किशनगंज लोकसभा: कोई है जो डाकपोखर के ‘डाक’ को दिल्ली तक पहुंचाए…

किशनगंज लोकसभा: कोई है जो डाकपोखर के ‘डाक’ को दिल्ली तक पहुंचाए…

सीमांचल (बिहार) का एक जिला है किशनगंज. अपनी भाषाई व धार्मिक विविधता और कई अन्तर्विरोधों की वजह से प्रदेश की दलीय राजनीति के लिहाज से एक बेहद उर्वर क्षेत्र. यहां सभी दलों ने अपनी-अपनी रोटियां सेंकी हैं लेकिन किसी ने भी डाकपोखर के डाक (जल समस्या) की परेशानी को दूर करने की कोशिशें न कीं.

इसी सीमांचल (किशनगंज) का एक प्रखंड है टेढ़ागाछ. अपने नाम की तरह ही टेढ़ा. यहां का जनजीवन, सड़कें, स्कूल, खेत व खलिहान किसी की आस में हैं. पूरा प्रखंड कनकई और रेतुआ नदी के जद में है. उसी के सहारे अपनी दाल-रोटी के लिए जद्दोजहद करता हुआ. जहां बच्चों का पढ़ने के लिए संघर्ष करना अपने आप में एक जंग है.

टेढ़ागाछ- अपने नाम के अनुरूप बिल्कुल निराश नहीं करता

टेढ़ागाछ प्रखंड का ही एक पंचायत है डाकपोखर. बाकी पंचायतों जैसे मटियारी, झुनकी, चिलहनिया, लोचा तक पहुंचने के लिए अदम्य इच्छाशक्ति चाहिए होगी. जिला मुख्यालय से यहां आने के लिए अररिया जिले के जोकी व पलासी को पार करना होगा. आजादी के सत्तर साल पूरे होने के बावजूद यह पूरा इलाका बेसिक चीजों से मरहूम है. कायदे की सड़क और पुल तक नहीं. लोग अभी भी प्रखंड में यहां से वहां जाने के लिए ‘चचरी पुल – बांस के पुल’ ही एक मात्र सहारा हैं. बरसात के दौरान तो स्थितियां और भी खराब हो जाती हैं. लोग खुद को और अपनी गाड़ियों को नाव पर लादकर नदी पार करते हैं.

इस बार के लोकसभा चुनाव में यहां महागठबंधन ने कांग्रेस के डॉ जावेद को टिकट दिया है. वे किशनगंज से ही विधायक हैं. एनडीए गठबंधन ने जद (यू) के महमूद अशरफ को अपना उम्मीदवार बनाया है. हालांकि किशनगंज लोकसभा से इस बार ओवैसी की पार्टी ने भी अपना उम्मीदवार उतारा है. इस उम्मीदवार का नाम अख्तरुल ईमान है.

टेढ़ागाछ ब्लॉक में सड़क किनारे खड़ी प्रचार गाड़ी और पतंद लूटते बच्चे- बच्चों के तन पर कायदे के कपड़े तक नहीं

इसी कनकई नदी पर बने चचरी पुल को पार करती हुई अफसाना बेगम हमसे बातचीत में कहती हैं कि वह पेशे से रसोइया हैं और उन्हें इस रास्ते से आने-जाने में खासी परेशानी होती है. वो वोट तो देती हैं लेकिन सरकार उनके लिए कुछ नहीं कर रही. फाड़ाबाड़ी गांव के रहने वाले और मजदूरी करने वाले मोहम्मद जाहीद कहते हैं, “बाबू बस जिंदगी जी रहे हैं, कोई पूछने वाला नहीं. किसानी नहीं है, कहीं मजूरी नहीं मिल रही. सब आते हैं (नेता), खूब वादा करते हैं लेकिन परिणाम ढाक के तीन पात. फिर भी वोट तो करबे करेंगे.”

ऐसे में सवाल उठते हैं कि क्या सीमांचल में कोई ऐसा है कि जो डाकपोखर की डाक सुन सके? उसकी आवाज को पटना और दिल्ली में बुलंद कर सके? आजादी के 70 साल बाद डाकपोखर कुछ अधिक भी तो नहीं मांग रहा? आखिर वहां के लोग लगातार सांसद और विधायक चुनते ही रहे हैं. लगातार वोट करते ही रहे हैं. इस इलाके के बच्चे भी अच्छी स्कूली शिक्षा के साथ ही कायदे की सड़क और पुल तो डिजर्व करते ही है ना, कि नहीं?

उक्त रिपोर्ट ‘द बिहार मेल’ के लिए ग़ालिब ने लिखी है. वे जनआंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय से सम्बद्ध हैं और पूर्व में शिक्षा अधिकारी रहे हैं. इसे रिपोर्ट को संपादित ‘द बिहार मेल’ के घुमन्तू संपादक विष्णु नारायण ने किया है…