बालकनी पर केहुनी टिकाकर खड़े होना और नीम की पीली पड़ी पत्तियों को गिरता देखना, दिन कुछ ऐसे गुजरता है. एक-एक दिन के साथ लगता है कि अब और नहीं…बस. फ्यूचर ऐसा लगता है कि प्रेज़ेंट हो गया और प्रेज़ेंट जैसे किसी गुजरे दिन की बात हो गई. अब कोई फसाना पढ़ने का भी दिल नहीं करता, क्योंकि ज़िंदगी फसाने से कहीं आगे बढ़ चुकी है. ज़िंदगी को अब उस पर विश्वास हो चला है जिसे साईफाई कहा जाता है. साइंस क्या है और फिक्शन क्या है? साइंस कोरोना है और फिक्शन है हमारा दिल और दिमाग. बड़ी क्लीशे सी बात हुई लेकिन क्या करें अभी यही है. दोनों ने मिलकर कोई कहानी रची है, ऐसी कहानी जिसको जीते-जीते महज कुछ दिनों में ही उकता से गए हैं. उकताना कुछ ऐसा कि बालकनी में खड़े हों तो कमरे में जाकर लगे कि अब ठीक है, और कमरे में खड़े हों तो लगे कि सांस ही नहीं ले पा रहे. सांस की ही तो दिक्कत है कोरोना. सामने से एक शहर को बर्बाद होते देखो फिर दूसरे शहर के आंकड़े गिनो, फिर तीसरे शहर की स्थिति के बारे में पूछ लो. यही तो कर रहे हैं हम पिछले तीन महीने में. तीन महीने में, मतलब तीन महीने में… लोगों ने विश्वयुद्ध कैसे झेला होगा, लोगों ने आजादी की लड़ाई कैसे लड़ी होगी, लोगों ने कैसे जीती होगी गुलामी के खिलाफ जंग. लोग कैसे रह लेते हैं एक सी स्थिति में लंबे समय तक? इन सब सवालों के जवाब इन्हीं दिनों और रातों के काटने में है, और जिंदगी जीना जैसे कोई रणनीति बनाना हो गया हो.
रात पर दिन भारी पड़ रहा और दिन पर रात. रात में अजीब-अजीब से सपने आने लगे हैं. खुद को कभी उत्तर कोरिया में तो कभी अंटार्कटिका में देखना. हंसी भी आती है. मुझे जब कुछ समझ नहीं आता तो कमरे में यह देखने लगती हूं कि कौन-कौन से सामान फेंके जाने हैं. इन सामानों को देखकर पता लगता है कि इससे पहले वाली सफाई में भी इन्हीं सामानों को फेंकने के लिए रखा गया था लेकिन फिर फेंका नहीं गया. पता नहीं तब क्या सोचकर छोड़ दिया. कुछ भी पढ़ने बैठो तीन-चार पन्नों से ज्यादा पढ़ा नहीं जाता, फिल्में देखने में भी वह बात नहीं रही. यानी सब अनमना सा है.
हाल ही में इटली की एक लेखिका ने ब्रिटेन के नाम एक पत्र लिखा… – A letter to UK from Italy: this is what we know about your future – यह पत्र पढ़ते हुए लगा था कि भले ही यह ब्रिटेन के नाम हो लेकिन यह उन तमाम शहरों और उन बाकी शहरों के लिए जो या तो कोरोना की चपेट में हैं या कोरोना की चपेट में आते जा रहे हैं.
We are but a few steps ahead of you in the path of time, just like Wuhan was a few weeks ahead of us. We watch you as you behave just as we did. You hold the same arguments we did until a short time ago, between those who still say “it’s only a flu, why all the fuss?”
पहले अपने देश की संख्या ऐसे पूछती थी कि कितने लोग संक्रमित हुए, फिर कितने सौ लोग संक्रमित हुए और अब हजार. मरने वालों की संख्या भी सैंकड़ों में पहुंच गई. यानी यह सब डरावना सपना आस-पास पहुंच चुका है. जो लोग सकारात्मक बने रह सकते हैं, वह जरूर बने रहें, लेकिन मेरी स्थिति ऐसी है कि हर बीतते दिन के साथ लगता है कि इससे ज्यादा अब और नहीं हो पाएगा. दिन गिनने तो पहले ही बंद कर चुकी हूं. यहां दोहरी निराशा है. पहली निराशा कोरोना से उपजी है और दूसरी निराशा-धर्म के चंटु-बंटु और सरकार से है. इसमें जितना घुसो जहर और बढ़ता जाता है. इससे पहले कि यह जहर हमारे अस्तित्व को तबाह कर दे, हमें इस जहर से मुक्त होना होगा. तब तक के लिए जिसकी जैसी स्थिति है… वह काटते रहिए…