क्या सच में ट्रांसजेंडर विधेयक उनके खिलाफ है, देश के सेक्स वर्कर्स क्यों हैं सरकार से खफा?

क्या सच में ट्रांसजेंडर विधेयक उनके खिलाफ है, देश के सेक्स वर्कर्स क्यों हैं सरकार से खफा?

हाल ही में संसद में पेश किये गये Transgender Persons (Protection of Rights) Bill, 2018 और Trafficking of Persons (Prevention, Protection and Rehabilitation) Bill, 2018 में मौजूद तमाम कमियों के कारण Coalition of Sex Workers and Sexual Minorities’ Rights की तरफ से देशभर में 28 दिसंबर को National Day of Rage’ के रूप में मनाया!

ट्रांसजेंडर वाले बिल के विरोध में निम्न बातें उठाई जा रही हैं:

  • प्रभावित समुदाय से बिना कोई संवाद किये, प्रतिनिधित्व दिये या सुझाव लिये ये बिल कई मायनों में अधूरा और पक्षपाती होगा!
  • ये बिल NALSA जजमेंट, MSJE रिपोर्ट, तिरुची शिवा बिल और पार्लियामेंट्री स्टैंडिंग कमीटी की सिफ़ारिशों को समाहित नहीं करता और कई जगहों पर इनके विरुद्ध भी जाता है जिसमें ट्रांसजेंडर लोगों के लिए आरक्षण, नौकरी, शिक्षा के अवसर, अपना जेंडर ख़ुद तय करने का अधिकार इत्यादि की सिफ़ारिशें की गयी थीं!
  • इस बिल में राज्य और क्रियान्वयन संस्थाओं, पुलिस द्वारा हिंसा, पीड़ित के परिवार की तरफ से किये गये हिंसा इत्यादि पर कोई स्पष्ट जवाबदेही तय नहीं करती!
  • बिल में ट्रांसजेंडर समुदाय द्वारा अपनाये हुए कुछ पारंपरिक स्रोतों जैसे बच्चा पैदा होने पर उपहार माँगने, संगठित भीख माँगने, सेक्स वर्क इत्यादि को आपराधिक कृत्य मानते हुए 10 वर्ष तक की सज़ा निर्धारित कर दी है वो भी बिना शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य सुविधाओं का अवसर सुनिश्चित किये! इसके अलावा ट्रांसजेंडर लोगों के शादी का अधिकार, बच्चा गोद लेने या संपत्ति के अधिकार पर भी बिल में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं!
  • बिल में समाज द्वारा सामान्यतः निर्धारित स्त्री-पुरुष की तुलना में ट्रांसजेंडर के ख़िलाफ़ किये गये भेदभाव और हिंसा के लिए अपेक्षाकृत कम दण्ड प्रावधान किये हैं!
  • बिल में ट्रेड यूनियन, श्रमिक संघ, सेक्स वर्कर्स या ट्रांसजेंडर समुदाय से कोई सलाह मशविरा नहीं लिया गया! ये बिल भीख माँगकर गुज़ारा कर रहे, असंगठित क्षेत्र में कार्य कर रहे, घरों में नौकरों के रूप में काम कर रहे हाशिये पर ढकेले गये लोगों को और अधिक हाशिये पर ले जायेगा!
  • ये बिल में हार्मोन थेरेपी से जेंडर तय करने को आपराधिक कृत्य बनाता है जो ज़बरन और सहायक थेरेपी में भेद नहीं करता!

देश भर से आए ट्रांसजेंडर और सेक्स वर्कर समुदाय के लोगों ने इस बिल का विरोध जंतर-मंतर पर किया – तस्वीर क्रेडिट- (डेक्कन हेराल्ड)

तस्करी से संबंधित बिल के खिलाफ उठाए जा रहें बिंदु:

  • बिल पहले से ही मौजूद तमाम क़ानूनों जो इसी तरह के मामले देखती हैं, से घालमेल और आच्छादित हो रहा है
  • बिल में कुछ अपराध ऐसे भी शामिल कर दिये गये हैं जो ट्रैफिकिंग से संबंधित ही नहीं हैं!
  • पुलिस और मजिस्ट्रेट को अधिक निर्णायक शक्तियाँ दे दी गयी हैं जिसका दुरुपयोग संभव है! जैसा कि सेक्स वर्क करने वालों के समाज में पहले से ही भ्रम, भ्रान्ति, मिथक काफ़ी प्रचलित हैं जिससे पुलिस और प्रशासन में बैठे व्यक्ति भी अछूते नहीं!
  • बिल इस बात तो नज़रंदाज़ करता है कि मौजूदा ‘प्रोटेक्शन होम’ या पुनर्वास आश्रय (शेल्टर होम) में ही अगर शोषण हुआ या असफ़ल हुए तो सुरक्षा के क्या उपाय होंगे और जवाबदेही कैसे तय की जायेगी! इस बिल में पहले ही मजिस्ट्रेट को जवाबदेही से परे रखते हुए आवश्यकता से अधिक विवेकाधिकार दे दिये हैं!
  • बिल  ट्रैफिकिंग के बाद ज़बरन या मजबूरी में किये/करवाये जा रहे सेक्स वर्क और स्वेच्छा से सेक्स वर्क में अंतर नहीं करता जो कि ग़लत है!
  • ये बिल तस्करी से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनी प्रावधानों के अनुरूप नहीं जिसमें मानवाधिकार और पीड़ित को केंद्र में रखा जाता है!

आइये इन दोनों बिल्स के इन मुद्दों पर थोड़ा विस्तार से चर्चा करते हैं!

चर्चा से पहले कुछ तथ्य भी हमें जानने चाहिए जैसे:

  • ILO के मुताबिक़ तस्करी किये गये लोगों में से 80 फीसदी महिलायें और लड़कियाँ हैं और उसमें से भी 50% नाबालिग होती हैं!
  • नेशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो (भारत) के मुताबिक़ पिछले 5 सालों में मानव तस्करी दो गुने से अधिक बढ़ी है! और तस्करी की गयी लड़कियों में से एक चौथाई यौनशोषण के लिए गयीं!
  • भारत में साल 2016 में कुल 8132 मानव तस्करी के केस रिपोर्ट हुए! क़रीब 58% नाबालिग़ थे! हर दिन क़रीब 63 विक्टिम छुड़ाये गये अर्थात 23000 विक्टिम्स को रेस्क्यू किया गया साल 2016 में!

सहमति से वयस्क सेक्स वर्क भारत में ग़ैरक़ानूनी नहीं है अगर यह महिला द्वारा अपने घर में बिना किसी एवज़ में किया जा रहा हो तो! इसलिए ज़रूरी है कि बिल में स्वेच्छा से सेक्स वर्क और ट्रैफिकिंग में अंतर स्पष्ट हो! यही एक वजह है जिससे सेक्स वर्कर्स में डर पैदा कर रहा है! इसलिए उनकी मुख्य मांग है कि बिल में से ‘वयस्क स्वैच्छिक सेक्स वर्क’ को आपराध की श्रेणी से बाहर निकाला जाये! National Network of Sex Workers (NNSW) ने इस बाबत राज्यसभा के चेयरमैन वेंकैया नायडू को एक पत्र लिखकर बिल को स्टैंडिंग कमेटी में भेजने की सिफ़ारिश की है ताकि बिल पर एक बार पुनः बहस हो सके!

सेक्स वर्कर्स एक एक मांग ये भी है कि ट्रैफिकिंग से छुड़ाकर पुनर्वास केंद्र भेजे जाने से पहले छुड़ायी जा रही महिलाओं से उनकी सहमति लेना अनिवार्य किया जाये कि वो जाना भी चाहती हैं कि नहीं! क्योंकि ये बात सेक्शन 17 के क्लॉस 4 में पूरी तरह मजिस्ट्रेट के ऊपर छोड़ दिया गया है! सेक्स वर्कर्स के एक ग्रुप वेश्या अन्याय मुक्ति परिषद् (VAMP) और NGO संगम ने 2005-2017 के बीच किये गये सर्वे में 79% “रेस्क्यू” की गयी सेक्स वर्कर्स ने कहा कि वो स्वयं “रेस्क्यू” होना नहीं चाहती थीं क्योंकि वो अपनी मर्ज़ी से इस व्यवसाय में थीं! NNSW की लॉयर आरती पाई के अनुसार ये बिल क़ानून लागू करने वाली एजेंसियों के हाथ में सेक्स वर्कर्स को परेशान करने का हथियार बन जायेगा!

एस. जाना (सुप्रीमकोर्ट द्वारा सेक्स वर्कर्स के सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित करने के सिफ़ारिश करने के लिए बनाई गयी कमेटी की एक मेंबर) के अनुसार “एकल महिला सेक्स वर्कर द्वारा चल रहे घरों पर बुरा असर पड़ता है अगर रेस्क्यू की गयी ऐसी महिलाओं को पुनर्वास केंद्र भेजा गया तो”.

इस कमेटी ने ये भी सुझाव दिया था कि जो वयस्क सेक्स वर्क में ही संलग्न रहना चाहती हैं उन्हें भी राशन कार्ड, उनके बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार, क्रेश की सुविधा, रात-दिन केयर सेंटर की सुविधायें दी जानी चाहिए! कमेटी ने ये कहा कि रेस्क्यू की गयी महिलाओं को पुनर्वास केंद्र में ज़बरन रखा जाना मानवाधिकारों का हनन है! रेस्क्यू किये जाने वाली महिलाओं को ये विकल्प दिया जाना चाहिए कि वो अपने घरवालों के साथ फिर से रहना चाहती हैं या पुनर्वास आश्रय में! इस कमेटी ने ये सुझाया था कि रेस्क्यू की गयी महिलाओं के सामुदायिक पुनर्वास के लिए एक बोर्ड बने जिसमें सेक्स वर्कर्स की तरफ से प्रतिनिधित्व हो, एक डॉक्टर हो, एक लॉयर हो, राज्य सरकार के प्रतिनिधि हों! ये बोर्ड रेस्क्यू की गयी महिलाओं के शिक्षा, रोज़गार, ट्रेनिंग आदि की समीक्षा करेगा! लेकिन मौजूदा बिल में इस कमेटी की सिफ़ारिशें भी नहीं मानी गयीं!

एक एक्टिविस्ट के शब्दों में “नए बिल में पुलिसिंग और सर्विलांस पर अधिक फोकस है लेकिन सर्वाइवर के कल्याण के लिए बहुत कम बातें हैं”.

ITPA (The Immoral Traffic (Prevention) Act) में कुछ अच्छे प्रावधान थे जैसे कि मजिस्ट्रेट रेस्क्यू की गयी महिलाओं की पृष्ठभूमि भी चेक करेगा ये तय करने के लिए कि कितने समय के लिए पुनर्वास के लिए भेजा जाना चाहिए! दूसरे ITPA ने पुलिस को अधिकतम 21 दिन दिये थे पुनर्वास में भेजने के लिए लेकिन इस बिल में कोई अवधि नहीं दी गयी है बस इतना भर कह दिया गया है कि मजिस्ट्रेट द्वारा तय किये गये Reasonable अवधि तक पुनर्वास में रहना होगा. इस हिसाब से किसी-किसी को हमेशा के लिए डिटेंशन में रहना पड़ सकता है! क्योंकि मजिस्ट्रेट भी तो पक्षपाती हो सकता है!

ख़ुद पुनर्वास केन्द्रों में लापरवाही (और इसके लिए सज़ा) के बारे में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है बिल में! पुनर्वास केन्द्रों में होने वाले शोषण और पूर्वाग्रह आधारित जेंडर-भेदभाव के बारे में किससे छिपा है!

यहाँ एक बहस हैं जिसके दो पक्ष हैं. दोनों अपनी जगह सही भी हैं और ग़लत भी हैं! एक कहता है कि सेक्स वर्क को क़ानूनी बना देना चाहिए और दूसरा कहता है कि सभी तरह की वेश्यावृति को सिरे से ख़त्म कर देना चाहिए क्योंकि ये अंतर्निहित रूप से शोषणकारी और स्त्रीद्वेशी हैं! इसमें दूसरा ओपिनियन सभी सेक्स वर्कर्स को विक्टिमाइज़ कर देता है बिना उनकी सहमति, उनकी मर्ज़ी अथवा उनकी एजेंसी को ध्यान में रखे! इसमें समस्या ये है कि बहुत सारी रेस्क्यू की गयी सेक्स वर्कर्स ने ख़ुद स्वीकार किया है कि वो इस धंधे में अपनी मर्ज़ी और सहमति से हैं! लेकिन यहीं पर पहली ओपिनियन कहती है कि ये कौन साबित करेगा कि उनकी सहमति, मर्ज़ी अथवा एजेंसी ‘फ्री विल’ (स्वतंत्र इच्छा) पर आधारित है? कौन तय करेगा कि उनकी चॉइस बिना किसी मजबूरी या परिस्थिति के है? क्योंकि तमाम सामाजिक समस्यायें ऐसी चॉइस तय करती हैं जहाँ सेक्स वर्क करना अपेक्षाकृत कम शोषणकारी होता है! तस्करी की गयी महिलायें काफ़ी समय बाद ख़ुद भी महसूस करने लगती हैं कि उनके पास उनकी एजेंसी है! ऐसी स्थिति में ‘स्वेच्छा’ की परिभाषा विवादित नज़र आती है! हालांकि सहमति, स्वेच्छा, ज़बरदस्ती तय करना इतना आसान नहीं होता फिर भी इन दोनों परिप्रेक्ष्यों को देखने बाद भी कहा जा सकता है कि ‘कौन विक्टिम है और कौन नहीं’, ये बात तय करने का अंतिम अधिकार ‘विक्टिम’ पर ही छोड़ देना चाहिए!

बिल में ट्रैफिकिंग से संबंधित अपराधों का स्तरीकरण (ग्रेडेशन) अतार्किक है! होना तो ये चाहिए जो जितना गंभीर अपराध उसकी उतनी कड़ी सज़ा लेकिन इस बिल में यहाँ झोल है! जैसे भीख माँगने के उद्देश्य से की गयी ट्रैफिकिंग को गंभीर श्रेणी में डाला गया है जबकि यौनशोषण के लिए किया गया ट्रैफिकिंग बस ट्रैफिकिंग हैं! तब जबकि यौनशोषण ही ट्रैफिकिंग का सबसे बड़ा कारण है! इसी तरह देखा जाये तो दासता और गुलामी करवाने के उद्देश्य से की गयी ट्रैफिकिंग बहुत गंभीर श्रेणी में आना चाहिए लेकिन इस बिल में इसे गंभीर श्रेणी में नहीं रखा है!

क़रीब दर्ज़नभर सरकारी संस्थाओं को इस समस्या के विभिन्न पक्षों को डील करने के लिए अधिकृत करेंगे तो ज़िम्मेदारी तय नहीं हो पाएगी सही से, और ब्यूरोक्रेटाइज़ेशन बढ़ेगा! और ऊपर से इनमें से किसी भी संस्था में प्रभावित समुदाय से प्रतिनिधित्व का कोई प्रावधान किया ही नहीं गया है इस बिल में! हर सेक्स वर्कर को अगर ट्रैफिकिंग के दायरे में देखेंगे (जो कि ये बिल देखता है) तो मनोवैज्ञानिक तौर पर एक अपराधबोध पैदा होगा इससे जुड़ने पर और क़ानूनी डर भी और ये अंततः सार्वजनिक पहचान का संकट खड़ा करते हुए स्वास्थ्य संबंधी नुकसान पहुँचायेगा!

ट्रैफिकिंग की समस्या को हमेशा ग़रीबी, जीविका, विस्थापन और सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए देखना चाहिए! ट्रैफिकिंग के मूल कारणों को ख़त्म करो अन्यथा जितनों को रेस्क्यू करेंगे उससे कहीं अधिक उसके शिकार होंगे! और ये बात नेशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो की पिछले 5 सालों के डाटा से भी साबित होती है! ट्रांसजेंडर के संबंध में सबको मालूम है कि कई ट्रांस जेंडर समुदायों में संगठित भीख माँगना एक पारंपरिक आर्थिक वृत्ति रही है जैसे हिजड़ा समुदाय बच्चों के पैदा होने पर ये काम करता रहा है अथवा पब्लिक ट्रांसपोर्ट में लोगों से पैसे माँगते देखे जा सकते हैं! इसे इस बिल में अपराध घोषित कर दिया गया है (10 साल की सज़ा के साथ) जबकि उनके रोज़गार के अन्य विकल्प  जैसे (क्षैतिज आरक्षण) दिये बगैर.

यह आलेख द बिहार मेल के लिए ताराशंकर ने लिखा है. उन्होंने जेएनयू से महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध विषय पर पीएचडी की  है, फिलहाल वह डॉ. भीमराव अंबेडकर कॉलेज में जियोग्राफी के शिक्षक हैं.