित मानदंड से लगाने की इजाजत देता हो?
अगर ऐसे हालात में सीबीआई का दुरुपयोग नहीं हो तो क्या होगा? यह परंपरा किसी ने शुरू की? लेकिन क्या कोई है, जो इस परंपरा का अंत करेगा? सत्ता की झीनाझपटी के इस खेल में अगर किसी तरह हमारी जांबाज भारतीय पुलिस सेवा की मर्यादा कायम हो सके तो बेहतर होगा। लेकिन इसके लिए उन अच्छे लोगों को थोड़ा तो आगे आना होगा। थोड़ी तो अपनी रीढ़ को इस्पाती बनाना होगा। मुझे नहीं लगता कि भारतीय पुलिस सेवा में ऐसे अच्छे अधिकारी नहीं है। इनकी तादाद काफी है, लेकिन इसके लिए उसे अपनी थोड़ा इस मूड में आना होगा : इस अहद-ए-ज़ुल्म में मैं भी शरीक हूँ जैसे मिरा सुकूत मुझे सख़्त मुजरिमाना लगा! दरअसल, जिन जांबाज़ों का काम चारागरों की तलाश का था, उन्हें इस काम लगा दिया गया है कि वे चारागरों को क़त्ल-गाहों के रूप में पेश करें।
कटुसत्य यही है कि सीबीआई का परिंदा गरचे कफ़स में हो और उसके पर-ओ-बाल बंधे हों, लेकिन सियासत के सय्यादों को डर लगा रहता है कि ये ऐसे भी परवाज़ भर सकते हैं।
आज जो इन हालात में भी परवाज़ भरने वाले आईपीएस हैं, उन्हें मेरा सलाम, नमस्ते और सत श्री अकाल!
यह लेख हमने पत्रकार ‘त्रिभुवन’ के फेसबुक वॉल से साभार लिया है.