नीतीश कुमार के पास ऐसा क्या है कि वे हर बार उन्नीस दिखते-दिखते बीस छूट जाते हैं?

नीतीश कुमार के पास ऐसा क्या है कि वे हर बार उन्नीस दिखते-दिखते बीस छूट जाते हैं?

नीतीश कुमार. बिहार और देश की राजनीति के सबसे अप्रत्याशित चेहरों में से एक. तिकड़मी इतने कि जिनके लिए लालू प्रसाद पेट में दांत की बात कहते हैं. जिनके पास अपने वोटों का अलहदा गुणा-गणित है. मृदु व अल्पभाषी. जिनकी छवि पर विपक्ष भी न्योछावर है. जो इधर के दिखते-दिखते उधर के हो सकते हैं. आश्चर्य नहीं कि वे हर जगह सहर्ष स्वीकारे जाते हैं. क्या कांग्रेस और क्या भाजपा? क्या राजद और क्या अन्य दल? जिन्हें अवॉर्ड वापसी के दौर में देश की कथित प्रगतिशील लेखकों की जमात पीएम नरेन्द्र मोदी के खिलाफ अपना अगुआ बनाना चाहती थी. जिन्हें कभी देश के मशहूर इतिहासकार व कॉलम लेखक रामचंद्र गुहा कांग्रेस के अध्यक्ष के तौर पर देखना चाहते थे.

ऐसे समय में जब लोकसभा चुनाव 2019 की सरगर्मियां चरम पर हैं. पार्टियां सीट शेयरिंग के अंतिम फार्मूले पर काम कर रही हैं. बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए काम कर रहे प्रशांत किशोर अब आधिकारिक तौर पर नीतीश कुमार के साथ हैं. लोजपा और रालोसपा जैसी एनडीए की घटक पार्टियां ऊभचूभ कर रही हैं. नीतीश कुमार को साथ रखने के क्रम में भाजपा अपने आधे दर्जन से अधिक सीटिंग सांसदों के टिकट काट रही है. स्वाभाविक सवाल उठते हैं कि आखिर वो कौन सी वजहें हैं जो नीतीश कुमार को हर काल और परिस्थिति में प्रासंगिक बनाए रखती हैं? वे कैसे हर बार उन्नीस दिखते-दिखते बीस छूट जाते हैं?

क्योंकि बिहार में चेहरों का चुनाव होता है

नीतीश कुमार उस पासंग (दोनों पल्लों के सूक्ष्म अंतर को दूर करने हेतु अंतर युक्त पल्ले के विपरीत पल्ले में बांधा गया पत्थर आदि के छोटे टुकड़े) की तरह हैं जो तराजू के किसी भी पलड़े को झुका देने की क्षमता रखते हैं. यही उनकी राजनीतिक पूंजी है. ये बिहार और पूर्वांचल की राजनीति को बहुत नजदीक से देखने वाले पत्रकार निराला के शब्द हैं. निराला कहते हैं, “देखिए नीतीश कुमार की राजनीति को समझने की जरुरत है. नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद का साथ तब छोड़ा जब लालू प्रसाद अपने राजनीतिक चरम पर थे. नीतीश कुमार का अपना पॉलिटिकल स्ट्रगल है. वे जॉर्ज और शरद के साथ और लालू प्रसाद के खिलाफ रहे हैं. उन्हें लालू प्रसाद के तमाम पैंतरों का अंदाजा है. इसके अलावा बिहार में चेहरों का चुनाव होता है. पार्टियों का नहीं. बीते तीन दशकों से तो ऐसा ही दिख रहा. लालू प्रसाद बनाम नीतीश कुमार का चुनाव हुआ. अब जब कि लालू राजनीतिक तौर पर गैरसक्रिय हैं तो नीतीश कुमार बनाम तेजस्वी की बात हो रही है. पार्टियां गौण हैं.

नीतीश-तेजस्वी (तस्वीर- इंडिया टुडे)

निराला आगे कहते हैं, “मंडल कमीशन के लागू किए जाने के बाद ओबीसी जातियां राजनीतिक तौर पर सक्रिय हुईं. लालू प्रसाद उसके मुहाने पर थे. ओबीसी और दलित जातियां उनके साथ थीं लेकिन उनके भीतर जल्द ही असंतोष पनपने लगा. नीतीश कुमार वहीं मजबूत हुए. जब वे सरकार में आए तो गैर यादव ओबीसी की बात करते हुए आए. सरकार में आने के बाद पिछड़ों को अति पिछड़ों में बांटा. दलितों को महादलितों में बांटा. मुसलमानों को पसमांदा और गैर पसमांदा में बांटा. उन्हें प्रतिनिधित्व दिलवाना सुनिश्चित करवाया. शराबबंदी करवाकर महिलाओं की सहानुभूति बटोरी. ये सारी बातें उनके पक्ष में रहीं. छिट-पुट घटनाओं को छोड़कर.

निराला बिहार की दो सवर्ण व आक्रामक जातियों की राजनीति का भी जिक्र करते हैं, “वे कहते हैं कि भूमिहार और राजपूत दो ऐसी जातियां हैं जो अपने अधिकारों और राजनीति को लेकर हमेशा से सजग रही हैं. भूमिहार अधिक. ये दोनों जातियां एक ही जगह साथ नहीं रह सकतीं. भूमिहार जाति लालू प्रसाद की राजनीति की मुखर विरोधी रही है. ऐसे में राजपूत जाति लालू प्रसाद के साथ दिखती है. अपवादों को छोड़कर. नीतीश यहीं मजबूत हो जाते हैं. भूमिहार जाति के सक्रिय राजनेताओं का लालू प्रसाद को पंसद न करना नीतीश के पक्ष में जाता है.”

नीतीश कुमार को बड़ा दिखाने में मीडिया की बड़ी भूमिका

नीतीश कुमार की राजनीतिक जमापूंजी और उनके मोलभाव पर जब हम काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र नेता और छात्र राजनीति के दिनों से ही नीतीश कुमार को देख रहे हरिद्वार पांडे से बात की तो वे कहते हैं, “इसमें तो सबसे बड़ी भूमिका मीडिया की ही है. वे हाल ही में हुए एक चैनल और सर्वे का जिक्र करते हैं कि कैसे सर्वे के हवाले से 57 फीसदी जनता अब भी नीतीश कुमार को ही अपना मुख्यमंत्री देखने की बात प्रचारित-प्रसारित की जाती है. दूसरी पार्टियां भी उस दबाव में आ जाती हैं. तिस पर से नीतीश कुमार मीडिया को बढ़िया मैनेज कर लेते हैं. वे चाहे जिस गठबंधन में हों. वे जनता के बीच व्यापक स्तर पर इस मैसेज को देने में सफल रहते हैं कि वे किसी भी गठबंधन में विकास और काम के लिए हैं. न कि अपनी राजनीति के तहत.”

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार. तस्वीर साभार -Press Trust Of India

वे आगे कहते हैं, “देखिए बिहार और यूपी में जैसी क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों का वजूद है उसके हिसाब से बीजेपी गैर यादव राजनीति करती है. बिहार के लिहाज से नीतीश वहां सटीक चेहरे हैं. भाजपा के पास बिहार में कोई एक चेहरा ऐसा नहीं जो इस कद का हो. जद (यू) और भाजपा में प्रदेश स्तर पर तो ऐसे दो फीसदी चेहरे भी नहीं जिन्हें मंत्री बनाया जा सके. मुख्यमंत्री तो दूर की बात है. तिसपर से नीतीश कुमार को एंटी माइनॉरिटी भी नहीं कहा जा सकता. उन्होंने दलित-महादलित, पसमांदा-गैर पसमांदा और महिलाओं के लिए भी कई काम किए हैं. ये सारी बातें नीतीश को मजबूत और प्रासंगिक बनाए रखती हैं.”

भाजपा के पास राज्य के भीतर कोई सर्वमान्य चेहरा नहीं

इस मसले पर हमसे बातचीत में नीतीश कुमार की राजनीति को देखते हुए जवां हुए बक्सर के पूर्व सांसद जगदानंद सिंह के पुत्र सुधाकर सिंह कहते हैं, “देखिए महागठबंधन से अलग हो जाने के बाद भी नीतीश कुमार भीतरखाने में कांग्रेस से भी बात करते रहे हैं. ताकि भाजपा दबाव में रहे. वे इस कला के माहिर खिलाड़ी हैं. भाजपा के पास राज्य के भीतर कोई सर्वमान्य चेहरा है नहीं जिसे वे आगे ले जा सकें. जब हम नीतीश के प्रति महिलाओं के स्वाभाविक झुकाव पर उनसे प्रश्न करते हैं तो वे कहते हैं कि ये देखने वाली बात है. पुरुष प्राय: पलायनवादी होते हैं. ये सभी जातियों की बात है. बेहतर ऑप्शन की तलाश में पुरुष राज्य के बाहर चले गए हैं. वे मौके पर वापस आते हैं. जैसे किसी त्योहार के समय. ऐसे में महिलाएं पीछे रह जाती हैं. वो वोटों की कतार में भी अधिक दिखती हैं. तो ये परसेप्शन की बात है और इस परसेप्शन को बनाने में मीडिया की बड़ी भूमिका है. फैक्ट यह है कि नीतीश कुमार ने अपनी चेहरे को धूमिल किया है. बार-बार साथी बदलना और सत्ता के शीर्ष पर बने रहना उन्हें इस बार महंगा पड़ेगा.”

नीतीश कुमार और अमित शाह – तस्वीर  (द प्रिंट)

तो, इन तमाम बातों को कहने-लिखने का निष्कर्ष यह है कि नीतीश कुमार प्रदेश और देश की राजनीति के लिहाज से अभी भी प्रासंगिक हैं. तिकड़मी उठापटक के दौर में भी वे अपनी सधी चालें चल रहे हैं. दूसरों को चेक-बैलेंस रख रहे हैं. अपना दबदबा कायम रखे हुए हैं. प्रेशर पॉलिटिक्स करने में सफल हैं. ये तो भविष्य के गर्भ में छिपा है कि वे कल उनकी राजनीतिक हैसियत क्या होगी लेकिन फिलहाल वे उन्नीस दिखते-दिखते बीस तो छूट ही गए हैं…