एक बार ऐसा हुआ कि मैं अपनी बीमारी, मां की बीमारी और कहें तो आस–पास की बीमारी से भाग करके पहाड़ गई. जहां जा रही थी, वहां के बारे में भी पता था कि वह एक अस्पताल है. पहाड़ में अस्पताल क्यों गई, इसका जवाब खुद को भी नहीं पता. बस इतना मालूम है कि मां की जब तबीयत बहुत खराब हुई थी तब पेड़ों से बहुत पत्ते गिर रहे थे और पेड़ो पर नई पत्तियों के आने का जश्न भी साथ में चल रहा था. एम्स से घर तक रोजाना बस पत्तों का रंग देखते हुए आती थी मैं और सोचती थी कि देश में अस्पताल की बहुत जरूरत है. एम्स में बैठकर रोजाना दो–चार लोगों के फॉर्म भर देना और उन्हें सही विभाग तक पहुंचा देने पर लगता था कि आज कुछ ढंग का काम किया है. बस अंदर ही अंदर मन जल रहा था, ऐसा हर पल लग रहा था कि यह दुनिया क्यों है? बस मन करता था कि यह डॉक्टरों के चक्कर खत्म हो तो कहीं–किसी नदी में जाकर ठंडे पानी में खूब नहा लूं. एक दिन यह चक्कर खत्म हुआ और मैं पहाड़ जाने के लिए पागल हो गई. और फिर वहां के एक अस्पताल में पहुंच गई.
अस्पताल कैसा होता है? यह भी कोई बताने की बात है. मैं मरीजों से बात कर रही थी. मरीजों को कुछ देर के लिए लगा कि मैं डॉक्टर हूं. लेकिन फिर परिचय हुआ और बातचीत हुई. इसी बीच मैंने करीब 22-25 साल के एक लड़के को एक लड़की को गोदी में झुलाते हुए आते देखा. दोनों हंस रहे थे. और लड़का कुछ इस तरह लड़की को झुलाते हुए ला रहा था कि लग रहा था कि लड़की के शरीर में वजन ही नहीं है. ऐसा लगा कि किसी बॉलीवुड गीत पर दोनों झूम रहे हों. मैं दूर से ही उन्हें देखकर मुस्कुरा दी. मुझे लगा कि लड़का मजाक– मजाक में लड़की को उठाए हुए है और कुछ देर में लड़की उसकी बाहें छोड़ खुद खड़ी हो जाएगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. लड़की को बड़े ही आराम से लड़के ने खाली पड़े बेड पर रखा और उसके पैर पर फीजियो वाली कोई मशीन लगा दी. लड़का उस लड़की से शांति से मुस्कुराते हुए कुछ बातें कर रहा था. मैंने सोचा जाकर उनसे बात की जाए. बातों ही बातों में पता चला कि यह दोनों पति–पत्नी है. और लड़का मुंबई में काम करता था और लड़की पहाड़ में रहती थी.
एक दिन ऐसा हुआ कि पेड़ की टहनियां काटने लड़की पेड़ पर चढ़ी और गिर गई. उस दिन से वह उठ नहीं पाती है. लाखों रुपये इधर–उधर खर्च करने के बाद अब वह फिलहाल रुद्रप्रयाग में हेल्पएज अस्पताल में इलाज कराती है. लड़के ने अपनी नौकरी छोड़ दी और लड़की की सेवा में लग गया. इन दोनों को देखकर लगता है कि प्रेम अभी जिंदा है और उसका आसमान काफी व्यापक और विस्तृत है. लेकिन इनकी परेशानियों को देखकर लगता है कि हम कितना फंसे हुए हैं. हम आधुनिकता की बात करते हैं, एक विकसित समाज की बात करते हैं लेकिन एक तथाकथित आधुनिक और विकसित समाज में एक इंसान अपना इलाज कराने के लिए लाचार रहे, अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा न दे पाए, अच्छा खाना न खा पाए तो फिर विकास की परिभाषा क्या है और इस विकास के दायरे में कौन लोग आते हैं?
पहाड़ के लोगों से बात करते हुए ‘विकास’ शब्द बार-बार आता है. उनका कहना है कि अगर रुद्रप्रयाग में कोई गंभीर रूप से बीमार पड़ जाए तो उसे देहरादून या हरिद्वार ले जाना होता है. इलाज के अलावा पढ़ाई और नौकरी के लिए बाहर जाना ही होता है. पहाड़ के दूर-दराज में कई ऐसे गांव हैं जहां कोई युवा नहीं रहता, सभी बुजुर्ग हैं. गांव के गांव खाली हो चुके हैं और पहाड़ विकास कर रहा है. हमारे यहां घूमने की भी पहली शर्त ज्यादातर लोगों के साथ यही है कि वह अपना कमरा साथ लेकर चलते हैं बोले तो वह जैसी जिंदगी दिल्ली में चाहते हैं, वैसी ही जिंदगी पहाड़ में चाहते हैं. हम अभी तक घूमने के मकसद को समझ ही नहीं पाए और हम महज सीधे शब्दों में एक अदना सा पर्यटक होकर रह गए.
मैदान में रहनेवाले हम जैसे लोग अक्सर शांति और खुशी की तलाश में पहाड़ जाते हैं और पहाड़ियों की सादगी और भोलेपन पर मर मिटते हैं. अब पहाड़ खत्म हो रहा है. दरअसल यह खत्म होना बहुत पहले शुरू हो चुका है. जिसके बारे में लेखक ‘अज्ञेय’ ने लिखा भी था-
नंदा,
बीस–तीस–पचास वर्षों में
तुम्हारी वनराजियों की लुगदी बनाकर
हम उस पर
अखबार छाप चुके होंगे
तुम्हारे सन्नाटे को चीर रहे होंगे
हमारे धुँधुआते शक्तिमान ट्रक,
तुम्हारे झरने–सोते सूख चुके होंगे
और तुम्हारी नदियाँ
ला सकेंगी केवल शस्य–भक्षी बाढ़ें
या आँतों को उमेठने वाली बीमारियाँ
यह सब शुरू हो चुका है. इसे शुरू हुए वर्षों हो गए हैं. कल-कल बहती नदियों पर कुछेक किलोमीटर पर पनबिजली प्रोजेक्ट चल रहा है, यह सब हमारे घूमने के साथ-साथ चलता रहता है. आप संवेदनशील हैं पहाड़ों के लिए तो आप विकास विरोधी बताए जा सकते हैं. विनाश विरोधी लोग विकास विरोधी कहलाएंगे, यही सच्चाई है. इसके अलावा कुछ नहीं. बस पहाड़ घूमिए और पहाड़ के सीने पर चल रहे जेसीबी मशीन को देखिए और कुछ नहीं बस इतना ही…
1 Comment
पवन कुमार सिंह November 13, 2019 at 3:22 pm
हिंन्दुस्तान समाचार न्यूज एजेंसी में उत्तराखंड का मैं प्रभारी था, मैं आपकी तरह ही यूके के पठारी और पहाड़ी क्षेत्रों को महसूस किया है. इनकी काफी चुनैतिया, हम लोगो के गाँवों में दो तीन दिन बिजली गम हो जाए तो लोग सिर पर आसमान उठा लेते हैं. यहां तो एक बार बिजली कटी तो समझिए की हप्ते दस दिन के लिए गई. और भी कई चीजे हैं. आपने खूब लिखा है.