दून घाटी
अप्रेल 3, 2020
प्रिय …..,
इस विश्वास के साथ तुम्हें लिख रही हूँ कि तुम जहाँ हो, मुझे सुन रहे हो. हमारे आख़िरी बार मिलने से लेकर अबतक दुनिया बहुत बदल चुकी है, देश भी. मैं भी अब वह नहीं हूँ. और तुम भी अब कुछ और हो गए होगे. इतने समय में क्या कुछ नहीं हुआ, पुलवामा हमला, सत्रहवीं लोकसभा का चुनाव, सिटिज़नशिप अमेंडमेंट बिल, मुझे जेल और अब कोरोनावाइरस का यूँ दुनिया को घरों में क़ैद कर देना. क़ैद तुम्हारे लिए नहीं है, जानती हूँ.
बुद्धिमान लोगों ने कहा है कि एक व्यक्ति कभी दो बार एक नदीं में पाँव नहीं रखता. तब फिर क्या है जो यह विश्वास बनाए रखता है कि पिछली बार नदी में उतरे व्यक्ति ने नदी से वार्तालाप को जहाँ छोड़ा था, अगली बार दोनों मिलेंगे और कथा वहीं से शुरु होगी?
आह! यही तो तुमने कहा था. जाने से ठीक पहले.
मुझे यकीन है कि ऐसा ही होता है. यही होता है. प्रेम किसी भी तरह का क्यों न हो. खत्म नहीं होता. जीवन रहते तो नहीं. तुम्हें लिखते हुए मैं एक बार शुरू से शुरू करना चाहती हूँ कि प्रेम है क्या. मेरे लिए.
शुरुआती अनुभवों की तरफ़ जाती हूँ तो चलचित्र में बहुत से चेहरे दीखते हैं. तेज़ गति से चलते हुए. इनमें से कुछ ही चेहरे पहचानने में आते हैं. मेरे पैतृक घर में रहने वाले लोगों के चेहरे, दादी, चाचा, भाई-बहन, घर की दीवारें… मैं उन सबके बीच खड़ी ऐसा महसूस करती हूँ कि… अ रिवर इज़ गशिंग थ्रू माइ हार्ट. आइ वॉन्ट टू इम्ब्रेस द वर्ल्ड आइ सी एंड क्लोज़ माइ आइज़.
उन चित्रों के लिए अब भी मन में वैसा ही कुछ उमड़ता है, जैसा बचपन में उमड़ा करता था.
अब मैं फिर एक बार आँखें बंद करती हूँ और देखती हूँ कि मेरे इस प्रेम संसार में और क्या है. कौन है? यहाँ स्कूल की डॉरमेटरी का मेरा बेड है, अकैडमिक ब्लॉक के लॉन्स हैं. मेरी कविताएँ हैं, पेन्टिंग्स हैं, स्कूल की असेंबली में बोलती हुई, पतझड़ की हवाओं से बिखरे पत्तों पर शाम को, दो हॉस्टल्स के बीच के रास्ते पर चहलकदमी करती हुई, सेल्फस्टडी वाले समय में किसी ख़ाली क्लास में खिड़की के किनारे बैठकर कुछ सपने बुनती हुई मैं हूँ, मेरे कुछ शिक्षक हैं जिनकी आँखों में मेरे लिए प्यार है. बस.
यहाँ उन लड़कों में से कोई नहीं है जिन्हें में अपना क्रश कहती हूँ, न उन लड़कियों में से कोई, जो मेरी दोस्त कही जा सकती थीं. यानी स्कूल के सात साल सिर्फ़ सेल्फ लव के बारे में रहे हैं.
उसके बाद के कुछ सालों में पिता के घर में मेरा छोटा सा कमरा है. किताबें हैं, डायरी है, कविताएँ हैं, संगीत है. बस. और कुछ भी नहीं.
फिर उसके बाद यूनिवर्सिटी का खूबसूरत कैंपस, बाइसिकल, थ्री कलर ट्रिलोजी, बनारस के घाटों की सीढ़ियाँ, पुराने घरों के पुराने रंग और कंगूरों वाले छज्जे, अनेकों शहरों की अनेकों गलियाँ, दुकानें, श्रीनगर एयरपोर्ट, राजबाग और ज़ीरो ब्रिज, दपोरिजो से ताकसिंग तक का रास्ता, अंजुना और फिर तुम… तुम्हारे बाद का सबकुछ तुम से गुज़रता है. जैसे तुमसे पहले का सबकुछ तुमसे गुज़रा है.
इसलिए ये चिट्ठी तुम्हें लिखी जानी है.
ग्रीक माइथोलॉजी में कहते हैं कि मनुष्य पहले ऐसा नहीं दीखता था. वो एक गोल सा जीव होता था जिसके दो सिर, चार पैर होते थे. मान लो कि आज के दो मनुष्यों को बीच से जोड़ देने पर बना कोई जीव. ये तीन लिंगों के जीव हो सकते थे. एक वह जिसमें दोनों हिस्से पुरुष थे, एक जिसमें दोनों हिस्से स्त्री, और एक वो जिसमें एक हिस्सा स्त्री और दूसरा पुरुष था. एक समय में जब ये इतने ताकतवर हो गए कि देवता भी इनसे डरने लगे तो इनकी ताकत कम करने के लिए इन्हें दो हिस्सों में बाँट दिया गया. तब से वे अलग हुए हिस्से अपना आधा हिस्सा तलाश रहे हैं.
अपनी दार्शनिक उपन्यासिका द सिम्पोज़ियम में प्लेटो ने अपने एक पात्र, नाटककार अरिस्टोफेन्स के हवाले से लिखा है, “मानव को दो हिस्सों में बाँट दिए जाने के बाद, जब एक दूसरे को तलाश रहे दो हिस्से वापस मिले, उन्होंने एक-दूसरे के गिर्द अपनी बाँहें डालीं और एक दूसरे को इस तरह गले लगा लिया जैसे वे फिर से एक हो जाना चाहते हों. ”
कभी-कभी मैं सारी दुनिया को गले लगा लेना चाहती हूँ. व्हेन आइ फ़ील द रिवर गशिंग थ्रू माइ हार्ट.
तो क्या ये सारी दुनिया मेरा अदर हाफ़ है?
अगर प्रेम पर थोड़ी और किताबी बात करें, तो संस्कृत के मूल शब्द ‘लुभ’ यानी इच्छा से जर्मन लीब्अ या अंग्रेज़ी का लव शब्द जन्म लेता है. पुरानी ग्रीक भाषा में इस तरह की संकल्पना के लिए तीन अलग-अलग शब्द हैं, एरॉस, फीलिआ और अगेप.
प्लेटो को सुना जाए तो एरॉस का अर्थ है सुंदरता की इच्छा, यह सुंदर कुछ भी हो सकता है, शरीर भी, विचार भी. उनके मुताबिक़ सुंदरता के लिए यह प्यार, यह इच्छा कभी पूरी नहीं होती, सुंदरता से मन कभी नहीं भरता. मरते दम तक. यहाँ किसी भी विचार या शरीर की सुंदरता के विचार से प्यार किया जा सकता है. और उस सुंदरता की ओर से बदले में तुम्हें भी वैसे ही प्यार किए जाना, यानी रेसिप्रोसिटी का होना ज़रूरी नहीं होता. यह फ़िज़िकल डिज़ायर नहीं है. फ़िज़िकल डिज़ायर या शारीरिक इच्छा को इस प्यार से नीचे की चीज़ कहा जाता है, क्योंकि वह हम अपने से नीचे के बाकी जानवरों के साथ साझा करते हैं. शारीरिक इच्छा या प्यार उत्तेजना और प्रतिक्रिया पर आधारित होता है, न कि तर्क और विवेक पर.
पर एरॉस जहाँ सुंदरता की तर्कसंगत पर अदम्य इच्छा है, वहीं फीलिआ किसी के प्रति अनुराग और प्रशंसा की भावना है. इसे आमतौर पर दोस्ती समझ सकते हैं. अरस्तू ने इसके बारे में लिखा है, “दोस्ती के लिए उदारता ज़रूरी है, बिन माँगी उदारता. और यह भी कि उदार कामों को करने के बाद जताया न जाए.” अरस्तू की इस दोस्ती में वापस प्यार पाने की उम्मीद, यानी रेसिप्रोसिटी साथ रहती है. पर ज़रूरी नहीं कि जितना प्यार आप करें, आपको वैसा ही प्यार वापस मिले. यहाँ वापस मिलने वाला प्यार आपके गुणों पर निर्भर करता है. आप जितने उदार, जितने बेहतर, जितने गुणी हैं, आपको उतना अधिक प्यार मिलता है.
अगेप वह प्यार है जो आप ईश्वर से करते हैं, ईश्वर आप से करता है, और वह भी जो आप पूरी मानवता से करते हैं.
मैं इन तीनों तरह के प्यार से गुज़रते हुए तुम्हारे बारे में सोचती हूँ. या फिर ये कहूँ कि तुम्हारे बारे में सोचते हुए इन तीनों तरह की परिभाषाओं को भावना के स्तर पर महसूस करती हूँ.
प्रेम, मैं समझती हूँ कि स्वप्रेम से ही शुरु होता है. और वहीं तक जाता है. परसों एरिक फ्रोम ने वैसा ही कुछ कहा, जब उन्होंने कहा कि अपनी स्वयं की मौलिकता तक जाना ही अकेलेपन का इलाज है. आज एक जगह चाणक्य का ज़िक्र हुआ तो वे भी स्वधर्म की बात करते हैं, स्वधर्म यानी आपकी नैसर्गिक प्रतिभा. उसी मौलिक प्रतिभा के पीछे जाना आपको अपने भीतर तक ले जा सकता है. आपको खुशी दे सकता है. और जब आप अपनी उस मौलिकता को पहचानने लगते हैं, तभी आप प्रेम की तरफ़ बढ़ पाते हैं. तभी आपके भीतर और बाहर की दुनिया के फ़ासले कम होने शुरू होते हैं.
प्यार के बारे में बात करते हुए बात यह भी होती है कि क्या दो लोगों के बीच का एरॉस प्रेम उनके बीच दोस्ती या फीलिआ को बढ़ा सकता है? या फिर क्या फीलिआ इस स्तर पर पहुँच सकता है कि उनमें एरॉटिक रिश्ता बन जाए?
यहाँ मैं अरुँधती की गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स के जुड़वाँ भाई-बहन राहेल और एस्था को याद करती हूँ. बहुत कुछ बीत जाने, के बाद जब दोनों एक बार फिर मिलते हैं, तो इस तरह से मिलते हैं कि उनके बीच कोई द्वैत नहीं रहता. वे दोनों एक-दूसरे को बहुत पहले से जानते हैं. तब से, जब जीवन शुरू भी नहीं हुआ था.
इस चिट्ठी को लिखते हुए, मैं तुमसे रेसिप्रोसिटी की उम्मीद नहीं करती. बस इतनी उम्मीद करती हूँ कि हम कुछ देर साथ बैठ सकें. वैसे, जैसे हम अंजुना पर, सुबंसिरी के किनारे या गोकर्ण में अरब सागर के तट पर बैठे थे. हम हमेशा पानी के किनारे साथ बैठे. या जहाँ भी साथ बैठे, पानी हम तक चला आया. मैंने न जाने कितनी ही शामें तुम्हें अरब सागर के उस पार से सुनते हुए बिताई हैं. सुंदरता को प्यार करने के लिए हमें सिर्फ़ सुंदरता को प्यार करने की ज़रूरत होती है. और किसी चीज़ की नहीं. हमारा विवेक और तर्क हमें वह सबकुछ मुहैया करा देता है जो हमें इस प्रेम के पीछे जाने के लिए चाहिए होता है. हाँ, मैं मानती हूँ कि प्रेम बहुत रैशनल होता है. और उतना ही निर्भय.
प्रेम के पीछे जाने का यह रास्ता खुद एक वेगवती नदी बन जाता है. तुम इसके साथ बहते हो, सबकुछ इसके साथ बहता है. समय भी. समय के भीतर जो कुछ हो रहा होता है, वह भी. तुम पर कोई भार नहीं होता. रास्ते के बीच आने वाले पहाड़ तो क्या, एक छोटे पत्थर को भी यहाँ से वहाँ करने का भी भार नही. सब तुम्हारे लिए रास्ता छोड़ते चलते हैं. तुम्हारे लिए, या फिर शायद उस नदी के लिए. या शायद तुम में और प्रेम में कोई अंतर नहीं रहता.
नदी का काम पानी देना नहीं होता. नदी ख़ुद पानी है. नदी का काम बस होना है, बहना है. किसी एक के लिए नहीं है. जैसे तुम मेरे एक के लिए नहीं हो. मैं, तुम्हारे एक के लिए नहीं हूँ.
पी. एस. स्त्री हूँ. स्नेह स्त्री का स्वधर्म है.
सो, सस्नेह