सिद्धार्थ ने वाक़ई क्वैरंटीन के 21 दिनों में किताब लिख दी है. किताब का कवर मुझे बेहद पसंद आया, उसके रंग बहुत गहरे हैं. सुबह-सुबह किताब का एकसर्प्ट हिंदुस्तान टाइम्स पर पढ़ने के बाद से मैं लेखन के बारे में सोच रही हूँ.
कल मुझे इंस्टाग्राम पर किसी ने अपने हाथ से लिखे दो पन्नों की तस्वीरें भेजीं. न जाने वो गल्प था या जर्नल पर जो था, सुंदर था. क्वैरंटीन के इस समय में लेखक अपनी बालकनी में चिड़ियाओं के लौटने के बारे में बात कर रहा था.
मैसेंजर में भी आज लेखन पर एक सवाल आया, “अच्छा लेखन कैसे किया जाए? कैसे पता चलता है कि लेखन अच्छा है या खराब?”
एकाँत का लेखन से बड़ा पुराना रिश्ता है. कहा जा सकता है कि लेखन एक एकांतवासी का ज़रिया है, दुनिया से जुड़ने का. पर देखिए कि यदि आप लेखन को लेकर गंभीर हैं तो आपका एकांतवास बढ़ता जाएगा. आपको अधिक से अधिक समय अकेले, अपने साथ, अपने पात्रों के साथ बिताना होगा. आपके पात्र कभी बाहरी नहीं होते. वे आपका ही एक हिस्सा होते हैं, जिसके बारे में आप भी उतना ही जानते जाते हैं, जितना पात्र के बारे में जानने लगते हैं.
एकाकीपन कई तरह का हो सकता है. व्यक्तिगत भी और एक समाज का भी. अरुणाचल प्रदेश के एक गाँव का अपना एकाकीपन है, लैटिन अमेरिका का अपना. द हंड्रे़ड यिअर्स ऑफ सॉलिट्यूड में मानव के कई तरह के एकांत पर लिखने वाले गैब्रिएल गार्शिया मार्केज़ अपने नोबेल प्राइज़ भाषण में लैटिन अमेरिका के एकांत की बात करते हैं. मुझे उनके पात्रों में भयावह एकांत दीखता है. फिर चाहे वो ‘आइ ओनली केम टू यूज़ द फ़ोन’ में पागलों के अस्पताल में गलती से पहुँची वो औरत हो जिसके पति को यकीन दिला दिया जाता है कि उसका घर लौटना सबके लिए ख़तरनाक होगा या फिर ‘ऑफ़ लव एंड अदर डीमन्स’ की सीर्वा मारिया हो जिसपर प्रेतात्मा का साया होने के डर से कॉन्वेंट भेज दिया जाता है.
मार्केज़ खुद कहते रहे हैं कि उन्होंने जिए हुए को लिखा. उन्होंने इन लड़कियों के अकेलेपन को, उसकी यातना को अपने भीतर महसूस किया होगा, तभी वे ये कहानियाँ कह सके.
जो आप देख रहे हैं, वह कह देना कहानी नहीं है.
लगातार लिखते हुए, और लिखे हुए को मिटाते हुए मैं यह धीरे-धीरे समझ पा रही हूँ.
क्वैंरंटीन के दिनों में हममें से बहुत से लोग लिख रहे हैं. वे भी जिन्होंने पहले बहुत नहीं लिखा. अधिकतर लोगों को लिखने के लिए एकांत चाहिए होता है. ताकि वे बहुत सारी बाहर की चीज़ों से प्रभावित हुए बिना, अपने विचारों पर ध्यान दे सकें. पर अरुँधती जैसे लोग भी हैं, जो कहीं भी लिख सकते हैं. पिछले दिनों मैंने भी कहीं भी लिखना सीखा है.
उत्तर प्रदेश में पदयात्रा के दौरान चलते हुए लिखने लगी थी. क्योंकि दिन खत्म होने पर जब लिखने बैठती तो बहुत कुछ छूट जाता. चलते हुए जो दृश्य देखती, उस पर लिखना चाहती. दृश्य बदलते ही नई चीज़ें पुरानी चीज़ों को किसी गहरे गर्त में ढकेल देतीं.
लिखना सिर्फ़ कहना नहीं है, यह कहने से अधिक सुनना है. आप अपने आपको सुनना शुरू करते हैं तो बाहर की दुनिया को भी सुनने लगते हैं. कई बार बाहर की दुनिया को सुनते-सुनते आप ख़ुद को भी सुन लेते हैं. कई बार यह चक्र बन जाता है. मुझे लगता है कि इस सबको सुनने के बाद ही लिखा जा सकता है. जब आपकी उँगलियाँ कीबोर्ड पर कभी धीमी कभी तेज़ गति से नाच रही होती हैं, आपके भीतर वो सारी सुनी हुई बातें आपस में बातचीत करती हैं.
आपका लेखक उस बातचीत को सुनता है और क़िस्से की शक्ल देता जाता है. जैसे तमाम रंगों के धागों से मनचाहे रंग खींचकर कपड़ा बुना जाता हो. आपके पास यदि धागे न होंगे तो?
एकांत का लेखन अकेलेपन के लेखन से अलग है. अकेलेपन में आप इस अकेलेपन से लड़ने के लिए लिखते हैं. लिखना तब आपको एक सेंस ऑफ पावर देता है. अपने शब्दों पर अधिकार महसूस करना, फिर खुद पर अपना अधिकार महसूस करना और उसके बाद शायद अपने बाहर की दुनिया पर.
पर एकांत आपका चुना हुआ अकेलापन है. यहाँ आपको किसी पर अधिकार की ज़रूरत नहीं है. अधिकार या सत्ता पर मार्केज़ का कहा याद आता है. “सत्ता की भूख प्रेम न कर सकने की कापुरुषता से जन्म लेती है.” एकांत के मूल में यदि प्रेम है तो लेखन आपके लिए है.
अच्छे या बुरे लेखन का निर्णय मुझे लगता है कि या तो लेखक पर छोड़ दिया जाना चाहिए या पाठक पर. वर्जीनिया वूल्फ की ‘अ राइटर्स डायरी’ पढ़ते हुए मैं पाती हूँ कि वे खूब पढ़ती हैं. और जिन लेखकों पर पढ़ती हैं उन पर खूब टिप्पणियाँ करती हैं. उनकी टिप्पणियाँ बेबाक़ हैं. वे जानती हैं कि वे क्या कह रही हैं. आज के समय में हिंदी के पाठकों को लेखक पर ऐसी सुविज्ञ और ऐसी कठोर टिप्पणियाँ करते मैंने नहीं सुना.
आप यदि जानना चाहते हैं कि आपका लेखन अच्छा या बुरा है, तो अन्य लेखकों को पढ़िए. मास्टर्स को पढ़िए और अपने समय के लेखकों को भी. उसके बाद फिर अपने लेखन की तरफ़ लौटिए. आप यदि सचमुच जानना चाहते हैं तो जान जाएंगे आप कहाँ खड़े हैं. वूल्फ जैसे क्रिस्टीना रोज़ेटी और बायरन का बहुत ज़िक्र करती हैं. इसी तरह मार्केज़ फॉकनर का नाम लेते हैं या मुराकामी काफ़्का से प्रभावित दीखते हैं. हर कला की साधना के लिए आपको गुरु की आवश्यकता होती है.
अगर आप साधक हैं तो अपने गुरु तक पहुँच जाते हैं. लेकिन आप किसी को बलपूर्वक गुरू नहीं बना सकते. यह चुनाव दोनों तरफ़ से होता है.
21 दिन में किताब लिखने की सिद्धार्थ की घोषणा का असर मुझ पर यह हुआ है कि मैं रोज़ लिख रही हूँ. अनुशासन लेखन की दूसरी महत्वपूर्ण ज़रूरत है. इस अनुशासन का असर मैं सिर्फ़ अपने लेखन पर नहीं, बाकी जीवन पर भी देख रही हूँ. मुझे लगता है कि लेखन आपका कोई उत्पाद नहीं है. आपका जीवन आपका लेखन है और लेखन जीवन.
बुकोव्सकी कहते हैं कि अगर आप लिखे बिना जी सकते हैं, तो मत लिखिए.