दिसंबर खत्म हो गया एक बार फिर. वैसे तो सब कुछ खत्म ही हो जाना है. यह तय है. लेकिन हर बार दिसंबर का खत्म हो जाना, मेरे अंदर प्रेम का एक कोना दरक जाने के तरह है. शॉल ओढ़े, स्वेटर में हाथ डाले, रजाई में बैठे सब कुछ छोड़ देने की चाहत और फिर हर चीज को पकड़ लेने की चाहत दिसंबर में ही क्यों होती है? दिल्ली की मेट्रो में बैठे–बैठे मुझे फिल्म 2046 की याद आ रही है, लेकिन अगला स्टेशन हौजखास है, मुझे यहीं उतरना है. मैं कितनी बार पहाड़ों और किलों पर इस उम्मीद के साथ गई कि कुछ तो वहीं छोड़ आऊंगी. हालांकि हुआ इसके उलट, मैं उन पहाड़ों और किलों को साथ लेकर चली आई. न जाने क्यों मुझसे कुछ छूटता ही नहीं?
मैं दिसंबर में पैदा हुई. मम्मी बताती है उस दिन बहुत घना कोहरा था और अब भी मम्मी ठंड के कोहरे की तुलना उसी कोहरे से करती है. दिल्ली में बैठी हुई सोचती हूं कि मां के ईसीजी रिपोर्ट को किसी डॉक्टर के पास भेजने के दुख से भी ज्यादा बड़ा कोई दुख है भला? जब मुझे मम्मी के पास होना था, तब मैं किसी और की तकलीफ की खबर टाइप कर रही थी और मुझे इस बात से बिल्कुल फर्क नहीं पड़ रहा था किसी को मार दिया गया है. मैं कितनी निर्दयी हो गई हूं, दिसंबर शायद इस वजह से भी पसंद है मुझे, क्योंकि यह मुझे दुनिया की निष्ठुरता याद दिलाती है.
मुझे दिसंबर खूबसूरत जान पड़ता है क्योंकि यह सब कुछ जम जाने का महीना है, मैं फिर भी इस महीने में प्रेम करने के खतरे उठाती रही हूं. कहते हैं कि प्रेम में सब समय की बात होती है. हां, यह सच है, वगरना कोई क्यों ट्रेन के जनरल डिब्बे में खिड़की पर बैठा बिना वजह मुस्कुराता है? और कोई क्यों किसी अच्छे से कॉफी शॉप में अकेले–अकेले बैठकर अचानक रो पड़ता है. यह सब प्रेम की ही बात होती होगी, है ना? लेकिन इस बात में बराबर खुश होना कि जो भी है, सब बीतने वाला ही है. इसी एहसास का नाम दिसंबर है.
दिसंबर का चौथा सप्ताह शुरू होते ही लोग मूल्यांकन करने बैठ जाते हैं. मैं भी ऐसे लोगों से अलग थोड़े ही हूं. भले ही भीड़ देखकर मैं एक कोने में खड़ी होने की कोशिश करती हूं लेकिन कोना पकड़ना ऐसे ही है, जैसे सब जिम्मेदारियों से भाग जाना. मुझे भी जिम्मेदारियां लेना कहां आता है. इस साइबर युग में भी मैं लगभग चार महीने खराब फोन के साथ रही लेकिन मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा. फोन से हजारों नंबर चले गए लेकिन कोई मलाल नहीं. बस कुछ वैसे लोगों के नंबर जाने का मलाल है, जिनसे एक–दो दिन की जान–पहचान थी. हो सकता है कि ऐसे लोग मुझे कभी खोज लें या फिर मैं उन्हें खोज लूं. आज ही तो मैं उस लड़की को तिब्बती मार्केट में खोज रही थी, जिसने मुझे अपने रेस्त्रां आने का ऑफर किया था.
दिसंबर के आखिर में यह धड़कन क्यों तेज होने लगती है? क्यों घड़ी को रोक लेने का मन करता है. जबकि घड़ी तो महज एक सुविधा का नाम है, ताकि हम यह याद रख सकें कि दुनिया में किस समय, कितने युद्ध हुए थे और कितने लोग उसमें अनायास झोंक दिए गए थे. वरना सुख की घड़ियां तो जीने में ही बीत जाती हैं, घड़ी किसके लिए रुकती है. इन्हीं घड़ियों के बारे में लंबी रातों में जागकर सोचने का नाम दिसंबर है।
साल के अंत में इस साल दिसंबर में बहुत कुछ बताने को है, ढेर सारी मुस्कुराहटें मैंने अपनी छोटी–छोटी आंखों में समेट ली हैं. मैं इस साल बर्फ देख लेना चाहती थी, वह देख लिया. समंदर देखना चाहती थी, वह भी देख लिया. बस रेत रह गया. दिसंबर यूं ही सब कुछ होकर भी सब होना बचा रहेगा का महीना थोड़े न है…
1 Comment
Shriram Sharma December 26, 2018 at 8:15 pm
बात कुछ अधूरी सी रह गई,,जब तक हम दिसंबर में डूबकी लगाते, फट से जनवरी आ गया,,कुछ जुड़ते-जुड़ते रहने से छूट गया,,