दिन में कितनी बार बिस्तर पर लेटती हूं और फिर उठ जाती हूं. फिर टीवी खोलती हूं, कुछ नहीं समझ आता, बंद करती हूं. किचन में जाती हूं, वहां भी कुछ समझ नहीं आता. वापस आकर फिर बिस्तर पर लेट जाती हूं. किताब को उठाती हूं एकाध पेज पढ़ने के बाद उसे रखकर, फोन को उठाती हूं, देखती भर हूं फिर रख देती हूं. सोती भी हूं तो लगता है कि जाग रही हूं, जागती हूं तो भी लगता है कि मैं जिंदा हूं या नहीं. दिमाग से यह सवाल ही नहीं जाता कि वह कैसा होगा? कहां होगा? घर ठीक से पहुंच गया था? मिलिट्री या पुलिस ने परेशान तो नहीं किया होगा? मार तो नहीं दिया होगा किसी ने? मैं बस एक बार उससे बात करना चाहती हूं, बस जानना चाहती हूं कि वह ठीक है, किससे पूछूं?
मैं पूरे अगस्त क्या करती रही, यह मैं भी नहीं बता सकती क्योंकि शब्दों के पास उतनी क्षमता ही नहीं है, यहां तक कि मेरी यादों के पास भी उतनी क्षमता नहीं है कि मैं याद कर सकूं कि मैं उन दिनों क्या कर रही थी, बस मैं इतना जानती हूं कि हर पल, हर लम्हा यही सोचती थी कि मेरा जन्म यहीं क्यों हुआ? मैं कहीं और क्यों नहीं जा सकती? कई बार हब्बा खातून को याद किया। वह भी यूसूफ चाक के लिए गीत गाती फिरती थी. अब उनके गीत को मैं और अच्छे से समझ सकती हूं.
उस दिन हम सड़क पर खड़े थे, मिलिट्री की बड़ी-बड़ी गाड़ियां जा रही थी, ऐसी भी गाड़ियां जिसे हमने कभी नहीं देखा था, लोग कहने लगे थे कि फिर पाकिस्तान के साथ जंग होने वाली है. कुछ ने यह भी गुस्से में कहा कि कश्मीरियों को मारेंगे, लेकिन इंसान जब प्यार में होता है तो जंग के बारे में कहां सोच पाता है..हम अपनी जिंदगी के बारे में सोच रहे थे क्योंकि प्यार को कबूल कराने के लिए हमें घर में भी जंग लड़नी थी. हमें पता था कि हमारे घरवाले आसानी से नहीं मानेंगे. घरवाले प्रेम तो दूर पता चल जाए तो पढ़ने भी नहीं भेजेंगे. इसलिए हम दुनिया का तो सोच ही नहीं रहे थे और अपने ही जंजीरों में बंधे थे.
मुझे रोजाना लगता कि घर वालों से रो-रोकर बोलूं – अगर मुझे उसका पता नहीं चला तो मैं अब मर जाऊंगी, मेरे लिए सांस लेना मुश्किल हो रहा है, अपना शरीर कभी बहुत भारी लगता है या कभी इतना हल्का कि मैं दौड़कर उन पलों में जा सकती हूं, जब हम साथ थे. हमने साथ में डल झील के कितने चक्कर लगाए थे, कितनी बार परी महल गए थे और ‘लैला-मजनू’ फिल्म को फोन पर साथ में देखकर कितना रोये थे हम. कितनी बार कार में बैठकर शहर से दूर चले गए घूमने, डर तब भी लगता था कि कोई देखेगा तो जीना मुश्किल हो जाएगा मगर पता नहीं कैसे कर लेती थी, न जाने इतना साहस कहां से आ जाता था.
वह मुझसे छह साल बड़ा है और मेरे से ज्यादा समझदार. वह कहीं न कहीं से मेरा पता कर लेगा पर हम दोनों ने कभी भी एक-दूसरे के घर का पता ही नहीं लिया. बस जिले और गांव का नाम पता था. मैं तो इतनी पागल हूं कि उसके बाप का पूरा नाम तक याद नहीं किया था. ऐसा लगता था कि जब मिले थे तो सब पूछ लेना था, पूरी जिंदगी जी लेनी थी लेकिन क्या अब कुछ नहीं हो सकता? घर के बाहर खड़ी मिलिट्री को देखती थी तो गुस्सा और बढ़ जाता था, कोई हमारे साथ ऐसा कैसे कर सकता है? हमें बंद कैसे कर सकता था? अल्लाह ने इतनी ताकत किसी को क्यों दे दी?
अगस्त बीत गया. अब सितंबर था. तूफान थोड़ा शांत होने लगा था, अब मुझे इस जीवन की आदत सी होने लगी थी. मैं अब ‘सब कुछ ठीक है’ का ढोंग भी अच्छे से कर ले रही थी. करती भी कैसे नहीं. धीरे-धीरे एहसास होने लगा था कि अब यह लंबे वक्त तक चलने वाला है. इसके बाद डर भी थोड़ा कम लगने लगा. अब मेरा फेवरेट काम था नॉवेल पढ़ना, जितनी ज्यादा दर्द भरी कहानी, उतना बेहतर. मैं इन कहानियों में रोकर शायद अपना दर्द निकाल लेती थी. एक दिन डल झील के पास भी गई, इसी ख्वाहिश से कि शायद वह दिख जाए. कई बार झील को देखती और सोचती कि अब पलटूंगी तो वह सामने होगा लेकिन अब उस तरह की बेचैनी बाकी नहीं थी. न जाने क्यों यह विश्वास हो चला था कि मैं उससे रोज मिलती हूं, जाने कहां, वह पता नहीं लेकिन रोज मिलती थी.
रोज बताती हूं उसे कि मेरी पढ़ाई बर्बाद हो रही है जिसकी तुम्हें सबसे ज्यादा फिक्र थी. रोज बताती हूं उसे कि मैं चाय ज्यादा पीने लगी हूं, रोज कहती हूं उससे कि मेरे गालों की लाली फीकी पड़ रही है, रोज कहती हूं उससे कि तुम आकाश देखा करो, ठंडक रहेगी. रोज कहती हूं उससे कि तुम अब मिलना तो पैदल ही चलना, रोज कहती हूं उससे कि अब मिलेंगे तो साथ बैठकर हलवा खाएंगे, रोज कहती हूं उससे कि तुम अब अगर कत्थई रंग वाली फिरन पहनकर नहीं आए तो बात नहीं करूंगी तुमसे.
मैंने पूरे सितंबर खुद से ही बातें की.
फिर आया अक्टूबर. मेरी बहन को जाना था हजरत बल. हम साथ गए. वहां से निकले तो यूनिवर्सिटी का एक लड़का मिला जिसके बारे में मुझे पता था कि वह उसके साथ पढ़ता है. उस लड़के का दिखना ऐसा था कि मेरे पास शब्द नहीं है जाहिर करने को. किसी तरह से बात हुई. लगा यही मौका है कि इसको बता दूं कि उसको बोले कि वह यहां मुझसे मिल ले. कई बार लगा कि बताना सही रहेगा या नहीं मगर इतना सोचने का मौका मेरे दिल ने लिया ही नहीं. सीधे उससे कह दिया कि मैं उससे मिलना चाहती हूं क्या यह बात वह उसे बता देंगे. इस पर पता चला कि वह दिल्ली में है. सारी उम्मीद उससे मिलने की टूट गई लेकिन यह अहसास कम था क्या कि वह जिंदा है, ठीक है. मैं एक लैंडलाइन नंबर उसे देकर वहां से निकल गई.
इसके बाद फिर से बेचैनी शुरू हुई. इस बार कुछ ज्यादा था. अब मैं पहले कि तरह डरपोक नहीं रह गई थी, दिल ही दिल में मैं इसके लिए तैयार थी कि अब जिसको पता लगना है, लग जाए, मुझे कतई फर्क नहीं पड़ता. बस सोते-जगते फोन की घंटी बजती रहती थी मेरे दिलो-दिमाग में. तीन-चार दिन के बाद मेरी दोस्त ने कहा कि दिल्ली से फोन आया है मेरे लिए। मुझे अहसास था कि यह फोन उसी ने किसी से करवाया होगा। …या अल्लाह मैं उसकी आवाज सुनने वाली थी.
काफी देर तक मैं अपनी दोस्त के घर बैठी रही और फिर फोन आया. फोन उधर से किसी लड़की ने ही किया था और फिर नाम पूछकर फोन उसके हाथों में दे दिया. उधर से खैरियत पूछी गई, मैंने कहा कि बिल्कुल ठीक हूं. दरअसल यह बिल्कुल ठीक बिल्कुल झूठी जानकारी थी. यह वह भी जानता था और मैं भी. थोड़ी देर के बाद उधर की आवाज भारी हो गई. रोना मुझे भी आ रहा था लेकिन रो नहीं सकती थी. इधर से ज्यादा मैं बोल भी नहीं सकती थी. मैं उसकी बातें सुनती रही. कुल तीन मिनट हमारी बातचीत हुई. तीन मिनट कम नहीं था, यह तीन मिनट ऐसा था कि मैं दोबारा अपनी जिंदगी शुरू कर सकती थी, मैं भूल सकती थी कि मैं किस स्थिति में थी, लेकिन शायद मैं कभी भूल नहीं पाऊंगी कि मैं किस मन:स्थिति में डाल दी गई थी।
मैं जोर-जोर से रोना चाहती थी, हंसना चाहती थी लेकिन रोने और हंसना दोनों की इजाजत नहीं है. मैं इस पूरी दुनिया से चीख-चीख कर पूछना चाहती थी कि यहां किस बात की इजाजत है! …लेकिन कुछ नहीं किया. चुपचाप वहां से निकली और घर आ गई. रात में जाकर रोने का समय मिला, बहुत रोई और फिर सो गई.
इसके कुछ दिन बाद फिर फोन खुल गया. लेकिन मिलना कहां मुमकिन था, वह यहां जो नहीं था, अब बातें हो जाती थी. ऐसा करते-करते यह मनहूस साल बीत गया और नए साल में वह एक दिन मुझसे मिलने भी आ गया. मैं जब उससे मिलने जा रही थी तो लग रहा था कि किसी एकदम अजनबी से मिलने जा रही हूं. मैं समय से पहले कैफे पहुंच गई थी देखा तो वह मुझसे पहले वहां आ चुका था. उसका चेहरा थोड़ा-थोड़ा बदल गया था. शुरुआत में तो हम एक-दूसरे से आखें मिलाने से भी बचते रहे, यहां की बातें-वहां की बातें, खैरियत और फिर मैंने बोल ही दिया बिना आस-पास देखे कि तुम अपना हाथ दो ताकि जान लूं कि तुम ही हो. वह जोर से हंस पड़ा…
नोट: यह कहानी है कश्मीर की एक लड़की की, इसे शब्दों में लिखा है स्नेहा ने।