तारीख तीन फरवरी. कश्मीर विश्वविद्यालय में चिनार के पेड़ों के ऊपर एक भी पत्ता मुश्किल से ही दिखता है, नीचे पड़े पत्तों पर थोड़ा–थोड़ा कोहरा जमा है और जहां धूप नहीं आ पाती, वहां अब भी हल्की–हल्की बर्फ की परत बिछी हुई है. सामने पहाड़ है जिस पर भी बर्फ की चादर सी बिछी हुई है, रह–रह कर काले कौओं की आवाज सुनाई देती है. यहां कौए काफी संख्या में हैं.
पांच अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद पहली बार कश्मीर विश्वविद्यालय में तीन फरवरी को क्लासेस सही तरीके से बहाल हुई हैं. यानी करीब छह महीने के बाद. छह महीने बाद विश्वविद्यालय इतनी संख्या में स्टूडेंट्स की रौनक देख रहा है. जान–पहचान वाले चेहरों को देखकर स्टूडेंट्स रूकते हैं, गले–मिलते हैं और कश्मीरी में पूछते हैं (ठीक पैठ असलपैठ– आप ठीक हो अच्छे से और जवाब आती है– अल्हम्दुलिल्लाह)

विश्वविद्यालय में एम ए-प्रथम वर्ष की छात्रा फौजिया (बदला हुआ नाम) अपने क्लास में बैठकर किताब के पन्ने पलट रही हैं और बीच–बीच में कुछ मार्क कर रही हैं. वह कहती हैं कि दरअसल कुछ समझ में नहीं आ रहा कि कहां से शुरू करूं. इस सेमेस्टर में कोई पढ़ाई नहीं हुई. सीधे परीक्षा देना भी सही नहीं लगता है, ऐसे कौन पढ़ाई करता है. इसलिए टीचर और स्टूडेंट्स सभी पहले पढ़ाने–पढ़ने पर सहमत हुए हैं, उसके बाद परीक्षा होगी. हालात इतने बुरे थे कि हमने शुरू में तो घर पर भी पढ़ाई नहीं की.
इसी बीच उनसे एक और छात्रा मिलने आती है. फौजिया उससे गले मिलती हैं और हालचाल पूछती हैं जिस पर वह कहती हैं–हम बहुत डिप्रेस्ड हुए. कुछ समझ नहीं आ रहा किताब में. इतने महीने बाद मेरा मन अब पढ़ने को भी नहीं हो रहा. फिर वह क्लासेस और टीचर्स के बारे में बात करने लगती हैं.
इतने महीनों बाद विश्वविद्यालय आए स्टूडेंट्स के चेहरे पर खुशी साफ दिखती है लेकिन वह अफसोस के साथ बताते हैं कि उनके क्लासेस में आधे से भी कम स्टूडेंट्स आए. इस बीच कई स्टूडेंट्स घाटी छोड़ अन्य जगहों पर चले गए. जो यहां हैं उनका कहना है कि उन्हें अपना भविष्य कहीं से भी समझ में नहीं आ रहा. वहीं कुछ यह कहते हैं कि यहां कौन जानता है कि कल फिर कुछ हो जाए और क्लासेस बंद हो जाए.
करीब 15 किलोमीटर दूर से आज विश्वविद्यालय आने वाली राबिया (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि इन छह महीनों में अक्सर उनके मन में यह ख्याल आया कि वह कभी विश्वविद्यालय का मुंह नहीं देख पाएंगी. लेकिन आज यहां पहुंचकर काफी खुश हैं लेकिन क्लास खत्म होने के बाद उन्हें अपने मकान मालिक से मिलने जाना है.

वह बताती हैं, ‘‘ विश्वविद्यालय से मेरा घर काफी दूर है. इसलिए यहीं कमरा ले लिया था. जुलाई आखिरी सप्ताह तक यहां कई तरह की बातें चलने लगीं थी लेकिन मैंने इसे अफवाह ही माना था. घरवालों ने कहा भी था कि वापस आ जाओ लेकिन मैंने उन्हें भी बोला कि अफवाह है कुछ नहीं होने वाला. वह मुझे बार–बार कहते रहे लेकिन पहले ही पढ़ाई कम हुई थी तो मैं यहीं रूकी. लेकिन 5 अगस्त को हालात इतने बुरे हो चले थे कि स्टूडेंट्स ने प्रशासनिक भवन के सामने प्रदर्शन किया, उसके बाद कहीं जाकर हमें यूनिवर्सिटी की गाड़ियों से घर छोड़ने की व्यवस्था हुई क्योंकि फोन बंद हो गया, नेट बंद हो गया और फिर हम कैसे घर पहुंचे, वह तो अल्लाह ही जानता है.’’
राबिया को अभी करीब 30 हजार रुपये मकान मालिक को देने हैं, जहां वह पिछले छह महीने से रह नहीं रही थीं. इस पर वह कहती हैं,‘‘शुरुआती महीनों में तो फोन ही नहीं चले, हमें तो बस अपनी जान की फिक्र थी तो मकान मालिक से बात करना संभव नहीं था. जब बात भी हुई तो सोचा क्या पता क्लासेस कब शुरू हों और फिर वैसा कमरा हमें मिले या न मिलें क्योंकि यहां इतनी तरह की पाबंदियां होती हैं कि आप सिर्फ उसका अंदाजा ही लगा सकते हैं. अब बस मकान मालिक से बात करके देखेंगे कि वह कितना कम करते हैं. वह शायद हमारी स्थिति को समझेंगे.’’

विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में दीवारों पर स्टूडेंट्स ने जो नोट चिपकाएं हैं, उससे ऐसा लगता है कि यहां एमिली ब्रोंटे की किताब ‘वुदरिंग हाइट्स’ से स्टूडेंट्स को काफी प्रेम है. हो भी क्यों न, कोई भी अंग्रेजी साहित्य का स्टूडेंट हीथक्लिफ और कैथरीन के प्रेम से कहां बच पाता है. दीवार पर लगे बोर्ड के ठीक ऊपर लिखा है, ‘ओ कैप्टन माय कैप्टन’. यह कविता अमेरिकी कवि वाल्ट व्हिटमैन की है.
इसी दौरान हमारी मुलाकात पेटिंग बनाने वाली शाजिया (बदला हुआ नाम) से होती है. उनसे जब पिछले छह महीनों में पेंटिंग पर चर्चा होती है तो वह कहती हैं,‘‘मुझे हमेशा चटख रंगों से पेंटिंग बनाना अच्छा लगता है. मैं कभी–कभार डार्क रंगों का इस्तेमाल करती थी. लेकिन इन महीनों में मैंने खुद में यह फर्क पाया है कि मेरे कैनवस से चटख रंग ही गायब हो गए हैं, अब मेरी इच्छा उन रंगों के इस्तेमाल की होती ही नहीं है. इन छह महीनों में हमारे दिलो–दिमाग पर क्या असर पड़ा है, उसके लिए शब्द नहीं है. मैं बस पागलखाने नहीं गई हूं, यही काफी है.’’
इन छह महीनों में खास तौर पर लड़कियों ने क्या किया. इस पर जब आफरीन (बदला हुआ नाम) से बात होती है तो वह कहती हैं, ‘‘मैं अपनी बात करूं तो मैंने घर का काम किया. खाना बनाना सीखा और भी काम होते हैं घर में वह सब करना शुरू किया और टीवी देखा. शुरुआत के दो महीनों में किताब भी नहीं खोली और फोन को मैंने किया था अलमारी में बंद. 21वीं सदी में फोन हमारी जिंदगी से गायब हो गया था. ऐसा लगता था कि क्या सोचूं, कहां जाऊं? इतना खालीपन और इतनी ज्यादा नाउम्मीदी कभी महसूस नहीं हुई थी. अल्लाह पाक की कसम हम बहुत परेशान हुए.’’
ऊर्दू साहित्य की एक छात्रा हंसते हुए कहती हैं कि आपने वह गाना सुना है नुसरत फ़तेह अली ख़ान साहब का (शब–ए–गम की सहर नहीं होती, हो भी तो मेरे घर नहीं होती. ज़िन्दगी तू ही मुख्तसर हो जा, शब–ए–गम मुख्तसर नहीं होती) हमारी जिंदगी ऐसी ही हो गई है. सियासत समझ नहीं आती मुझे ज्यादा लेकिन मजहबी हूं तो यह पता है कि इन महीनों में मैंने खुद को बहुत तकलीफें दी हैं, बहुत अज़ाब ( पाप के बदले मिलने वाली तकलीफ) लिया है मैंने. एक संघर्ष है हमारा और हम उसकी कीमत चुका रहे हैं.

छात्राओं की बातों में जो शब्द सबसे ज्यादा इस्तेमाल किए जा रहे हैं, वह है ‘डिप्रेशन, हालात खराब, पढाई बर्बाद और क्या होगा हमारा’. इस तरह से अधर में लटके रहना युवाओं को किस उदासी और हताशा में ले जाता है, वह बस सोचा ही जा सकता है. रही बात लड़कियों की वह तो किसी से छुपी नहीं है कि उन्हें यूनिवर्सिटी गेट तक पहुंचने के लिए ही कितनी सारी चीजों से गुजरना पड़ता है, जब छह महीने पूरी तरह से पढ़ाई बर्बाद हो तो दोबारा कितनी लड़कियां पढ़ाई जारी रख पाएंगी, यह बहुत बड़ा प्रश्न है. इस प्रश्न का जवाब कोई देने वाला फिलहाल तो नहीं दिखता है.
लड़कियां आपस में यूनिवर्सिटी के पेड़ों के बारे में बात करती हैं कि जब वह यहां से गईं थीं तो पेड़ों पर कितनी हरी पत्तियां थीं और अब जमीन पर सिर्फ सूखे पत्ते ही पड़े हैं…
नोट: यह ब्लॉग स्नेहा ने लिखा है. वह पेशे से पत्रकार हैं.