कि पश्चिमी उत्तरप्रदेश में ईमान की परीक्षा ‘जाटों’ की होनी है ‘मुसलमानों’ की नहीं…

कि पश्चिमी उत्तरप्रदेश में ईमान की परीक्षा ‘जाटों’ की होनी है ‘मुसलमानों’ की नहीं…

”जाटों ने करा था न दंगा? जाट समुदाय से ही तो थे अजित सिंह- उन दंगों में अजित सिंह का क्या रोल था इस बात को छोड़ दो, लेकिन जाट-मुस्लिम दंगा था ना? मुसलमान फिर भी लकीर निकालकर अजित सिंह के साथ चला गया. जाटों ने अजित सिंह को छोड़ दिया. चौधरियों ने अपनी पगड़ी उतारकर बीजेपी के सिर पर रख दी- इसमें मुसलमान क्या कर सकता है? मुसलमान तो जहां खड़ा था, अब भी वही खड़ा है”- यह बात हमें मुज़फ़्फ़रनगर में एक पान की दुकान पर खड़े डॉ. सरताज़ बेग ने इस सवाल के जवाब में कही कि ‘मुज़फ़्फ़रनगर के दंगों और राकेश टिकैत के आंसूओं’ के बाद किधर जा रही है पश्चिमी उत्तरप्रदेश की राजनीति? क्या आगामी चुनाव में जाट-मुस्लिम एकता जैसी कोई चीज देखने को मिलेगी भी या नहीं? ऐसे ढेर सारे सवाल बहुतों के जेहन में हैं- इन्हीं सवालों के जवाब जानने के लिए मैंने और आशुतोष ने इस बीच पश्चिमी उत्तरप्रदेश की रपटीली सड़कों पर तीन दिनों तक मोटरसाइकिल दौड़ाई. सैकड़ों लोगों से बात की- अब आगे—

डॉक्टर सरताज बेग (Picture Source – The Bihar Mail)

दरअसल, बात कुछ ऐसी है कि गणतंत्र दिवस और उसके बाद गाजीपुर बॉर्डर पर निकले राकेश टिकैत के आंसूओं ने पश्चिमी उत्तरप्रदेश की फ़िज़ा को बदलने का काम किया है. पश्चिमी उत्तरप्रदेश में फिर से महापंचायतें होने लगी हैं. महापंचायतों में भीड़ उमड़ने लगी है. विपक्षी पार्टियां सक्रिय हो गई हैं. मंचों से जाट-मुस्लिम एकता की बातें कही जाने लगी हैं. 29 जनवरी, 2021 को भारतीय किसान यूनियन की ओर से बुलाई गई एक ऐसी ही महापंचायत में चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के लंबे समय तक सहयोगी रहे मुस्लिम खाप नेता गुलाम मोहम्मद ‘जौला’ भी मौजूद रहे. मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के मद्देनज़र उन्होंने खुद को संगठन से अलग कर लिया था.

महापंचायत के मंच से गुलाम मोहम्मद ‘जौला’ ने मुख्य तौर पर दो बातें कहीं. अव्वल कि जाटों ने अजित सिंह को हरा दिया और दूसरा मुसलमानों को मारा. महापंचायत के मंच से ‘जौला’ की जुबां से निकली इस बात पर वहां मौजूद लोगों में एक अजीब सी कसमसाहट देखी गई. ऐसा लगा जैसे सभी इस बात से इत्तेफाक़ रखते हों और जौला ने उनके मन की बात कह दी हो. नरेश टिकैत ने भी जौला द्वारा कही गई इस बात को आगे ही बढ़ाया. नरेश टिकैत ने कहा कि उनसे भूल हो गई. अब भूल सुधार करने का समय है. मंच से इज्जत बचा लेने की अपील भी की. तो नरेश टिकैत द्वारा भूल के लिए मांगी जा रही माफी, इज्जत बचा लेने की अपील और वहां मौजूद लोगों की कसमसाहट में ही पश्चिमी उत्तरप्रदेश की बदलती सियासत की आहट सुनी जा सकती है.

भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष नरेश टिकैत (Picture Source – The Bihar Mail)

गौरतलब है कि साल 2013 में हुई महापंचायतों और फिर मुज़फ़्फ़रनगर के दंगों के बाद ‘जाटलैंड’ कहे जाने वाले इस इलाके की राजनीति बदल सी गई. चौधरी चरण सिंह की विरासत से ताल्लुक रखने वाले और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में जाटों की राजनीति के केंद्र में रहने वाले चौधरी अजित सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी भी अपनी सीटें नहीं बचा सके. पश्चिमी उत्तरप्रदेश की राजनीतिक पिच पर भाजपा को अप्रत्याशित सफलता मिली. साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव और साल 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान पश्चिमी उत्तरप्रदेश ने भाजपा की झोली लगभग भर सी दी, लेकिन इस बीच काफी कुछ बदलता दिखाई दे रहा है. पश्चिमी उत्तरप्रदेश के बदलते सियासी समीकरण पर मुज़फ़्फ़रनगर जिले के ग्राम पंचायत कैथोड़ा के प्रधानपति व भारतीय किसान यूनियन से सम्बद्ध हाजी महबूब आलम कहते हैं, “देखिए हमें इस बात का मलाल तो है कि चौधरी अजित सिंह यहां से चुनाव हार गए. वे हमारे मसअलों के साथ खड़े रहते थे.”

कैथोड़ा ग्रामपंचायत के प्रधानपति हाजी महबूब आलम (Picture Source – The Bihar Mail)

भाजपा को मजबूत करने का मलाल- नरेश टिकैत

भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष और राकेश टिकैत के बड़े भाई नरेश टिकैत ‘द बिहार मेल’ से बातचीत में कहते हैं, “इनका (भाजपा का) दिमाग बड़ा शातिर है. हमने जो महसूस किया कि गांव-देहात की जनता जो आम आदमी है, वो इनकी बातों की गहराई में नहीं जाता. 2013 में हुए दंगे भी इन्हीं की चाल थी. अपनी राजनीति के लिए कितने भी आदमी मर जाएं इन्हें कोई दिक्कत नहीं. हमें इस बात का मलाल है कि भाजपा को इतना मजबूत बना दिया कि हमारी सुनवाई नहीं हो रही. हमने इलाके में भाजपा के सांसद और विधायक बनवाए.”

पश्चिमी उत्तरप्रदेश में हाल के दिनों में अपनी पार्टी बनाकर सियासी जमीन तलाश रहे मजलूम समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष लियाकत मुस्लिम कहते हैं, देखिए तब के हुए दंगे के लिए भाजपा से अधिक दोषी सपा है. आखिर सपा ही तो सत्ता में थी. भावानाओं का देश है और भावनाएं भड़क गईं.” -साल 2013 के दंगों के दर्द को भुला देने के सवाल पर वे कहते हैं कि मुसलमान तो हमेशा से ऐसा करता आया है. दंगों का दर्द उसके लिए कोई नई बात तो है नहीं. छोटी और बड़ी गाड़ी की टक्कर में हमेशा अधिक नुकसान छोटी गाड़ी का ही होता है. टिकैत की भावुक होने और हो रही महापंचायतों के परिप्रेक्ष्य में वे कहते हैं कि इसका सियासी फायदा पश्चिमी उत्तरप्रदेश में राष्ट्रीय लोक दल को मिलता दिखाई दे रहा.

लियाकत मुस्लिम – राष्ट्रीय अध्यक्ष – मजलूम समाज पार्टी (Picture Source – The Bihar Mail)

पश्चिमी उत्तरप्रदेश में हो रही महापंचायतों को नजदीक से देख रहे और साल 2013 के मुज़फ़्फ़रनगर दंगों पर ‘मुज़फ़्फ़रनगर बाकी है’ नामक डॉक्यूमेंट्री फिल्म के निर्माता नकुल सिंह सौहनी कहते हैं, “देखिए साल 2022 के चुनाव के लिहाज से कुछ भी कहना अभी जल्दबाजी है, लेकिन इन महापंचायतों का सीधा फायदा राष्ट्रीय लोक दल को पहुंचता दिखाई दे रहा है. रालोद का आधार वर्ग उससे फिर से जुड़ता दिखाई दे रहा है. साथ ही पश्चिमी उत्तरप्रदेश में एक बार फिर से जाट-मुस्लिम एकता जैसी चीज भी होती दिखाई तो पड़ रही है.”

गुलाम मोहम्मद ‘जौला’ के साथ डॉक्यूमेंंट्री फिल्म निर्माता नकुल सिंह सौहनी (Picture Source – Nakul’s Facebook Account)

आंदोलन से निपटने की रणनीति बना रही भाजपा

भाजपा का नेतृत्व भी इस बात को बखूबी समझता है कि पश्चिमी उत्तरप्रदेश में होने वाली इन ‘महापंचायतों’ के क्या मायने हैं. पश्चिमी उत्तरप्रदेश की सियासी जमीन गंवाना उसके लिए कैसी मुश्किलें खड़ी कर सकता है. चूंकि दिल्ली की सीमाओं पर डटे किसानों में जाटों की तादाद अधिक है और सियासी हल्कों में इसे हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश के जाटों का भी आंदोलन कहा जा रहा है. ऐसे में इस बीच मुज़फ़्फ़रनगर से भाजपा सांसद व केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान के घर पर पश्चिमी उत्तरप्रदेश के जाट नेताओं की बैठकें हो रही हैं. जाटों की नाराजगी को दूर करने की रणनीति बन रही है.

गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा ने भी जाटों के गुस्से से निपटने हेतु पार्टी कार्यालय में आला नेताओं संग बैठक की. इन हाई प्रोफाइल बैठकों से इस बात का बखूबी अंदाजा लगाया जा सकता है कि भाजपा का नेतृत्व किस स्तर पर मुस्तैदी बरत रहा है, कैसे भाजपा का नेतृत्व ‘किसान आंदोलन’ को बिल्कुल भी हल्के में नहीं ले रहा. चूंकि इस ‘किसान आंदोलन’ का प्रभाव लोकसभा के लिहाज से 20 और विधानसभा के लिहाज से लगभग 80 सीटों पर सीधे-सीधे पड़ने वाला है और साल 2022 में उत्तरप्रदेश के भीतर विधानसभा चुनाव भी होने हैं.

अंत में यही कहना है कि ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर राकेश टिकैत की भावुकता और निकलते आंसूओं के बीच भाजपा को वोट देने व दिलवाने की बात के भी कई सियासी निहितार्थ हैं. राकेश टिकैत के आंसूओं ने जहां उन्हें फिर से तमाम बहसों के केंद्र में ला दिया और ‘लाल किले’ प्रकरण से बैकफुट पर जा रहे किसान आंदोलन में नई जान फूंक दी. वहीं पश्चिमी उत्तरप्रदेश के भीतर तारी इस ‘खदबदाहट’ और ‘अस्मिता’ के उभार के बावजूद गेंद जाटों के पाले में ही है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि दंगों के दौरान अधिक नुकसान तो मुसलमानों का ही हुआ. नेतृत्व के साथ ही प्रतिनिधित्व के मसअले पर भी उन्हें कुछ खास हासिल नहीं हो सका और न ही निकट भविष्य में ऐसी कोई उम्मीद दिखाई देती है…