सुषमा स्वराज नहीं रहीं. मौत असामयिक थी लेकिन इसकी ख़बर इतने असाधारण ढंग से नहीं आई| वे बेहद प्यारी शख़्स, मज़बूत इरादों वाली नेता और भारत के मध्यम वर्ग का शायद सबसे ख़ास सियासी आकर्षण थीं. फिर भी उनकी मौत पर रेडियो पटकने, टीवी सेट तोड़ डालने की घटना नहीं हुई. छाती पीटते जन-समूह की कोई तस्वीर भी नहीं आई. जैसी आमतौर पर किसी बड़े नेता की मौत के बाद आम बात है. वे जितनी सहजता से राजनीति में आईं उसी तरह से काम किया और फिर बड़े आराम से एक दिन सन्यास ले लिया और अब दुनिया से कूच कर गईं.
क़रीब तीन सालों से अपने दोनों ख़राब हो चुके गुर्दों की बीमारी से जूझतीं सुषमा स्वराज ने इसी साल के तीसरे-चौथे महीने में सियासत के मैदान से हाथ खड़े कर दिए थे. तब तक उनका सियासी करियर कोई 41 सालों का हो चला था. यह करियर उतना लम्बा था जितना भारत की किसी भी और महिला नेता का नहीं रहा है. महिला ही क्या वे भारत के उन चंद नेताओं में भी शुमार होती हैं जिनका चार दशकों का सियासी सफ़र रहा है.
इन चार दशकों में देश के किसी भी राज्य की पहली बार बनी सबसे युवा कैबिनेट मंत्री, किसी भी केंद्रशासित प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री और लोकसभा में विपक्ष की असाधारण नेता होने के साथ-साथ इंदिरा गांधी के बाद देश की विदेश मंत्री होने जैसे अवसर शामिल हैं. बहुत सम्भव था कि वे देश की पहली महिला ग़ैर-काँग्रेसी प्रधानमंत्री भी बन जातीं, संसदीय लोकतंत्र के लक्षणों और परिपाटियों का संकेत यही कह भी रहा था. …लेकिन सियासत में कुछ असम्भव भी नहीं है जैसे सुषमा स्वराज का प्रधानमंत्री बनते-बनते न बनना.
अपनी शानदार वाक-कला, तीक्ष्ण बुद्धि और लम्बे हो चले सियासी तज़ुर्बे ने उन्हें भाजपा की पहली पंक्ति के नेताओं में पहुँचा दिया था. रहा-सहा काम किया उनके राजनीतिक गुरु लालकृष्ण आडवाणी द्वारा पाकिस्तान जाकर जिन्ना की कब्र पर फूल चढ़ाने की घटना ने. इसके बाद आडवाणी भाजपा के लिए अछूत हो गए और चाहे 2009 में पार्टी ने उनका चेहरा आगे कर लोकसभा चुनाव लड़ा हो लेकिन इसके बाद लगातार वे हाशिए पर खिसकते रहे. यही समय था जब अटल बिहारी वाजपेयी का सन्यास हो चुका था और प्रमोद महाजन की हत्या हो गई थी. भाजपा के दूसरे बड़े नेताओं में अरूण जेटली के पास जनाधार नहीं था. ऐसे में सबसे बड़ा काम ये भी हुआ कि 2009 में लगातार अपनी दूसरी पराजय के बाद सुषमा स्वराज को विपक्ष के नेता की कुर्सी दे दी गई. यहाँ उन्होंने मनमोहन सिंह सरकार की ऐसी खिंचाई शुरू की कि पाँच सालों में सत्ता-विरोधी रुझान कुछ यूँ बना कि पूरी सरकार ही खिसक गई. इन सालों में अब वे संसदीय राजनीति की ठीक उस जगह पर आ चुकीं थीं जहाँ चुनाव होते ही साइड बदल जाता है, सरकार के विश्वास खो देने की हालत में विपक्ष का नेता प्रधानमंत्री हो जाता है. संसदीय लोकतंत्र के शब्दकोश में नेता-विपक्ष को यूँ भी ‘शैडो प्राईम मिनिस्टर’ कहा जाता है.
फिर सियासत की दुनिया से कुछ भी हो जाने की एक ऐसी आँधी बही और परिणाम कुछ और रहा. 2012 के गुजरात विधानसभा चुनावों में पार्टी को लगातार तीसरी क़ामयाबी दिलाने के बाद नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली की ओर गंभीरता से देखना शुरू किया. इस देखने में मदद की उनकी हिन्दू समर्थक, कॉरपोरेट हितैषी छवि ने जो मुस्लिम तुष्टिकरण और एनजीओ स्टाईल में चलती वर्तमान सरकार के विकल्पों के खाँचे में एकदम फिट बैठता था. ऐसे में पूरी पार्टी पर मोदी और उनकी टीम काबिज़ हुई और वो हाशिए पर चले गए जिनके बारे में किसी ने सोचा तक नहीं था – आडवाणी-सुषमा, जोशी-उमा और तमाम ऐसे लोग.
सुषमा स्वराज एक ऐसी सरकार में विदेश मंत्री बनाई गईं जहाँ सरकार का सारा काम सर्वसत्तावादी प्रधानमंत्री ख़ुद कर लेना चाहते थे. लिहाज़ा उन्होंने उलझने और असहमति प्रकट करने की बजाए ख़ुद के लिए ट्वीटर के माध्यम से एक अलग रास्ता चुना. इसके माध्यम से उन्होंने पाँच सालों में क़रीब दस हज़ार लोगों की सीधे मदद की. मानवीय आधार पर जम कर वीज़ा जारी किए और कूटनीति को स्त्रीत्व का एक नरम रूप दिया.
ये वही समय था जब गंभीर रूप से बीमार होकर वे अपने दोनों गुर्दे गँवा बैठीं और इस बात की संभावना भी कि इसके बाद उनका सार्वजनिक जीवन लम्बा हो सकता है. …और बीते दो दिनों की एम्स से भाजपा कार्यालय होती हुई लोधी रोड के श्मशान तक के अपने सफ़र में पूर्व विदेश मंत्री से तिरंगे में लिपटी पार्थिव देह और उसके बाद उनके पंचतत्वों में वापस चले जाने तक संभावनाओं की एक कहानी का अंत हो गया…
द बिहार मेल के लिए ये लेख अंकित दूबे ने भेजा है. यह लेखक के अपने विचार हैं. अंकित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भाषा साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन संस्थान के पूर्व छात्र हैं.