पाकिस्तान के पते पर राजस्थान से लिखा गया खत

पाकिस्तान के  पते पर राजस्थान से लिखा गया खत

मैं नहीं जानता कि इस खत को कौन पढ़ेगा. पर मैं चाहता हूं कि जो भी पढ़े वो इस खत को समझ सके. पाकिस्तान के पते पर यह खत इसलिए लिख रहा हूं कि मैं इन दिनों डरा हुआ हूं. मैं जितना समझने की कोशिश कर रहा हूं उतना उलझता जा रहा हूं. क्या एक तार खिंच जाने से हमें इतना अधिकार मिल गया है कि हम अपने जैसे ही लोगों को मारनेबिखेरने की बातें करें. मैं इन दिनों टीवी देखने लगा हूं फिर से, यह देखने के लिए कि टीवी देख रहे लोगों का टीवी देखते हुए क्या रिएक्शन है. टीवी पर जब पाकिस्तान की खबरें आती हैं तो लोगों की आँखों में खून उतर आता है.

मैं राजस्थान के जैसलमेर जिले के लौद्रवा गाँव में रहता हूं. लौद्रवा वही जहाँ अमरकोट का राणा महेंद्रा अपनी प्रेमिका मूमल से मिलने आता था. मेरे गाँव के सत्तर फीसदी लोग 1965 में पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए हैं. हालांकि पाकिस्तान में जिस जगह से वो लोग आए हैं वो यहां ज्यादा दूर नहीं है. लौद्रवा से कराची, मीरपूर खास, थारपारकर ये सब जगहें राजस्थान की राजधानी जयपुर से भी नजदीक हैं. पर इतनी दूरियाँ बढ़ा दी गई हैं कि लगता है ये जगहें किसी और ग्रह पर हैं.

माई धाई जब गाती है नामोरूड़ा रे मोरूड़ा रे तूं क्यां बोल्यो रे ढळती रात रो म्हारे उड गई रे नैणा रे वाळी नींद मोरियातो ऐसे लगता है मैं अपने खेत में खेजड़ी के नीचे बैठा हूं और पठियाळ में बैठा कोई गा रहा है सुरीली आवाज़ में. कहीं से नहीं लगता कि इतनी दूरियाँ है. पता नहीं कहाँ से आ गई हैं ये दूरियाँ। सिंध की कहानियाँ तो सारी अपने घर में कही जा रही कहानियाँ लगती हैं. वही बोली, वही हवा, वही माड़ू, वही गीत, वही रिवाज़. मन करता है कि मीरपुर खास के आम फेस्टिवल में जाऊं और आम चखकर आऊं. कराची जाऊं और परखूं कि दिल्ली, जयपुर जैसा ही शहर है या कुछ अलग है. मैं तांडो अल्लाहयार जा कर देखना चाहता हूं कि वहां के रामदेव मंदिर आने वाले भक्त रामदेवरा आने वाले भक्तों की तरह ही कठिन यात्रा करके आते हैं. मैं अमरकोट जाकर देखना चाहता हूं कि रोज़ लौद्रवा मूमल के पास आने वाले महेंद्रा का शहर कैसा है.

मैं देखना चाहता हूं कि तारबंदी के उस पार हढ़ाकर, राहल लासरी के लोग भी वैसे ही हैं जैसे वहां से आए यहाँ के लोग हैं. क्या वहां भी शाम को बच्चियों को मिनीमारो छुड़वाया जाता है, क्या वहां भी दादी सुनाती है कि चाँद पर डोकरी बिलौना करने वाली कहानी. क्या वहाँ भी मांगणियार गाते हैंसैणा रा बायरिया धीमो मधरो बाज’.

पता है मैं किस डर से यह खत लिख रहा हूं. राहल और हढ़ाकर से आए लोग भी अपनी जन्मभूमि के लिए कटूता से भरे हैं. मैं समझना चाहता हूं कि वहां के लोग भी हिन्दुस्तान को ऐसे ही गालियाँ देते हैं. लोगों का दिल नहीं पसीजता होगा कि दोनों तरफ के लोग तो एक जैसे ही हैं. इतना कुछ एक सा है फिर भी क्यों एकदूसरे को खत्म करना चाहते हैं. वहां पर ऐसे लोग हैं क्या जो लोगों को समझाते हो कि दोनों तरफ एक से लोग हैं लड़ना नहीं चाहिए. यहाँ के लोग आसानी से यूरोप, अफ्रीका जा सकते हैं पर यहाँ से तीन घंटे दूर थारपारकर जाकर अपने लोगों से नहीं मिल सकते।.कितना बुरा लगता है. कभी जहाँ हर रोज बकरियाँ चराने जाते थे आज उस जगह पर बम फेंकने जैसी बातें करते हैं.

सब कहते हैं कि चंद नेता अपनी राजनीति चलाने के लड़वा रहे हैं तो इतने लोग नहीं हो सकते जो प्यार फैलाएं. जो सूफी लोगों की तरह जीने दें। गातेबजाते घूमने दें.

ऐसे लड़ने के बहाने ढूंढें तो फिर तो हर घर, हर मोहल्ले, हर गाँव, हर शहर, हर समुदाय के बीच ही तारबंदी खिंच जाएगी. मैं सोचता हूं कि किसी दिन थार एक्सप्रेस में बैठकर उधर आऊं और फिरफिर कर लोगों से पूछूं कि जब माई धाई और लूणे खां एक ही तरह के गीत गाते हैं, जब थारपारकर और जैसलमेर के लोग एक ही बोली बोलते हैं तो फिर इतनी दूरियाँ क्यों हैं। क्या हम सब चाहें तो ये दूरी पाट नहीं सकते. हम सब एक ही तो हैं.

खोलो ना ये तारबंदी मुझे मीरपुर खास के आम खाने हैं.

यह खत जैसलमेर के सुमेर सिंह राठौड़ ने लिखा है। सुमेर बड़के तस्वीरबाज हैं और इनका दिल फोटो और रेत में ज्यादा रमता है।