लॉकडाउन डायरी: छूटती दुनिया के पास होने का सुख मौत के दुख पर बहुत भारी पड़ता है…

लॉकडाउन डायरी: छूटती दुनिया के पास होने का सुख मौत के दुख पर बहुत भारी पड़ता है…

देर से छत पर बैठा आसमान देख रहा हूँ। ऐसा भरा हुआ आसमान और ऐसी शांति, एकबारगी तो छलावा होने लगता है कि अपने रेगिस्तान में किसी ओटे पर लेटा हुआ हूँ।

इन दिनों सारे मौसम एक घर में सिमटकर रह गए हैं। बीस दिन बीत चुके हैं बाहर की दुनिया को देखे हुए। अंतिम बार घर का ताला कब लगाया था यह भी याद नहीं। जब कोरोना का डर खत्म हो जायेगा और अपनी रोजमर्रा की ज़िंदगी की ओर फिर से लौटने के लिए हम सब घरों से बाहर निकलेंगे तब घर का ताला लगाने के लिए बहुत देर तक हमें अपनी-अपनी चाबियाँ खोजनी पड़ेंगी। बाहर निकलकर कहीं पहुँचने के लिए हमें सिर्फ अपने घरों और गाड़ियों की चाबियाँ ही नहीं बसों के पास, मेट्रो के कार्ड और भी ऐसी तमाम जरूरी चीज़ें खोजनी पड़ेगी जिन्हें भूलने लगे हैं हम।

अपनी दुनिया जो हमसे बार-बार छूट जाती है उस दुनिया के पास होने का सुख मौत के दुख पर बहुत भारी पड़ता है। घर से फोन आते रहे कि अपने घर लौट आना चाहिए मुझे। कई बार सोचने भी लगा कि कोई जुगाड़ बैठाकर पहुँचा जा ही सकता है। पर मैंने खुद को रोके रखा। इन दिनों कई-कई बार खुद को कोसता हूँ अपने फैसलों के लिए। पर आसपास को देखते हुए लगता है कि सिर्फ अपने बारे में सोचकर फैसले नहीं लेने चाहिए। हमारी भावुकताओं का खामियाजा जाने कितनी ज़िंदगियों को उठाना पड़ जाए। मैं खुद को इसलिए भी रोके रह पाया क्योंकि एक घर के अंदर रहने के लिए तमाम सुविधाएँ मौजूद हैं मेरे पास। सबसे ज्यादा जो चीज़ कचोटती है वो ये सुविधाएँ ही हैं। जिन्हें भोगते हुए कभी कोई तस्वीर याद आ जाती तो कभी कोई फोन कॉल। तस्वीरें हज़ारों किलोमीटर पैदल, रिक्शा चलाकर, ट्रकों में छिपकर जो लोग अपने घरों को निकल पड़े हैं उनकी। फोन कॉल्स उन लोगों के बारे में जो कहीं फंसे रह गए बिना किसी बुनियादी सुविधा के।

सुमेर सिंह राठौड़ के फेसबुक वॉल से उठाई गई उनके ठीहे की तस्वीर…

कोरोना और लॉकडाउन के दिनों का यह मौसम गाँव में फसलों के पक चुकने का मौसम है। इन दिनों गाँव से जितनी भी तस्वीरें आई ज्यादातर खेतों से। कोई कटती फसलों की तो कोई निकलते अनाज की। यह दीवाली बाद की पूरी मेहनत के, ठिठुरती रातों के रतजगों के फलने के दिन हैं। अचानक से आसमान बादलों से भरने लगता है तब माथे पर उभरती लकीरें उन्हें किसी भी भय से अंदर बैठे रहने के लिए नहीं रोक पाती। जीवन जीने के जतन मौत के डर से कितने ज्यादा जरूरी हैं।

सुमेर सिंह राठौड़ के इंस्टाग्राम अकाउंट (Desertfolklore) से ली गई तस्वीर

इन दूरियों के दिनों हम सब कितने पास आ गए हैं। कितने ऐसे लोग जो हमारी निजी दुनियाओं से खो गए थे हाल-चाल जानने को लौटने लगे हैं। इस वक्त मैं दोस्तियों, रिश्तों को एक नये सिरे से समझने की कोशिश कर रहा हूँ। ये पिछले बीस दिन कितने भारी गुजरे हैं। अपने गाँव से सैकड़ों किलोमीटर दूर यहाँ दिल्ली के इस घर में हम छह लोग हैं और तीन बिल्लियाँ। बिल्लियाँ भी इस घर में पिछले बीस दिनों से ही हैं। वे जब रात में आवाज़ें करती हैं तो लगता है कि रो रही हैं। एक अजीब सा खालीपन और डर हावी होने लगता है। पिछले दिनों कितनी ही बार छोटी-छोटी बातों पर फूट-फूटकर रोया हूँ। कभी दूर अपने गाँव पैदल लौटते लोगों की तस्वीर देखकर घर की याद आने पर। कभी जिम्मेदारों की तमाम लापरवाहियों को भुलाकर उनके बुने रोशिनियों और आवाज़ों के जाल में फंसते लोगों की मुर्खताओं पर। कभी ऐसे तमाम मौके जहाँ बोलना जरूरी था वहाँ खुद को अपनों के ही सामने खड़ा पा कर।

पर हरेपन की उम्मीद तमाम पतझड़ों से उबर जाने का सुख देती है। एक साथ सुहावनी और डरावनी लगती सड़कों के किनारे दिखते शहतूत के पेड़ों को सिर्फ दूर से ही नहीं देखेंगे पास जाकर उन्हें चखेंगे भी। कि एक दिन यह बीमारी भी बीत जायेगी। ये डर भी बीत जायेगा। थमे हुए पाँव फिर से चलने लगेंगे। कि हम अपनी-अपनी दुनियाओं में बिना किसी डर के हँसते हुए लौटेंगे।