हिरावल जन संस्कृति मंच की ओर से बिहार के पटना शहर में तीन दिवसीय फिल्मोत्सव का आयोजन किया गया. तीन दिवसीय इस फिल्मोत्सव में जहां एक ओर खेती-किसानी, गरीबी, भूख जैसे सामाजिक मुद्दों को तरजीह दी तो वहीं दूसरी ओर बाल सिनेमा को भी केंद्र बनाया गया.
प्रतिरोध का सिनेमा, पटना 2009 से लगातार आयोजित होता आ रहा है. इसके जरिये राजधानी पटना में फिल्म और नाटक क्षेत्र के प्रति लोगों के झुकाव को बढ़ावा दिया जाता है. इस फिल्मोत्सव ने एक ऐसा मंच तैयार किया है जहां साहित्य, सिनेमा और नाटक का कुनबा एक छत के नीचे एकत्रित होकर विचारों का आदान-प्रदान करता है.
हालांकि इस साल कोविड-19 महामारी के कारण यह फिल्मोत्सव अपने तय समय से न होकर फरवरी के महीने में हुआ. आपको बता दें कि यह फिल्मोत्सव आरंभ से ही साल के अंतिम महीने में आयोजित होता था.
आयोजक मंडली से संतोष सहर ने कहा कि 70-80 के दशक में भी भूमिका, चक्र, आक्रोश जैसी फिल्में आती थी जो समाज को जागरूक करती थीं. ये फिल्में समाज के निम्न वर्ग से जुड़ी रोटी और भूख की समस्या उजागर करती थी. उन्होंने कहा कि बीच के समय में सामाजिक सरोकार वाली आर्ट फिल्मों को चलन थोड़ा कम हुआ पर अब एक बार फिर से आर्ट फिल्मों को लोग ज्यादा पसंद कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि इसमें सोशल मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका है. ज्यादा से ज्यादा युवा नाटक के प्रति आकर्षित हो रहे हैं.
उन्होंने बातचीत में कहा,” 2009 में ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ के बैनर तले ‘द ग्रुप’ नाम की एक संस्था बनाई जिसने गोरखपुर, बनारस, पटना आदि जगह पर डॉक्यूमेंट्री फिल्में, विदेशी फिल्में, ईरानी फिल्मी दिखाने का काम किया है.
हमारे इस सवाल पर कि अंग्रेजी फिल्मों के कारण क्षेत्रीय फिल्मों का वर्चस्व कम हुआ पर उन्होंने कहा कि भारत में क्षेत्रीय भाषा की फिल्में बहुत अधिक बनाई और देखी जाती है. फिल्मों की बात करें तो भारतीय दर्शकों के बीच अंग्रेजी अभी अपनी पैठ मजबूत नहीं कर सका है. इसलिए फिलहाल अंग्रेजी भाषा की फिल्मों से क्षेत्रीय फिल्मों को कोई नुकसान नहीं.
भोजपुरी फिल्मों और गाने की फूहड़ता पर उन्होंने कहा कि चंद अश्लील गानों से भोजपुरी भाषा की पहचान नहीं हो सकती है. असल मायनों में भोजपुरी की पहचान गोरख पांडे, नेहा राठौड़ जैसे लोगों से है. उन्होंने कहा कि कोई भी काम जो संवेदना से जुड़ा होगा वो दर्शकों को जरूर पसंद आएगा और जब तक ऐसे लोग हैं तब तक भोजपुरी भाषा की पहचान अश्लील भाषा के रूप में नहीं हो सकती.
दर्शकों की टोली से सुभाष चंद्रा ने कहा कि जब वे अपने आसपास युवाओं को नाटक से जुड़ते देखते हैं तो उन्हें बेहद खुशी होती है. उन्होंने कहा कि ज्यादा से ज्यादा पढ़े-लिखे और भाषा व साहित्य का ज्ञान रखने वाले लोगों को नाटक व फिल्मों में आना चाहिए.
एक अन्य दर्शक चिंटू ने बातचीत में कहा कि जब से वह फिल्में देख रही हैं, वह कॉमर्शियल फिल्मों का विकल्प तलाशती रहती हैं. इसलिए वो ऐसे फिल्मोत्सव में आती रहती हैं और फिल्म, किरदार और लोगों से रूबरू होती रहती हैं.