सात निश्चय: दलित बस्ती तक पहुंचते-पहुंचते ‘विकास’ कहीं रूक सा जाता है!

सात निश्चय: दलित बस्ती तक पहुंचते-पहुंचते ‘विकास’ कहीं रूक सा जाता है!

कैमूर की पहाड़ियां. इसके नीचे नीचे दूरदूर तक फैले धान के खेत. बीचबीच में पोखरतलाब, नहर का पानी. पक्की सड़क. मवेशियां चराते लोग. बाइक पर बैठे मैं सोच रही कि कितनी सही जगह है, जिंदगी के लिए. एकदम परफेक्ट जैसा. सबकुछ वाकई सुंदर. इतना कुछ देखते हुए मैं मोकरम पंचायत के खास मोकरम (पूर्वी टोली) पहुंची. नहर का पानी बह रहा था, भैंसें पानी में डुबकी लगाई हुई थी. मैंने कहा कि वाह मेरी जिंदगी की भागदौड़ से यह भैंस कहीं अच्छी है जो पानी में घंटों ऐसे बैठ सकती है, कुछ न करते हुए. मुझे नहर के उस पार जाना था. उस पार जाने के लिए बिजली के जो सीमेंट वाले पतलेपतले खंभे होते हैं, उसे ही रखकर पुल तैयार किया गया गया था. ऐसा पतला सा पुल जिस पर आपको हर कदम नापतौल कर रखना था.

नहर पार कर के मैं मोकरम पहुंच गई. मैं यहां मल्लू मुसहर का पता पूछती हूं. पता चलता है कि उनका घर आगे है. इसी बीच पानी की नीलीनीली पाइपें दिखती हैं, पूछती हूं कि नीतीश कुमार की जल-नल योजना यहां पहुंची है या नहीं. सामने खड़ा व्यक्ति बताता है कि हां, पाइप तो पहुंच गया है, पानी नहीं आ रहा. मैं उनके घर में अंदर तक जाकर देखती हूं, पानी की पाइपें पहुंची है, उससे जुड़ी लोहे वाली पाइप भी जमीन से लगी है लेकिन नल वाली टोंटी नहींपता चलता है कि पाइप को यहां पहुंचे करीब छह महीने हो चुके हैं, लोगों को बेसब्री से पानी का इंतजार है.

मोकरम के इस हिस्से में कुर्मी, पासवान, चमार और मुसहर जातियां रहती हैं, ठीक पहाड़ के नीचे, सड़क से गुजरते हुए जिस जगह को देखकर आपका मन लालच से भर जाता है, उसे आप ठीक सामने से देखते हैं और उसकी पर्तें खुलती चली जाती हैं. विकास की परिभाषा की दिक्कतें सामने आने लगती हैं, जाति, आरक्षण सबका सवाल मन में आने लगता है लेकिन सच्चाई यह है कि बिहार में विकास जातियों के हिसाब से दिखती है, अगर आपकी आंखें खुली हैं, तो फर्क समझने में देर नहीं लगती.

कुर्मी, पासवान, मुसहर जातियों से ताल्लुक रखनेवाली मनभवता देवी, मालती देवी और लाची देवी मुझे हाथ पकड़पकड़कर अपने घर ले जाती हैं, उन्हें यकीन है कि शायद उनकी स्थिति के बारे में कोई लिख दे तो चीजें बदल जाएंगी. मनभवता देवी को गांव में सब नानी कहते हैं. वह कहती हैं,  ‘‘अब तो मरनेवाली हूं. मेरी जिंदगी बीत गई पानी ढोतेढोते. हर चीज (सरकारी योजना) का लाभ लेने के लिए पहले पैसे मांगते हैं, पैसा हो तब तो दें! ’’

इस बारे में जब मोकरम पंचायत के मुखिया चट्टान सिंह से बात हुई तो वह कहते हैं कि यह सच्चाई है कि लोग ऐसे लोगों के चक्कर में ब्लॉक में फंस जाते हैं और पैसे दे देते हैं. जब उनसे आवास योजना के संबंध में बात हुई तो वह कहते हैं कि कोई यह नहीं कह सकता है कि उन्होंने किसी से पैसे लिए. इसके लिए आवासीय कर्मी होते हैं, हर गांव में घूमते हैं और वही नाम भेजते हैं. ऐसी शिकायतें आई हैं कि नाम भेजने के लिए लोगों से चारपांच हजार रुपये लिए गए और बाद में राशि आने पर भी 20 हजार से 30 हजार रुपये मांगे गए. वह कहते हैं कि कई बार वे लोगों के बीच में जाकर भी इस तरह के मसले सुलझाते रहे हैं लेकिन गांव में अपनी तरह की खेमेबाजी होती है और लोग इसमें फंसकर रह जाते हैं.

आपको बता दें कि एक घर के लिए करीब एक से डेढ़ लाख रुपये की राशि दी जाती है. कायदे से तो यह राशि भी पक्का घर बनाने के लिए मंहगाई के लिहाज से कम है लेकिन जब इसमें भी रुपये इधरउधर हो जाएंगे तो काम कैसे चले.

मोकरम की रहने वाली फगुनी देवी कहती हैं कि शौचालय के लिए पैसे भी खर्च हो गए और जो सरकारी राशि मिलनी थी, वह भी नहीं मिला. उनकी इस शिकायत के बारे में जब मैंने मुखिया से बात की तो उन्होंने कहा कि ज्यादातर लोगों को पैसे मिले हैं लेकिन कुछ लोगों की राशि ऊपर से लंबित है.

बिहार के गांवों में यह सर्वविदित सच्चाई है कि सरकारी योजनाओं का लाभ लेने के लिए आपको पहले पैसे देने होते हैं. चाहे शौचालय निर्माण हो या प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ लेना हो.  राशन कार्ड में भी अगर सैम्पलिंग करना हो तो किसी भी गांव में चले जाएं तो लोग आपको यह कहते हुए मिल जाएंगे कि राशन बांटने वाला डीलर तौल कम देता है या पैसे ज्यादा लेता है. इस गांव की रहनेवाली एक महिला बताती हैं कि लॉकडाउन में उन्हें ऐसा अनाज मिला जो खाने लायक था ही नहीं.  इस पर भी मुखिया का कहना है कि डीलर तो वही अनाज बांटेगा, जो उसे मिलेंगे.

इसी गांव के रहनेवाले योगेंद्र पासवान बताते हैं कि 5-10 घरों पर एक चापाकल है, लोग वहां से पानी भरकर ले जाते हैं। आपको बता दें कि पानी भरने का ज्यादातर काम महिलाएं करती हैं. कुछ के घर चापाकल से पास में हैं तो कुछ के घर दूर। पहाड़ी क्षेत्र है तो थोड़ी चढ़ाई भी है, जिससे यह काम और मुश्किल हो जाता है. इस बारे में मुखिया का कहना है कि जल्द ही इधर नल-जल योजना का काम पूरा हो जाएगा तो लोगों की दिक्कतें दूर हो जाएंगी.

चापाकल के पास पानी जमा होने के सवाल पर ग्रामीण कहते हैं कि कई बार सोख्ता बनाने की गुहार लगाई गई लेकिन बन नहीं सका और बगल के खेत उनके नहीं बल्कि बाबू साहेब (राजपूतों) के हैं. भगवानपुर ब्लॉक ओडीएफ (खुले में शौच मुक्त है) लेकिन सच्चाई यहां के लोग आपको बता देंगे और इस इलाके में घरघर घूमेंगे तो भी चीजें स्पष्ट हो जाएंगी. इस क्षेत्र के लोगों का कहना है कि वह शौच के लिए खेतों में जाते हैं. शौचालय बनवाने के लिए यहां लोगों के पास जमीन की भी कमी है, वे बताते हैं कि उनके पास ज्यादा जमीन नहीं है तो वह उसमें रहें या शौचालय बनवाएं.

बिहार में मुसहर जाति सबसे वंचित जातियों में से एक है. इसी जाति से ताल्लुक रखनेवाली सोमरिक कुंवर कहती हैं, ‘‘  बाबू, हमको कुछ भी नहीं मिलता है, किसीकिसी तरह से जिंदगी जीते हैं। कम से कम विधवा पेंशन भी मिलने लगता तो चीजें ठीक हो जाती।’’

बिहार में चुनाव का समय है. उम्मीदवार गांवगांव जाकर वोट मांग रहे हैं, काम करने के दावे कर रहे हैं, नए वादे हो रहे हैं. बिहार की असल समस्या योजनाओं की कमी नहीं बल्कि जमीन पर उसे इमानदारी से उतारना है. इस चुनाव के बाद भी क्या बदलेगा यह तो देखने वाली बात होगी

नोटयह ब्लॉग स्नेहा ने लिखा है। वह पेशे से पत्रकार हैं।