वैश्विक अर्थतंत्र, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां, पोस्ट ट्रूथ पॉलिटिक्स और युद्धोन्माद…

वैश्विक अर्थतंत्र, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां, पोस्ट ट्रूथ पॉलिटिक्स और युद्धोन्माद…

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में स्नातक की पढ़ाई करने के दौरान किसी मशहूर मैगजीन में एक लेख पढ़ा था. उस लेख में हथियार और उसके कारोबार से जुड़ी राजनीति का जिक्र था कि कैसे हथियार बनाने वाले ही दुनिया भर की सरकारों की नीतियां बनाने-बिगाड़ने का काम करते रहे हैं. जैसे गुटखा बनाकर बेचने वाले ही कैंसर के अस्पताल खोलते हैं. धंधा दोनों जगह चोखा और फंसती है जनता.
आज बात जरा जुदा है और विशेष भूमिका बांधे बगैर मैं आपको एक मौंजू विषय पर एक लेख पढ़ने के लिए कह रहा हूं. लेख पाटलिपुत्रा यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर हेमन्त कुमार झा ने लिखा है. ऐसे समय में जब युद्ध से अधिक युद्ध का उन्माद सड़कों पर दिख रहा हो. वैसे मौके पर समाज के सचेत नागरिकों के लिए जरूरी हो जाता है कि वे भीड़ को उन्मादी होने से रोकने की कोशिश करें. आप भी लेख पढ़ें और काल व परिस्थिति के बारे में जरूर सोंचे…

~यह जो वैश्विक अर्थतंत्र है, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां जिसके शीर्ष पर काबिज हैं, उसकी निरंतरता और उसका फलते-फूलते रहना मुख्यतः दो तथ्यों पर निर्भर करता है। पहला…आपूर्त्ति और मांग में संतुलन और दूसरा…श्रमिक/कर्मचारी वर्ग के समर्थन का बना रहना।

पहले मोर्चे पर कंपनियां संकट में हैं। पूंजी की अकूत उपलब्धता और तकनीक के विकास ने उत्पादन में जिस वृद्धि दर को रेखांकित किया है उस अनुपात में मांग नहीं बढ़ पा रही है। यह बड़ा संकट है जिससे पार पाने को कंपनियां तमाम ज़द्दोज़हद में लगी हैं।

मुश्किल यह है कि उत्पादन और मांग में बढ़ते असंतुलन का संकट नवउदारवाद की उसी आर्थिक सैद्धांतिकी से उपजा है जिसने इन कंपनियों को तो आर्थिक रूप से अतिसमृद्ध किया है किंतु आम लोगों, जो खरीदार हैं, की आमदनी की वृद्धि दर को सीमित किया है।

हम अक्सर ऐसी रिपोर्ट्स से रूबरू होते रहते हैं कि किस तरह आमदनी का असंतुलन बढ़ता जा रहा है और विकास दर के अधिकतम लाभ दो-चार प्रतिशत अमीर लोगों के हिस्से में जा रहे हैं।

तो…उत्पादन के स्रोतों के मालिकान की संपत्ति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही है और इस पूंजी का विनियोग वे उत्पादन बढ़ाने में करते जा रहे हैं, लेकिन…जो खरीदारों का विशाल वर्ग है, उसकी क्रय शक्ति में उस अनुपात में बढ़ोतरी नहीं हो रही है।

नतीजा में…बाजार उत्पादित माल से अटे पड़े हैं लेकिन खरीदारों का अभाव है। यह संकट वैश्विक है, किन्तु भारत में इसके नकारात्मक प्रभाव बहुत अधिक हैं क्योंकि…आमदनी के संकेन्द्रण और बढ़ती आर्थिक विषमता की रफ्तार पूरी दुनिया में सबसे अधिक भारत में ही है।

अभी कुछ महीने पहले, जब दुर्गा पूजा से लेकर दीपावली तक बाजार ने ‘पूजा उत्सव’ मनाया था तो कंपनियों को खासी निराशा हाथ लगी थी। आमतौर पर भारतीय इन पूजा उत्सवों में ही उपभोक्ता सामग्रियों की खरीदारी सबसे अधिक करते हैं। इन अवसरों पर लालच बढाने के लिये बाजार ‘ऑफर्स’ की बरसात करता है। किन्तु…जैसा कि बाजार के खिलाड़ियों ने निराशा में बताया…”पूरे पूजा उत्सव में बिक्री उम्मीद से 40 प्रतिशत कम रही।”

एक मॉल की प्रतीकात्मक तस्वीर

कंपनियों के लिये यह बड़ा झटका था। गोदामों में माल पड़े रह गए। लोगों के पास उतना पैसा नहीं था कि तमाम ऑफर्स का लाभ उठा कर वे अपना घर नई तकनीकों से लैस उपभोक्ता सामग्रियों से भर पाते। ऐसी स्थितियां पिछले कई वर्षों से घनीभूत होती गई हैं और इसके यथासंभव निदान के लिये कंपनियां नित नई चालें चलती रही हैं।

अर्थव्यवस्था जैसे-जैसे मुक्त होती जाती है, बाजार की शक्तियां उसी अनुपात में सत्ता-संरचना में प्रभावी होती जाती हैं। नीतियों का रुख आमलोगों से अधिक कंपनियों के हितों के अनुरूप मुड़ता जाता है।

तो…उत्पादन और मांग का बढ़ता असंतुलन झेल रहे भारतीय बाजार ने ऐसी आर्थिक नीतियों पर जोर दिया जिसमें ‘लिक्विडिटी’ यानी कि ‘तरलता’…यानी कि ‘कैश फ्लो’ को बढ़ाया जाए। भारत सरकार और रिजर्व बैंक में बढ़ते तकरार का यह एक बड़ा कारण रहा है।

‘लिक्विडिटी’ को बढाने के लिये जरूरी था कि बचत को हतोत्साहित किया जाए और खर्च करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जाए।

आमतौर पर भारतीय बचत प्रेमी होते हैं। अपनी जरूरतों को काट-छांट कर भविष्य के किसी गाढ़े वक्त के लिये बचत करना पीढ़ियों से उनके संस्कार में शामिल रहा है।

बाजार प्रेरित नीति-निर्माताओं ने बचत को हतोत्साहित करने के हर संभव उपाय करने शुरू किए। ‘फिक्स डिपॉजिट’ भारतीयों का एक प्रिय रास्ता रहा है बचत के लिये। ब्याज दर घटा कर और परिपक्वता पर टैक्स लगा कर इसे इतना हतोत्साहित किया गया कि आज बचत का यह तरीका सबसे निचले पायदान पर चला गया। इसके बदले ‘म्युचुअल फंड’ का विज्ञापन जोर-शोर से किया जाने लगा जिसमें आमलोगों का पैसा सीधे बाजार की पूंजी बन जाता है और लाभ के साथ ही रिस्क में भी लोग हिस्सेदारी निभाते हैं।

विज्ञापन उपभोक्तावाद का प्रमुख हथियार है जो लोगों की आकाँक्षाओं को उनकी हैसियत की सीमाओं के पार जाने को विवश कर देता है। बैंकों द्वारा आसान शर्त्तों पर उपभोक्ता ऋण उन्हें कर्जदार बनाता जाता है और अपने घरों को अपनी हैसियत से भी अधिक उपभोक्ता सामग्रियों से भरने में लोग मध्यवर्गीय गर्व का अनुभव करते हैं।

“पांव उतना ही पसारिये जितनी लंबी आपकी चादर है”…यह कहावत सदियों से भारतीय लोक संस्कृति का आधार रहा है। लेकिन, बाजार की शक्तियों ने तमाम सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक मूल्यों को बदल डाला। उपभोक्तावाद बाजार का मेरुदंड है और निरन्तर बढ़ता लालच उपभोक्तावाद का आधार। अब पांव पसारने में चादर की लंबाई देखने की संस्कृति हतोत्साहित हो रही है। लालच अब एक मूल्यहीन प्रवृत्ति नहीं।

याद करें वह विज्ञापन, जिसमें कटरीना कैफ के नाजुक होंठों पर स्लो मोशन में किसी शीतल पेय की कुछ बूंदें टपकती हैं और टीवी स्क्रीन पर हर्फ उभरते हैं…”लालच बुरी बात नहीं है”। यह बाजार की संस्कृति का बीज वाक्य है।

कटरीना कैफ कोल्डड्रिंक के विज्ञापन में

बावजूद तमाम हथकंडों के, बावजूद लोगों को कर्जदार बना कर उपभोक्ता सामग्रियां बेचने के…बाजार संकट में है। आमदनी के असमान आनुपातिक वितरण से उत्पादन और मांग का असंतुलन बढ़ता जा रहा है। इसी का एक नतीजा यह भी है कि अंतरराष्ट्रीय स्तरों पर अब ‘न्यूनतम आमदनी’ की अवधारणा पर सोचा जाने लगा है जो बाजार को उबारने में थोड़ा ही सही, लेकिन सहायक हो सकेगा। अपने राहुल गांधी जो न्यूनतम आमदनी की बात कर रहे हैं, यह बाजार की उसी वैश्विक अवधारणा का हिस्सा है।

तो…उत्पादन और मांग के अनुपात में असंतुलन पर वैश्विक अर्थतंत्र की सांसें अटकी हैं। अगर इस विसंगति से पार नहीं पाया जा सका तो वर्त्तमान आर्थिक वैचारिकी का शीराज़ा बिखरने में अधिक देर नहीं लगेगी।

कंपनियों का दूसरा मोर्चा है श्रमिकों/कर्मचारियों का समर्थन बनाए रखना। उत्पादन तंत्र की जो प्रकृति है उसमें श्रमिकों/कर्मचारियों का शोषण किये बिना मुनाफा अनाप-शनाप तरीके से बढ़ नहीं सकता। किन्तु, मुनाफा तो चाहिये, वह भी भरपूर चाहिये। तो…देशों पर जैसे-जैसे बाजार की शक्तियों की पकड़ मजबूत होती गई, श्रम कानूनों में उसी अनुपात में श्रमिक विरोधी संशोधन होते गए। भारत इसका सटीक उदाहरण है जहां सत्ता-संरचना पर कंपनियों का प्रभाव अब कोई रहस्य नहीं रहा। बीते दो-ढाई दशकों में भारत में श्रम कानूनों में जितने ‘सुधार’ किए जा चुके हैं उन्होंने एक अमानवीय श्रम-व्यवस्था का विकास और विस्तार किया है।

कर्मचारियों के संभावित प्रतिरोध की धार को कुंद करने के लिये कानून बना कर उनके संगठनों के अधिकार सीमित किये गए, सेवा शर्त्तों को इस तरह व्याख्यायित किया गया कि शोषण और कम पारिश्रमिक के खिलाफ कोई संगठित आवाज उठ न सके।

सबसे त्रासद रहा राजनीति का जनविरोधी बन जाना। यह कंपनियों की सबसे बड़ी सफलता रही कि उन्होंने राजनीति को हैक कर लिया और अपने हितों के अनुरूप उसे संचालित करने लगे। राजनेता जनता के नेता न रह कर कंपनियों के राजनीतिक ध्वजवाहक बन गए।

राजनीतिक संस्कृति के इस क्षरण ने जनहितकारी विमर्शों को नेपथ्य में धकेलना शुरू किया और उनकी जगह वाहियात विमर्शों को बहस के केंद्र में स्थान दिया जाने लगा। ऐसे विमर्शों को हवा दी गई जो लोगों में भावात्मक विभाजन की पृष्ठभूमि को पुख्ता आधार दे सकें।

नकारात्मक और विभाजनकारी विमर्शों के कोलाहल के इस दौर में श्रमिक-कर्मचारी वर्ग अपने संघर्षों की धार खोने लगा और अंतहीन शोषण का शिकार होने को अभिशप्त हो गया। उनकी नजरों के सामने उनके हितों को दरकिनार कर नीतियां बनती रहीं और वे जाति, धर्म, पहचान आदि की राजनीति में उलझते रहे। उनके हाथों से लोकतांत्रिक राजनीति के सूत्र छिटक कर कब बड़ी कंपनियों के हाथों में चले गए, उन्हें पता भी नहीं चला।

इस मोर्चे पर कंपनियां फिलहाल राहत की सांस ले सकती हैं कि बरास्ते राजनीति, वे श्रमिक/कर्मचारी वर्ग के संघर्षों की धार को भोथरा कर चुके हैं। जरूरत है इस शोषण आधारित उत्पादन प्रक्रिया को बनाए रखने की और विभाजनकारी विमर्शों को हवा देते रहने की…वरना…जन-असंतोष के अलग-अलग द्वीपों का मिलना कंपनी राज का शीराज़ा बिखेर सकता है।

ऐसी नौबत न आने पाए, असंतोष के अलग-अलग द्वीप मिलने न पाएं, इसके लिये ‘पोस्ट-ट्रूथ पॉलिटिक्स’ के सघन होते कुहासे कंपनियों के लिये वरदान साबित हो रहे हैं। वास्तविक सत्य को नेपथ्य में डाल कर कृत्रिम सत्य की प्रतिस्थापना राजनीति के इस स्वरूप की मौलिक प्रवृत्ति है। भारत जैसे निर्धन बहुल देशों से लेकर अमेरिका जैसे समृद्ध देश में हाल के वर्षों में ऐसी राजनीति परवान चढ़ती गई है। तभी तो ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने ‘पोस्ट-ट्रूथ’ को वर्ष 2016 का “वर्ड ऑफ द ईयर” घोषित किया है।अपने मोदी जी और डोनाल्ड ट्रम्प इस पोस्ट-ट्रूथ पॉलिटिक्स की उपज के नायाब उदाहरण माने गए हैं। मोदी जी ने तो अपने पूरे कार्यकाल में ऐसी ही राजनीति की भी है।

तस्वीर क्रेडिट- लाइव मिंट- नरेन्द्र मोदी और डोनाल्ड ट्रंप

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार की हथियार संबंधी नीतियों को देखें तो ‘पोस्ट-ट्रूथ पॉलिटिक्स’ की आड़ में उनका कारपोरेट हितैषी खेल समझ में आने लगता है। जनता में बढ़ रहे युद्धोन्माद के पीछे की साजिशों की परतें भी खुलने लगती हैं।

सत्ता में आते ही मोदी ने युद्धक हथियार निर्माण में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढाने की पैरोकारी शुरू कर दी। उत्पादन के अन्य क्षेत्रों में मांग के संकटों का सामना कर रहा कारपोरेट समुदाय पूरे उत्साह से इस क्षेत्र में कूदा। आनन-फानन में सरकारी नीतियों में परिवर्त्तन किये गए और निजी क्षेत्र के लिये हथियार का ऐसा बाजार पूरी तरह खोल दिया गया जिसमें मांग बढाना कंपनियों के बाएं हाथ का खेल है। बस…साजिशें ही तो करनी हैं। निर्धन लोगों को देशभक्ति के खुमार में गाफिल कर युद्धोन्माद में झोंक देने के लिये कारपोरेट संपोषित मीडिया सहित न जाने कितने दृश्य-अदृश्य उपकरण मौजूद हैं।

तो…कारपोरेट के बड़े-बड़े खिलाड़ी हथियार निर्माण के क्षेत्र में उतरने लगे। टाटा और महिंद्रा अमेरिकी हथियार कंपनियों लॉकहीड मार्टिन और जेनरल डायनामिक्स से मिल कर भारत में संयुक्त उपक्रम स्थापित कर रहे हैं। लार्सन एंड टुब्रो युद्धपोत निर्माण में पूंजी लगाएगा, टाटा लड़ाकू विमान बनाएगा, महिंद्रा इन विमानों के कल-पुर्जे बनाएगा, जबकि बड़े और छोटे अंबानी तो कुछ भी बना सकते हैं। राफेल विवाद यही तो है कि फ्रांस से हथियार डील के 15 दिन पहले छोटे अंबानी ने हथियार कंपनी बना ली और सरकारी कंपनी से काम छीन कर उनकी नई जन्मी कंपनी को अरबों डॉलर के काम सौंप दिए गए। अडानी, मित्तल आदि योजनाएं बना रहे हैं कि रक्षा उपकरणों के निर्माण का कौन सा अध्याय कैसे शुरू किया जाए। बस…उत्पादन करते जाना है, मनमाफिक दाम थोपते जाना है, मांग की तो गारंटी ही है। बस…ऐसे हालात पैदा करने हैं कि राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय हथियार कंपनियों के पौ-बारह होते रहें।

तस्वीर क्रेडिट- न्यूज लॉन्ड्री- युद्ध के लिए ललकारते टीवी के एंकर्स

युद्ध देशभक्ति का उत्सव है और धर्म की छौंक इसे तीक्ष्ण धार देती है। फिर…कौन देखता है कि जिन संसाधनों को बच्चों की शिक्षा और बीमारों की चिकित्सा में लगना था, निर्धनता के उन्मूलन में लगना था, वे कृत्रिम तरीकों से निर्मित युद्धोन्माद की भेंट चढ़ते जा रहे हैं और उनकी जेबें भरते जा रहे हैं जो अपने मुनाफे के लिये जनविरोध के किसी भी स्तर पर जा सकते हैं।

वो उन्माद क्या…जिसमें सही-गलत का भेद नजर आए, अपने ख़िलाफ़ होती साजिशों का अहसास हो पाए। जहां खुफिया और रणनीतिक विफलता दर्जनों जवानों को निरर्थक मौत दे दे और चैनल उनकी शहादतों को निर्लज्ज तरीके से बेचते सर्वनाशी युद्धोन्माद बढाते रहें, जहाँ सत्ता-संरचना ही ऐसे उन्मादों को हवा देकर लोगों की मति को भ्रमित करती रहे…वहां जवानों की शहादत अगर सत्ता प्रतिष्ठान के समक्ष कठिन सवाल खड़े न करे तो इसमें कैसा आश्चर्य?

बहरहाल, देखते रहें, समझते रहें कि…अपना मुनाफा और अपना सर्वग्रासी वर्चस्व बनाए रखने के लिये कंपनियां कौन-कौन से खेल खेलती हैं। हम और आप तो क्या, हमारे नेता तक उनकी गोटी से अधिक की हैसियत में नहीं रह गए हैं।