रामधारी सिंह दिनकर पर कुछ बोलना-लिखना कहां संभव हो पाता है। लेकिन आज चूंकि उनका जन्मदिन है तो कुछ बोलना ही है। दिनकर इस देश में सबसे ज्यादा सुने-पढ़े गए कवि हैं। और ऐसे कवि हैं जो हमेशा उतने ही प्यार से याद किए जाते हैं। आप देखिए कि उनके गांव को अब भी उनके जन्मदिन पर बेटी की शादी की तरह सजाया जाता है। और एक बात यह भी जानने की है कि उनके गांव के लोगों को दिनकर के पूरे-पूरे खंड काव्य याद हैं। विद्यार्थीयों का तो सिलेबस है। प्रोफेसर्स को भी पढ़ाना होता है लेकिन उस गांव के रहवइया का नेह देखिए, कि उसे दिनकर याद हैं। यही जनकवि का परिचय है। दिनकर सामान्य आदमी थे भी नहीं। वो जब सामान्य हालचाल भी पूछते तो लगता था कि बादल गरज रहा। बेहद उर्जावान रहने वाले दिनकर, आप कल्पना नहीं कर सकते कि कितने कष्ट में थे। आप उनकी डायरी पढ़ेंगे तो पाएंगे कि उनके जीवन में कितना कष्ट है। वे लिखते हैं, ईश्वर किसी को मनुष्य का जन्म मत देना। जन्म देना तो भूमिहार मत बनाना। भूमिहार बनाना तो बेटियां मत देना।
दिनकर, किसान परिवार से निकल कर रजिस्ट्रार हुए। कितनी विषम परिस्थितियों में वह काम करते रहे लेकिन परेशान करना इस देश के अधिकारियों का पहला काम रहा है। दिनकर का खूब ट्रांसफर होता था। उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है कि “जिंदगी में कभी मौका नहीं मिला की मूड बना कर कविता लिखूं। हमेशा गुस्से में लिखा। कमरा बंद करके क्रोध में आकर लिखा।’ सच तो ये है दिनकर जी बहुत अच्छे वक्ता थे। मेरा मानना है कि भारत के तीन चार वक्ताओं में से एक थे। वह कविता भी बोल कर ही पढ़ते थे, कभी गाते नहीं थे।
और छंद की कविता के दृष्टि से यह कितना जरूरी है कि जैसा बोलते हैं वैसी ही कविता की भाषा है। छायावादी कविता बहुत अच्छी है लेकिन जैसा बोलते हैं वैसी भाषा नहीं मिलेगी। लेकिन कवि सम्मेलनों तक में भी दिनकर का जलवा रहता था। लोग रात-रात भर इंतज़ार करते थे। रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंश राय बच्चन, और नरेंद्र शर्मा आए तो एक समय के बाद रात-रात भर कवि सम्मेलन चलने लगे। दिनकर जी कभी गाते नहीं थे, रिसाइट करते थे। और उस पढ़ने में जो दहाड़ थी, जो बिजली थी, वो सुनने वाले ही समझ सकेंगे। ”सांझ होते ही न जाने छा गई कैसी उदासी, क्या किसी की याद आई…”
कविताओं में दिनकर जी का वाक्य कितना लंबा है फिर भी वह कविता है और कविता भी ऐसी सामान्य नहीं। ऐसी कि 12वीं शताब्दी में बोलो तो 21 वीं सदी में सुनाई दे। अब अगले चुनाव को ध्यान में रखकर बोलोगे तो चुनाव बाद ही खत्म हो जाएगा। ये ऐसा लेखन आसान नहीं है। ये सबकुछ चिंतन में होना चाहिए। इसलिए वाक्य लंबे हों तो भी बात खरी हो। और ऐसा नही है कि सिर्फ लंबे वाक्य ही हैं, लंबे वाक्यों के साथ छोटे वाक्य भी लिखते रहे हैं। दिनकर जी ने
कृष्ण के लिए छोटे वाक्य लिखे। ‘मुर्दों से पटी हुई भू है, तू देख कहां इसमें तू है।’ सोचिए कृष्ण के लिए कहा गया,आज यूट्यूब पर रिकॉर्ड किया जाता है। यही तो कविता की उपलब्धि है।
शुरुआत में ही 28 साल की उम्र में जो तेवर था आश्चर्य है कि कैसे वो नौकरी करते थे। लेकिन दिनकर जी ऐसा नहीं है कि हमेशा गुस्साए रहते थे। या जैसी कविताएं लिखते हैं वैसे ही थे। जब दिनकर जी राज्यसभा गए, लोग उनको राष्ट्रकवि कहते थे। वो राष्ट्रकवि कहे जाने पर कहते, ‘अरे भाई! मैं उपराष्ट्र कवि हूं, राष्ट्रकवि तो मैथलीशरणगुप्त थे।’
जिस जनता के लिए हम लिखते हैं, उनके लिए पहुंच रही है की नहीं। जनता उसपर भरोसा करती है जिसकी बात
दिनकर, बच्चन और नरेंद्र शर्मा जनता में रहे। लेकिन दिनकर में विचारों का ताप, समस्याओं का सामना करने का साहस है। ये दिनकर की कविता में शुरू से है। इसलिए बुद्धि भी शुरू से कविता में शामिल है। उनका बहुत गंभीर अध्ययन था। उस समय भी वो अपने समकालीन और अन्य ज़रूरी यूरोप के चिंतको को पढ़ कर बैठे रहते थे।
वो हिंदी साहित्य पढ़ाने के लिए गज़ब तैयारी करते थे। जो पुस्तक है संस्कृति के चार अध्याय वो क्लास के नोट्स ही हैं। दिनकर जी स्वंय लिखते हैं कि लिखते हैं कि हिंदी साहित्य का इतिहास पढ़ाने के लिए जो नोट्स बनाए वो ही ये किताब है। ये किताब 2008 तक 18 बार छप चुकी थी। और जिस साल छपी उसी साल दो एडिशन निकल गए।
अब बताइये तमिलनाडू और दक्षिण में किसकी हिम्मत है जो हिंदी की कविता सुना दे। लेकिन यह कैसा ही संयोग कहा जाएगा कि उन्होंने आखिरी कविता तिरुपति में सुनाई। प्रेमचंद के बाद सबसे ज्यादा दिनकर लोकप्रिय हैं। और यह सिद्धि आई है उनके भीतर के आत्मसंघर्ष से। जनता को सुनना, उन्हीं की भाषा में उनको संबोधित करना। सच ही कहा कि उजले से लाल को गुणा करना ही उनकी विचारधारा भी है।
दिनकर जी की पंक्ति हैं, ‘उर्वशी अपने समय का सूर्य हूं मैं’। यह पंक्ति लगभग हर पढ़ सकने वाले हिंदी भाषी को पता है। इस देश में या तो रैदास, तुलसीदास लोगों को याद हैं या फिर दिनकर और बच्चन।
1948 में जब आजादी का नशा नहीं टूटा था। देश के कवि आजादी के गीत गा रहे थे। तब दिनकर लिखते हैं
‘टोपी कहती है मैं थैली बन सकती हूं,
कुर्ता कहता है मुझे बोरिया ही कर लो।
ईमान बचाकर कहता है सबकी आंखे,
मैं बिकने को हूं तैयार मुझे ले लो।’
टोपी को थैली करके सब भर लेने की प्रवृति आज तक है। यही दिनकर हैं जो भविष्यवाणी कर रहे हैं। जनता का पक्ष उन्होने कभी नहीं छोड़ा। कवि रहता है एक देश में वो तमाम देशों को संबोधित करता है। रहता है एक शताब्दी में लेकिन शताब्दियों में भी रहता है। दिनकर रहते स्वयं में थे लेकिन वह आप में भी हैं।
जिस तरह से कुत्ता भोजन पर टूट पड़ता है, इंसान नहीं टूटता। सामने प्लेट में दो ही बिस्कुट हैं लेकिन कहने पर लेता है। ऐसा क्यों है? मनुष्य के भीतर यह चिंतन से आया है। सामने कटोरे में पानी रखकर उसमें फूल डालकर मनुष्य ही सौंदर्य ले सकता है। दिनकर की उर्वशी उसी चिंतन और सौंदर्य की उपज है। उर्वशी स्वर्ग में मृत्यु की विजय है। देवता कभी अपनी जान जोखिम में नहीं डालता। चाहें दिल्ली चाहें स्वर्ग। दिनकर कहलवाते हैं कि आने वाली सभ्यता स्त्रियों की सभ्यता है। उर्वशी और सुकन्या के बीच के संवाद को पढ़ें। कहती हैं, जिसने दुनिया बनाई वो पुरुष था। इसलिए हम जिसे जन्म देंगे वो पुरूषाधिक पुरूष होगा।
दिनकर चिंतक भी बहुत अच्छे हैं और गद्यकार भी। बाकी लोगों का गद्य पढ़ के आपको नींद आ जाएगी, दिनकर का गद्य पढ़ के आपमें उर्जा आ जाएगी। आप उनके निबंध पढ़ें। उन्होंने कहा है कि स्त्री को पुरुषाधिक स्त्री होना चाहिए, पुरूष को स्त्रियाधिक पुरूष। पुरूष की महिमा इसमें है कि वो आंखे झुकाएं। स्त्री का गर्व ये है कि वह निर्णय लेने की भूमिका में रहें।
दिनकर के बड़े बेटे रामसेवक सिंह अंग्रेजी के लेक्चरर थे। असमय चले गए। अपने आखिरी दिनों में जब उन्होंने खाट पकड़ ली तो एक दिन दिनकर ने देखा कि उनपर एक चिड़िया बैठ गई। देखिए ईश्वर इशारे कैसे करता है। कुछ दिन बाद चल बसे रामसेवक। दिनकर ने बादलों को ईश्वर का डाकिया कहा है।
दिनकर जी में द्वंद था। गृहस्थी और सन्यास का द्वंद। राजनीति और साहित्य का द्वंद। दिनकर जी उसको लेकर जीते रहे। अमर और अमर हो गए।
प्रस्तुत आलेख प्रो. अवधेश प्रधान द्वारा कार्यक्रम “रामधारी सिंह दिनकर: कृतं स्मर, क्रतो स्मर” में दिए गए वक्तव्य का अंश है।
रिपोर्ट- शाश्वत