सबरीमला में महिलाओं के प्रवेश को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 के पहले दिन ANI को दिए अपने साक्षात्कार के दौरान कहा कि यह मान्यता और आस्था का हिस्सा है और तीन तलाक लैंगिक न्याय और बराबरी का मामला है. वे सही बोल रहे हैं तीन तलाक महिलाओं के लिए न्याय और बराबरी का मामला है लेकिन सबरीमला क्या वाकई धार्मिक आस्था और मान्यता का मामला है? मेरी समझ से तो नहीं. यहां देश के माननीय प्रधानमंत्री के कहे हए शब्दों से मेरी घोर असहमति है। फिर सवाल यह उठता है कि महिलाओं की आस्था कौन तय करेगा? यह कैसे पता लगाया जाए कि अगर किसी महिला को कहीं प्रवेश से रोका जाता है तो उसकी आस्था पर कितना असर पड़ता है? आस्था कोई नापने या जांचने वाली चीज तो है नहीं। निजी तौर पर सबकी आस्थाएं और मान्यताएं अलग–अलग हो सकती हैं, होती भी हैं, लेकिन देश अपने संविधान के हिसाब से चलता है. हमारे देश का संविधान और कानून लैंगिक भेदभाव नहीं करता. सबको बराबरी का अधिकार है, इसलिए मेरी समझ से आस्था भी बराबरी का ही मामला होना चाहिए, है कि नहीं?
हमारे देश में पहले भी ऐसी कई चीजें थीं जिन्हें आस्था का प्रश्न कहकर लागू किया जाता था. किसी जमाने में सती प्रथा भी मान्यता और आस्था का विषय रहा होगा लेकिन अब यह अपराध है. कभी बाल विवाह भी मान्यता का हिस्सा होगा लेकिन अब ऐसा करने पर मां–बाप तक जेल जा सकते हैं. किसी जमाने में दहेज को लेकर भी कहा गया था कि जब लेने और देने वालों को आपत्ति नहीं है तो इसके लिए कानून की क्या जरूरत. लेकिन इसकी कितनी जरूरत थी, यह हम सब जानते हैं.
अब जानिए कि सबरीमला मामले में सुप्रीम कोर्ट के जजों ने क्या कहा था?
सबरीमला मामले में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा था कि आस्था के नाम पर लिंगभेद नहीं किया जा सकता, कानून और समाज का काम सभी को बराबरी से देखने का है. फैसले के दौरान चीफ जस्टिस ने अपनी ओर से तथा जस्टिस ए एम खानविलकर की ओर से फैसला पढ़ते हुए कहा था कि महिलाओं के लिए दोहरा मापदंड होना, उनके सम्मान को कम करना है. इसके अलावा चीफ जस्टिस ने यह भी कहा था कि भगवान अयप्पा के भक्तों को अलग–अलग धर्मों में नहीं बांटा जा सकता.
सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि अनुच्छेद 25 के तहत सभी लोगों को बराबरी का अधिकार है. जस्टिस आर एफ नरीमन ने कहा था कि महिलाओं को किसी भी स्तर से कमतर आंकना संविधान का उल्लंघन होगा. वहीं जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ का कहना था कि अनुच्छेद 25 सभी नागरिकों की रक्षा करता है, जिसका मतलब है समाज का हर व्यक्ति बराबर है.
पांच जजों की बेंच ने 4-1 (सबरीमला में महिलाओं के प्रवेश मामले में 4 जजों की एक राय थी जबकि एक महिला जज इसके विरोध में थीं)
जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने कहा था कि समानता के अधिकार को धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के साथ ही देखा जाना चाहिए. कोर्ट का काम प्रथाओं को रद्द करना नहीं है. उनका कहना था कि अनुच्छेद 25 में दिए गए पूजा के अधिकार को कभी भी समानता के सिद्धांत से ऊपर नहीं लाया जा सकता है. तार्किक विचारों को धार्मिक मामलों में नहीं लाया जा सकता.
कोर्ट ने सभी उम्र की महिलाओं को सबरीमला में प्रवेश की इजाजत दी थी. जिसे केरल सरकार लागू करने के पक्ष में है. यह फैसला सितंबर, 2018 में आया था. प्रधानमंत्री का बयान नए साल की पहली तारीख को आया है और हकीकत यह है कि महिलाएं सबरीमला मंदिर में प्रवेश अब भी नहीं कर सकतीं. देश की दो बड़ी पार्टियां जिनकी राय हर मुद्दे पर एक–दूसरे से जुदा होती है, वह इस मामले पर एक बने हुए हैं, लेकिन अब भी हर संभव कोशिश में रहते हैं कि अलग दिखें. भले ही राहुल गांधी अंतरराष्ट्रीय मंच तक से महिलाओं के लिए बराबरी की बात कह चुके हों लेकिन इस मामले में वह अपनी पार्टी के रुख पर कुछ नहीं कह रहे. सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को आस्था और मान्यता का मामला कहने वाले प्रधानमंत्री की पार्टी उसे राजनीतिक रंग दे चुकी है और कांग्रेस उसका समर्थन कर रही है. यहां मंदिर के बाहर भड़की हिंसा की खबरों पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि श्रद्धालुओं का पता नहीं, मगर संबंधित पार्टियों के कार्यकर्ता इसमें शामिल हैं.
कई घरों में लड़कियों को माहवारी के दौरान कुछ खास चीजों को छूने से रोका जाता है, पूजा घर या फिर खाना बनाने वाले घर में प्रवेश नहीं दिया जाता है. कहीं–कहीं तो उन्हें घर से बाहर तक सुलाया जाता है. इस तरह की मानसिकता को कोई आस्था का अमलीजामा पहनाए तो उससे क्या कहा जाए,क्या बहस की जाए?
इतनी समझ तो सबको होनी चाहिए कि माहवारी आस्था का नहीं बल्कि महिलाओं के शरीर की एक सामान्य सी प्रक्रिया है. जिसे सामान्य ही रहने दिया जाए. होना तो यह चाहिए था कि नए साल में प्रधानमंत्री मोदी कहते कि देश की प्रत्येक महिला को मुफ्त में सैनिटरी पैड मुहैया कराया जाएंगे ताकि इसकी कमी की वजह से कोई महिला बीमार न पड़े, लेकिन ऐसा हो न सका और माहवारी बस आस्था और मान्यता का विषय होकर रह गई. इतिहास गवाह है कि महिलाओं को हमेशा दोयम दर्जे का इंसान समझा जाता था. यही समाज था जिसमें यह कहावत भी प्रचलित थी कि महिलाओं को नाक न हो तो वह मैला (विष्ठा) खाएं क्योंकि उनके पास दिमाग नहीं होता. मैं फिर भी नाउम्मीद नहीं, अंधेरा छटेगा और महिलाएं अपना हक छीन लेंगी…
हमने यह आलेख कुमारी स्नेहा के ब्लॉग घुमन्तू भोटिया से साभार लिया है. स्नेहा पेशे से पत्रकार हैं…