भारत के प्रिय नागरिकों, फरवरी 15, 2020
मैंने 31 साल के अपने जीवन काल में कभी नहीं सोचा था कि मुझे जेल से आपको संबोधित करने का अवसर मिलेगा. गाजीपुर जेल में यह मेरा पांचवा दिन है. जेल के महिला वार्ड में पिछले चार दिनों का अनुभव बहुत कुछ सिखाने वाला है. ये सीखें इस देश के बारे में भी है और मेरे बारे में भी. जेल में गांधी की ‘ सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ पढ़ते हुए ये सीखें और भी संघनित हो उठती हैं. मैं देखती हूं कि शासकों के बदल जाने से शासन बहुत नहीं बदलता अगर शासकों की मंशा न बदले. यह बात मैं किसी पार्टी या सरकार विशेष के संबंध में नहीं कह रही हूं.
दस पदयात्रियों को जिनमें एक पत्रकार भी शामिल है, को पकड़कर जेल में डाल दिए जाने के पीछे शासकों की मंशा आखिर क्या हो सकती है? हमारे पैदल चलने से यदि देश या राज्य में शांति भंग होने की आशंका है तो क्या इस सवाल पर विचार नहीं किया जाना चाहिए कि प्रदेश की शांति कितनी भंगुर है?
जेल के भीतर दो बैरकों में 40 से अधिक महिलाएं हैं जबकि एक बैरक मात्र 6 बंदियों के लिए है. अधिकारी तक मानते हैं कि यहां पूरी व्यवस्थाएं नहीं है. अधिकतर महिलाएं दहेज प्रताड़ना के मामले में कैद है. कुछ महिलाएं ऐसी भी हैं जिनका मामला पांच सालों से चल रहा है पर अब तक फैसला नहीं हुआ है. पांच साल तक निरपराध जेल में रहना? कानूनन जब तक जुर्म साबित नहीं हो जाता आप निरपराध ही तो होते हैं. यदि न्यायालय इन बंदियों को निरपराध घोषित कर दे तब? इनके पांच साल कौन लौटा सकेगा? यहां कुछ ऐसी भी महिलाएं हैं जिनकी जमानत के आदेश हो चुके हैं पर उनकी जमानत कराने वाला कोई नहीं. इनकी जिम्मेदारी आखिर किसकी है? क्या किसी की नहीं? जेल में आकर आप एक ऐसे भारत से मिलते हैं, जो बेहद लाचार है. ये सब महिलाएं मुझे उम्मीद की नजर से देखती हैं. इन्हें लगता है कि मैं इनके लिए कुछ कर सकूंगी. ये कहती हैं कि जैसे आपको बिना जुर्म जेल में लाया गया है, उसी तरह से हमें भी लाया गया है. यदि एक भी महिला सच कहती है तो ये हमारी न्याय-व्यवस्था की असफलता है.
यह व्यवस्था किस तरह चींटी की चाल से चलती है, उससे आप सभी तो वाकिफ होंगे ही, पर इस गतिहीनता का असर जिन पर पड़ता है, वे ही जान सकते हैं कि यह कितनी हिंसक और अमानवीय है. खास तौर पर आत्महत्या कर मर जाने वाली या मार दी जानी वाली बहुओं के मामले में बहुत काम किए जाने की जरूरत है. सही काउंसलिंग कराए जाने की जरूरत है समाज के इन तबकों में कि परिवारों में आपसी सौहार्द का न होना पूरे परिवार को कहां तक ले जा सकता है. एक परिवार के पांच से छह लोग जेल में हैं. परिवार की एक सदस्य की जान जा चुकी है. छोटे बच्चों से उनका भविष्य छिन जाता है. और वकीलों को मोटी-मोटी फीस वर्षों तक देनी होती है. अक्सर अशिक्षा और अज्ञान के कारण स्थितियां और भी विषम हो जाती हैं. वकीलों, पुलिस और न्यायालय के कर्मचारियों की भी ट्रेनिंग ऐसी नहीं होती जिसमें कम से कम नुकसान में जल्द से जल्द न्याय दिलाया जाए और मध्यस्थता के जरिए चीजें निपटाई जाए.
गांधी प्रिटोरिया में अपने पहले मुकदमे से मिली सीख के बारे में लिखते हैं, ‘‘मैंने सच्ची वकालत करना सीखा, मनुष्य स्वभाव का उज्ज्वल पक्ष ढूंढ निकालना सीखा, मनुष्य हृदय में पैठना सीखा. वकील का कर्तव्य फरीकेन (दोनों पक्ष) के बीच खुदी खाई को भरना है. इस शिक्षा ने मेरे मन में ऐसी जड़ जमाई कि मेरी बीस साल की वकालत का अधिक समय अपने दफ्तर में बैठे सैंकड़ों मुकदमों में सुलह कराने में ही बीती. इसमें मैंने कुछ खोया नहीं. पैसे के घाटे में रहा यह भी नहीं कहा जा सकता. आत्मा तो नहीं गंवाई.’’
हमारे वकीलों, अधिकारियों व प्रशासन व्यवस्था से जुड़े अन्य कर्मचारियों को इससे सीखने की जरूरत है. कल की एक घटना का जिक्र यहां करूंगी. कल दोपहर में यहां के सांसद अफजाल अंसारी सत्याग्रहियों से मिलने आए, महिला बैरक को भी संदेश मिला कि वह यहां आएंगे. उनके विजिट से पहले सभी महिलाओं से अभद्र भाषा में कहा गया कि दीवारों की ईंटों के बीच की दरारों में फंसे लकड़ियों के टुकड़ों पर सूखते कपड़ों को हटा लें. कपड़े सुखाने के लिए इन बैरकों में कोई अन्य व्यवस्था नहीं है.
मेरे कपड़े एक साथी कैदी ने हटा दिए. लेकिन सांसद अंदर नहीं आए. मुझे उनसे मिलने के लिए जेल अधीक्षक के दफ्तर में ले जाया गया. मुझे इस तरह अन्य कैदियों के साथ रखे जाने पर सांसद ने आपत्ति जताई, मेरे लिए अलग व्यवस्था करने की हिदायत दी. बहर से कंबल, तकिया और बिछावन भी भेजा. पर अन्य कैदियों का क्या? बैरकों में किसी तरह की सुविधा नहीं है. 12 ए में नहाने के लिए स्नानागार तक नहीं है खुले में नहाना पड़ता है. कैदियों के घर से जो सामान आते हैं, जो उनके कपड़े आदि हैं, उन्हें रखने के लिए प्लास्टिक के झोलों को दीवारों में खुटियों पर टांगने भर का सहारा है, किसी तरह की अलमारी या लॉकर की कोई व्यवस्था नहीं है. सुबह का नाश्ता भी रोज नहीं मिलता है. हफ्ते में दो दिन पाव रोटी और दो दिन भींगे चने. बाकी दिन सिर्फ चाय.
इस तरह की अव्यवस्था मुझे लगता है कि अधिकतर जेलों में होगी. एक और समस्या जो मैं देख पाती हूं, वह है संवाद की. जेल में अपनी जमानत या अन्य सूचनाओं की राह देख रही कैदियों तक तुरंत सूचना पहुंचाने की कोई व्यवस्था नहीं है. अगले दिन, जब तक परिवार का कोई सदस्य उन तक पहुंचता, तब तक वे आशंकाओं और उम्मीद के भंवर में डूबती-उतराती रहती हैं. रोती हैं. जेल सुधार व न्याय व्यवस्था में सुधार मुझे इस समय की सबसे बड़ी जरूरत मालूम होते हैं.
प्रदीपिका
8 Comments
विष्णु प्रभाकर February 16, 2020 at 3:21 pm
बिहार मेल की टीम को बहुत बहुत शुक्रिया।
विष्णु नारायण सर कृपया अपने वेब डेवलपर से कहके AMP इंस्टॉल करायें इससे वेबसाइट की रीच और वेबसाइट जल्दी ओपन होगी।
शुक्रिया
विष्णु प्रभाकर
Ullas Pandey February 16, 2020 at 5:56 pm
जब तक जनसेवक होने की खाल के नीचे शासक होने के दंभ का दमन नहीं होगा, तब तक यही होगा। मेरा गांव भी इसी जिले में है , सुनकर आहत हूं। ऐसे जेल के बाहर भी सरकारी तंत्र इतना ही लाचार और आलसी है। तुम्हारी हिम्मत से ज्यादा तुम्हारी दृष्टा भाव के लिए तुम्हें नमन करता हूं…. तुम इतने अल्प समय में भी यह सब देख पाई, लिख पाई।
Rajesh kumar February 16, 2020 at 11:30 pm
It’s facts need to changes my lord system as like prime minister to pradha sewak.my humble request kindly hand over a copy of your letter to our respected pradhan Sevak saheb for change the scenario.
Shams Shamsul February 17, 2020 at 1:07 pm
दुनिया के सब से बड़े लोकतंत्र में यह सब डंके की चोट पर हो रहा है और हम सब तमाशाई बने हुवे हैं। मैं तो बहुत शर्मिंदा हूँ। कोई साथी सुझाव दें क्या किया जा सकता है.
Amit February 17, 2020 at 5:21 pm
Abhi bahut si kami ke bare me bataya nahi gaya hai. Mujhe agar bolne ka Mauka kahin mile to main bhi Buxar bihar ke jail ke bare me bahut kuch bata sakta hoon
Bhumika saraswat February 17, 2020 at 6:39 pm
Shi kaha h pradeepikaji aapne.Hmare saath bhi yhi hi rha h mere pariwaar k saath Mera pariwaar innocent h phir bhi saza bhugat rha h.😭😭
सुमन राज February 19, 2020 at 6:49 pm
क्या कॉमेंट करें। किस किस को रोएँ। आँसू सूख जाएँगे पर रोना बन्द नहीं होगा। और न ही ये ज़ुल्म जिसकी ज़िम्मेदारी लेने वाला कोई नहीं। नहीं कह सकते ये कभी बदलेगा।
Shams Shamsul February 20, 2020 at 4:53 pm
बहादुर साथी प्रदीपिका और उनके साथियों के जेल भेजे जाने के ख़िलाफ़ क्या क़ानूनी उपचार किया जा रहा है, उनके परिवारों और संघर्ष में साथ दे रहे लोगों से कैसे संपर्क किया जा सकता है, महरबानी करके, जानकारी दें। मेरा ईमेल notoinjustice@gmail.com है।