कश्मीर का मेरा चौथा दिन। बारामूला बंद है। अलगाववादियों ने आज कश्मीर में बंद बुलाया है। सड़कों से गाड़ियां नदारद हैं। हम जिनके यहां ठहरे हैं, वह हमारा दिन बर्बाद होने देना नहीं चाहते हैं। वैसे भी हम मन बना चुके थे कि अगर आज घर भी बैठना हुआ तो इसे बर्बाद होना नहीं कहेंगे क्योंकि हम कश्मीर की कहानियों के बीच में थे। हम कश्मीरी चाय और खाने-पीने की चीजों पर बातचीत कर रहे थे और बच्चे हमारे साथ बैट-बॉल और कैरम बोर्ड खेलने की तैयारी कर चुके थे। तब तक गुलमर्ग जाने का हमारा प्लान बन गया। हमें एक गाड़ी मिल गई जो जाने को तैयार थी। हम बच्चों के साथ थोड़ी देर तक खेलने और सुबह का नाश्ता करने के बाद गुलमर्ग की ओर जाने के लिए तैयार हो गए।
इस घर में एक बुजुर्ग महिला हैं जो हमारे साथ गुलमर्ग जा रही हैं क्योंकि उन्हें डर है कि हालात खराब होने की वजह से हमें परेशानी हो सकती है। सड़क से गाड़ियां नदारद हैं। अशांत माहौल में हर ओर चुप्पी और शांति छायी हुई है। कहीं भी कुछ लोगों को जमा देखकर मुझे लगता है कि यहां कुछ होने वाला है। दरअसल जब तक आप ऐसे माहौल में जाते नहीं हैं तब तक आपको अपने डर का अंदाजा नहीं लगता।

गुलमर्ग जाने में रास्ते में पड़ता है पत्रकार शुजात बुखारी का गांव किरी
हम सेब के बगीचों और कश्मीर के गांवों से गुजर रहे हैं।बिहार के गांवों में कोई जाए तो हर तरफ लोग दिखते हैं लेकिन यहां गांव खाली-खाली सा लग रहा।यहां कोई नहीं दिख रहा। कुछ लोग हैं जो सड़क पर शायद गाड़ी के इंतजार में खड़े हैं। एक महिला हमें दिखती है जो अपने छोटे बच्चे के साथ खड़ी है। हमारे ड्राइवर साहब गाड़ी रोककर उसे बैठाते हैं। महिला का घर पास ही के किसी गांव में है। इस गांव में एक बोर्ड देखकर मेरे मन में कुछ कौंधता है और फिर चौराहेनुमा जगह पर एक तस्वीर टंगी हुई दिखती है। यह तस्वीर है पत्रकार शुजात बुखारी की, जिनकी हत्या उनके दफ्तर के बाहर श्रीनगर की प्रेस कॉलोनी में कुछ हमलावरों ने कर दी थी। यह बुखारी का किरी गांव है। इस हत्या ने जता दिया था कि कश्मीर में अपनी आवाज उठाना और पत्रकारिता करना कितना मुश्किल काम है और हर तरफ से पत्रकार यहां एक सैंडविच बन गया है।
तब तक हमारी गाड़ी से एक ट्रैक्टर टकरा जाती है। हमें तो चोट भी नहीं आई लेकिन हमारी गाड़ी को नुकसान पहुंच गया। और फिर हमारे ड्राइवर और ट्रक ड्राइवर के बीच शुरू हुई कश्मीरी भाषा में बहस। कुछ लोग वहां जमा होते हैं। मैं और मेरी बिहारन दोस्त चुप बैठे हैं जबकि हमारी कश्मीरी दोस्त आराम से सेब खा रही हैं। हम उनसे पूछते हैं कि यह लोग कश्मीरी में क्या बात कर रहे हैं तो वह कहती हैं कि आप कश्मीर में छोटे-मोटे झगड़ों पर परेशान मत हुआ करो। उसका नुकसान पहुंचा है और ट्रैक्टर वाला उसका पैसा दे देगा बात खत्म। आपको क्या लगता है कि छोटे मामलों के लिए यहां पत्थर चलाए जाते हैं। मैं बस मुस्कुराती हूं और यही सोचती हूं कि एक तो बंद और अब यह ट्रैक्टर!
बंद में कैसे जीते हैं कश्मीरी लोग?
मैं अपनी कश्मीरी दोस्त से कहती हूं कि जिस दिन से आई हूं, यह बंद पीछा नहीं छोड़ रहा। हम वर्षों में भी एक बार दिल्ली के बंद से परेशान नहीं होते और यहां। इस पर वह कहती हैं, ‘‘जो लोग, जहां रहते हैं उसी के अनुसार जीना सीख जाते हैं, हड़ताल को हमने अपनी रोजमर्रा की जिंदगी का अब हिस्सा बना लिया है। हमारी परेशानियों का कोई हल नहीं है। पिछले एक-दो साल में कई बार ऐसा समय आया जब हम महीनों तक पड़ोसियों के अलावा घर से कहीं नहीं गए। सिर्फ इतना ख्याल रखते थे कि पड़ोस में किसके घर में किस चीज की कमी है और अगर हमारे पास है तो हम उन्हें मदद कर दें। हमारे घर उन हालात में ऐसे ही चले। खास तौर पर हम लड़कियों के लिए दिन-रात एक जैसा हो गया था। मेरी जो डिग्री छह महीने पहले आनी थी, वह अब आई है। कश्मीर की पढ़ाई का अल्लाह ही मालिक है।’’
हमने यह तो बच्चों से भी सुना था कि उनके स्कूल महीनों तक हालात खराब होने की वजह से कई बार बंद रहे थे। उन्हें कई बार स्कूलों में छुट्टी होने के बाद भी घंटों रूकना पड़ा था क्योंकि रास्ते में पत्थरबाजी हो रही थी। यहां एक बच्ची ने मुझे बताया भी था कि कैसे उसका स्कूल बस एक पत्थरबाजी की घटना के बीच में फंस गया था।
‘नॉर्वेजियन वुड’ की याद
मुझे नींद आने लगी है, मैं फिर से आकाश की ओर देख रही हूं और दूर पहाड़ों के बीच से कहीं-कहीं सफेद धुआं उठता दिखता है। मैं ड्राइवर से गाना बजाने को कहती हूं लेकिन वह नवाज का समय होने का हवाला देते हुए मना कर देते हैं। मुझे थोड़ा अजीब लगता है लेकिन सबके अपने-अपने विश्वास। मैं चुप रहती हूं। और आकाश और चीड़ के पेड़ को देखकर मुझे बीटल्स का गाना ‘नॉर्वेजियन वुड’ की याद हो आती है। कश्मीर आपके अंदर जमी कई परतों को बेहद धीरे-धीरे कुरेदता है और आपसे बार-बार पूछता है कि आप अपने ही ख्यालों को कहां तक चुनौती दे सकते हैं। सवालों के जवाब में आपके सामने सिर्फ सवाल आते हैं।

कितने टुकड़ों में बंट रहे हैं हम
हमें अपनी जिंदगियों में बहुत कुछ करना था लेकिन हम अभी तक जंगल और जमीन ही बांट रहे हैं। तुम यहां के, हम यहां के। बस इससे आगे की हमारी बहस बढ़ती ही नहीं है। यह बढ़ेगी कैसे? हमारे सामने हमारे उन सपनों का बोझ जो है, जिसे दरअसल देखा ही नहीं जाना चाहिए। वैसे सपने क्यों देखें जाएं जिसमें इंसान का इंसान से रिश्ता आगे बढ़ने की बजाय पीछे खिसकता हो। वैसे आपके पास अगर नेक दिल है तो कश्मीर में धड़कने का बहाना बहुत है। और बहाना क्यों कहें, सच्चाई बहुत है। लेकिन उसके लिए आपको कई बार खुद के विचारों को चुनौती देनी होगी।
हम गुलमर्ग पहुंच चुके हैं। मैंने कहा न कि कश्मीर में बंद हमारा पीछा नहीं छोड़ेगा। यहां गोंडोला बंद है। यह रोपवे है। हम पार्क में बैठ जाते हैं। कश्मीर में ‘भ’ नहीं ‘ब’ बोलकर ही लोग काम चलाते हैं। हम अपनी दोस्त के मुंह से कई ऐसे शब्द सुनकर हंसी-मजाक करते हैं। खैर मेरा खुद का मजाक ‘स’ और ‘श’ को लेकर उड़ता रहता है।
कुछ समय तक गुलमर्ग के पहाड़, पत्थर देखने के बाद हमलोग बाजार में टहलने लगते हैं। और फिर वापस गाड़ी में बैठते हैं। मैं अपने ड्राइवर से एक बार फिर दोनों दोस्तों के कहने पर गाना बजाने का आग्रह करती हूं और वह मान जाते हैं। हम अब एकदम मस्ती करने के मूड में हैं। थोड़ी-थोड़ी बारिश होने लगी है, हमारे ड्राइवर साहब हमें बाबा रेशी की दरगाह की ओर लेकर जाते हैं। वह बताते हैं कि मुस्लिमों के लिए यह ज़ियारत की जगह है यानी तीर्थयात्रा। मैं उनसे पूछती हूं कि यहां लड़कियां जा सकती हैं तो वह हामी भरते हैं और सिर पर दुपट्टा रखने की सलाह देते हैं। मैं दुपट्टा नहीं रखने को लेकर हजरतबल की डांट अभी तक नहीं भूली थी। कहां-कहां लड़ोगे, यह सोचकर मैं उतरती हूं और चल देती हूं। आस्था इस दुनिया में बहुत नहीं, बहुत-बहुत बड़ी चीज है। वहां जाकर देखती हूं तो लड़कियां दूर से और लड़के पास से बाबा रेशी का दर्शन कर सकते हैं। हम वापस आते हैं। रास्ते में हमारी दोस्त हमारी तरह ही बिंदी लगा लेती हैं। जो एक बेहद छोटी सी बात है, जिस पर मैंने ध्यान भी नहीं दिया था। लेकिन हमारे ड्राइवर साहब की नजर पड़ी और उन्होंने हमारी दोस्त को इस्लाम की शिक्षा दे मारी। हमारी दोस्त ने बेहद अच्छा सा जवाब उन्हें दिया और मुझे जितना बोलना था बोल गई। लेकिन यह देखकर मेरा दिमाग एकदम सन्न रह गया। मतलब एक बिंदी भी लड़की अपने मन से नहीं लगा सकती। आप किसी के सिर पर दुपट्टा रखवा सकते हैं लेकिन कोई अपने मन से बिंदी नहीं लगा सकती। वाह!
मेरा मन अब उस गाड़ी में एक पल भी बैठने का नहीं कर रहा था। लेकिन मैंने कहा न, हम लड़कियां कहां-कहां लड़ें? और फिर लोग कहते हैं कि लड़कियों का माथा खराब रहता है। हम अपनी दोस्त से इसके बाद कश्मीरी महिलाओं के जीवन पर बात करने लगते हैं। मैं पिछले तीन दिन में कश्मीर की सड़कों से लेकर कई घरों को देखकर इतना तो समझ चुकी थी कि कश्मीर में पर्दा प्रथा बहुत है। महिलाओं की कमोबेश वही स्थिति है जो देश के दूसरे जगहों में हैं। हमारी दोस्त हमें बताती हैं, ‘‘यहां ज्यादातर घरवाले लड़कियों और औरतों को सिर्फ सरकारी नौकरी में ही जाने देना चाहते हैं। पढ़ाई के विषय भी आस-पास के माहौल को देखकर चुने जाते हैं। हमारी पढ़ाई और हमारी आजादी दोनों के लिए काफी जंग है।’’
मुझे अपने अनुभव से लेकर दूसरे के अनुभवों तक यह पता है कि कहीं भी हालात खराब हों तो उसकी पहली शिकार महिलाएं ही होती हैं। जितना आपके आस-पास का माहौल खराब रहेगा लड़कियों की आजादी कैद होती चली जाएगी। उसे कपड़ों में समेट-समेटकर घरों में छुपाया जाएगा। जब भारत के दूसरे राज्यों के गांव इससे अछूते नहीं हैं तो अफ्सपा वाला राज्य कश्मीर इससे अछूता कैसे रह सकता है?
हमारी दोस्त के दो दोस्त भी हमें रास्ते में मिल गए। वह हमें एक झरना दिखाने के लिए ले गए। यह जगह भी बेहद खूबसूरत। थोड़ी मुश्किल होती है पत्थरों पर सहम-सहम कर पांव रखने में लेकिन पहुंच गए तो लाजवाब। अब शाम घिर चुकी है। हम वापस बारामूला लौटने की तैयारी में हैं। हमें गाड़ी में पता चलता है कि हमारे अभी-अभी बने दोस्तों ने हमें सेब दिया है और वह भी बोरा भरकर, जिसे दिल्ली ले जाना हमारे लिए संभव नहीं। फिर भी हम सेब देखकर बहुत खुश हुए। वैसे हम आज भी काफी सेब कुतर चुके थे।

आकाश निहारते-निहारते बारामूला पहुंच गई। श्रीनगर के दोस्तों के फोन आ रहे थे कि अगर हम आज श्रीनगर पहुंचे तो ठीक है वरना कल श्रीनगर बंद है। यहां बारामूला की दोस्त कह रही थीं कि अब इस समय जाना ठीक नहीं रहेगा और गाड़ियां भी नहीं चल रही है। हमने श्रीनगर वापस लौटने की हरसंभव कोशिश कर ली लेकिन संभव नहीं हो पाया। अब आज रात यहीं रूकना था। हमें घर में घुसते ही कांगड़ी दी गई और बैठकी में तीन-चार कंबल लपेट दिया गया। बच्चे फिर डांस में जुट गए। हमने कहवा पी। और बच्चों में डूब गए।
कश्मीर में नब्बे का दशक
इसके बाद आया खाना और फिर शुरू हुई घर की एक महिला से हमारी बातचीत। मैं कश्मीर के नब्बे के दौर के बारे में बात करना चाहती थी। वह पढ़ी-लिखी हैं और बतौर फैशन डिजाइनर काम कर रही हैं। वह बताती हैं कि कश्मीर में नब्बे के मुकाबले मौजूदा हालात बेहतर ही कहे जा सकते हैं। उनका कहना है कि वाजपेयी के समय हालात ज्यादा ठीक हुए थे। वह नब्बे की कहानी हमें सुनाने लगती हैं। यह कहानी ऐसी है कि आप रो पड़ें। यह घरों के उजड़ने की दास्तान है। यह उन लड़कों की कहानी है जो बहुत कुछ बन सकते थे लेकिन मिलिटेंट बन गए। यह अपनी जड़ों से भागने को बेबस किए गए उन पंडितों की कहानी है जो हमेशा के लिए अपनी मिट्टी से कट गए।
हम बातचीत कर ही रहे होते हैं कि उनकी एक बच्ची कहती है कि घर का दरवाजा खुला है। वह उससे दरवाजा बंद करने को कहती हैं तो वह चुप्पी साध लेती है। इसी बीच एक छोटी लड़की चिल्लाते हुए कहती है, ‘‘तुम सब डरपोक हो। कोई गोली नहीं मारेगा। वह जाकर दरवाजा बंद कर आती है।’’
मेरी कश्मीर यात्रा का चौथा दिन समाप्त हो रहा है, कल हमें वापस सुबह-सुबह श्रीनगर पहुंचना है ताकि हम अपने दोस्तों के साथ अनंतनाग जा सकें।
नोट: यह ब्लॉग स्नेहा ने लिखा है। वह पेशे से पत्रकार हैं।