पश्चिमी उत्तरप्रदेश का बिजनौर जिला, और बिजनौर जिले का ही तहसील ‘चांदपुर’. चांदपुर में कांग्रेस के बैनर तले बुलाई गई ‘किसान महासभा’ में तकरीबन दो बजे प्रियंका गांधी मंच पर पहुंचती हैं. गन्ना देकर उनका स्वागत किया जा रहा है. मैं इस कोशिश में हूं कि कुछ नौजवानों से बात करके आगामी चुनाव में कांग्रेस और अन्य दलों के समीकरण और संभावनाओं को टटोला जाए- कि तभी प्रियंका को सुनने पहुंचे एक शख्स की आवाज़ मेरे कानों में पड़ती है कि सोनिया गांधी की बेटी है प्रियंका. अंग्रेज है. देखो तो कितनी गोरी-चिट्टी.
प्रियंका गांधी के लिए की गई ऐसी टिप्पणी मुझे बरबस काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र दिनों में ले जाती है. साल 2010-11 की बात है. राहुल गांधी विश्वविद्यालय आए थे. छात्रों का एक धड़ा तब उनका विरोध कर रहा था, और उसी विरोधी धड़े में शामिल एक छात्र ने ऐसे नारे वहां उछाले थे कि ‘इटालियन बछड़ा’ वापस जाओ. हालांकि इस नारे को अधिक तवज्जो नहीं मिली थी और बात तब आई-गई हो गई थी, लेकिन राहुल गांधी के लिए किसी के द्वारा तब इरादतन उछाले गए नारे और प्रियंका के लिए अब गैर-इरादतन की गई टिप्पणी में कुछ तो जरूर ऐसा है जो हिन्दी पट्टी में कांग्रेस को पांव नहीं जमाने दे रहा. अब आगे—
इस सवाल का जवाब जानने के लिए मैंने और आशुतोष ने दिल्ली से मेरठ, मेरठ से बिजनौर, बिजनौर से मुज़फ़्फ़रनगर और फिर दिल्ली वापसी तक का रास्ता मोटरसाइकिल से तय किया. रास्ते में कई लोगों से रुक-रुककर बातें की. राकेश टिकैत के आंसूओं के बाद पश्चिमी उत्तरप्रदेश की बदलती सियासत को टटोलने की कोशिश की. चूंकि साल 2013 के मुजफ्फरनगर के दंगों ने पश्चिमी उत्तरप्रदेश की सियासत को बदल कर रख दिया, इसलिए इस सवाल को हर मिलने वाले के सामने उछाला कि साल 2022 में होने वाले चुनाव में क्या कुछ हो सकता है? कांग्रेस के लिए और विशेष तौर पर प्रियंका की इंट्री के बाद कांग्रेस के लिए कुछ बदल भी रहा है या नहीं? – हमारे इस सवाल पर मेरठ की सड़कों पर बिरयानी बेचने वाले 22 साल के जुबैर कहते हैं, ‘हमें तो अखिलेश यादव अच्छे लगते हैं, लेकिन घर की महिलाओं के बीच प्रियंका का क्रेज अधिक है. रही बात कांग्रेस को वोट देने की तो उसके बारे में अभी सोचा नहीं, और तो और यहां कोई कांग्रेस का नेता भी नहीं दिखाई देता.’
कांग्रेस के किसी नेता का लोगों के बीच न नजर आना उसकी बड़ी कमजोरी है. प्रियंका गांधी भले ही लाख कोशिशें कर रही हों और उन्हें कवर करने के लिए नेशनल और क्षेत्रीय मीडिया मौके पर पहुंच जाता हो लेकिन यह अपने तरह का सच है कि ‘मंडल और कमंडल’ की राजनीति के उभार के साथ ही देश के सबसे बड़े सूबे से कांग्रेस के पांव उखड़ते चले गए. उसका समूचा आधार अलग-अलग पार्टियों में शिफ्ट हो गया. साल 2009 के लोकसभा चुनाव को अपवाद के तौर पर छोड़ दें तो उत्तरप्रदेश के मतदाताओं ने कांग्रेस को कमोबेस नकार ही दिया है – और तो और 2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी को भी अमेठी से हार का मुंह देखना पड़ा, लेकिन इस बीच कांग्रेस इस कोशिश में है कि वो कुछ कमाल कर सके.अब तक खुद को रायबरेली और अमेठी तक महदूद रखने वाली प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तरप्रदेश का प्रभारी बनाया गया है.
प्रियंका गांधी भी खुद को और कांग्रेस को खबरों में रखने के लिए तमाम कोशिशें करती नज़र आ रही हैं. चाहे योगी सरकार व प्रशासन की तमाम कोशिशों को धता बताते हुए हाथरस में रेप पीड़िता और परिवार के पक्ष में खड़ा होना हो या फिर हाल के दिनों में संगम में लगाई गई डुबकी. चाहे दिल्ली की सड़कों पर किसानों के ट्रैक्टर परेड के दौरान रामपुर के मृत किसान ‘नवरीत सिंह’ की मौत के बाद उनके परिजनों से मुलाकात करनी हो या फिर हाल के दिनों में पश्चिमी उत्तरप्रदेश के भीतर कांग्रेस के बैनर तले होने वाली किसान महासभाएं. प्रियंका गांधी की तमाम गतिविधियां उन्हें सुर्खियों में तो जरूर ले आई हैं, लेकिन सवाल फिर भी यही है कि क्या प्रियंका गांधी के महज सुर्खियों में रहने भर से कांग्रेस के दिन बहुरेंगे?
चांदपुर में प्रियंका गांधी की सभा में पहुंची पेशे से वकील 29 वर्षीय ऐमन जमाल हमसे बातचीत में कहती हैं, ‘देखिए अभी चुनाव बहुत दूर हैं, लेकिन वर्तमान सरकार महंगाई पर काबू नहीं कर पा रही. घर चलाना मुश्किल होता जा रहा है. किसानों के लिए भी मुश्किलें खड़ी की जा रही हैं. बात गर विधानसभा की है तो उन्होंने अभी अपना मन नहीं बनाया है लेकिन वो भाजपा को हराने वाली पार्टी को प्राथमिकता देंगी.’ – पश्चिमी उत्तरप्रदेश के भीतर तारी खदबदाहट और राकेश टिकैत के आंसूओं के भीतर कांग्रेस के लिए छिपी संभावनाओं के सवाल पर जनवाणी अखबार के डिजिटल संस्करण के क्रिएटिव एडिटर अजीत पांडे कहते हैं कि कांग्रेस के लिए कुछ संभावनाएं तभी बनती हैं जब वह राष्ट्रीय लोक दल के साथ चली जाए. दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है. क्योंकि हालिया प्रकरण से सीधे तौर पर रालोद को पश्चिमी उत्तरप्रदेश में फायदा पहुंचता दिख रहा है.
जयपाल सिंह ‘जाटव’ की मानें तो कांग्रेस और उनका जुड़ाव 30 सालों से अधिक का है. वे अमरोहा से चलकर बिजनौर प्रियंका गांधी की सभा में शामिल होने आए हैं. सूबे में कांग्रेस की वापसी के सवाल पर वे कहते हैं, ‘देखिए क्षेत्रीय पार्टियों के दिन लद रहे हैं. प्रियंका गांधी खूब मेहनत कर रही हैं और जनता सबकुछ देखती-समझती है.’ – हमारे इस सवाल पर कि आप जिस बिरादरी (जाटव) से ताल्लुक रखते हैं, उस बिरादरी का अधिकांश हिस्सा तो बसपा के साथ चला जाता है, और बाकी की बिरादरियां जैसे यादव और मुसलमान सपा के साथ और बनिया, राजपूत और ब्राह्मण भाजपा के साथ हैं. जाट पश्चिमी उत्तरप्रदेश में रालोद के साथ रहे हैं और हालिया प्रकरण के बाद भाजपा से फिर से छिटकते दिख रहे हैं तो वे हमारी बातों से भी ना-इत्तेफाकी नहीं जताते.
प्रियंका गांधी को ‘बिजनौर-चांदपुर’ की किसान महासभा में सुनने पहुंचे दो और नौजवान (अब्दुल रज़्ज़ाक और मोहम्मद हिफज़ान) की मानें तो वे दरअसल इमरान प्रतापगढ़ी की शायरियां सुनने वहां पहुंचे थे. हमारे इस सवाल पर कि टिकैत के रोनेवाले प्रकरण के बाद वे इलाके की राजनीति को कैसे बदलते देख रहे? उनका जवाब था कि उन्हें इससे अधिक मतलब नहीं. वे ओवैसी और ओवैसी के गठबंधन के साथ जाने की सोच रहे हैं. हमारे इस सवाल पर कि ओवैसी या उनकी पार्टी उत्तरप्रदेश में शायद ही सत्ता में आ सके,- उनका कहना था कि ओवैसी किंग न हों तो किंग मेकर हो सकते हैं- क्योंकि कोई पार्टी उनके मसअलों पर सिवाय ओवैसी के खुलकर नहीं बोल रही. जो उनके लिए बोलेगा वे उसे ही चुनेंगे.
चांदपुर के सभास्थल पर प्रियंका गांधी को सुनने दो जाटव बिरादरी के लोगों में से एक बुजुर्ग पहले तो कांग्रेस और पंजे के साथ जाने की बात कहते हैं, लेकिन फिर कुरेदने पर मायावती के साथ न छोड़ने की बात कहते हैं. तो वहीं उनके साथ बैठा शख्स तमाम मसअलों पर मायावती की चुप्पी पर कहते हैं कि मायावती अभी कमजोर हैं इसलिए चुप हैं, मजबूत होते ही सभी के पक्ष में बोलने लगेंगीं. वे तो मायावती का ही साथ देंगे. इसके अलावा प्रियंका गांधी को सुनकर नजदीक के बाजार में हमसे मिले शख्स (चांद मोहम्मद) कहते हैं कि यदि कांग्रेस और सपा साथ रही तो कांग्रेस नहीं तो वे सपा का साथ देंगे. – क्योंकि चांदपुर में कांग्रेस के पास एक स्थानीय मजबूत नेता है. नाम है शेरबाज़ पठान. जो पूर्व में सपा के विधायक भी रह चुके हैं.
तो कुल मिला जुलाकर अंत में यही कहना है कि लगभग 800 किलोमीटर मोटरसाइकिल चलाते हुए और सैकड़ों लोगों से बातचीत के बाद कांग्रेस के लिहाज से बड़ी कठिन डगर है पनघट की – और कांग्रेस के पास पश्चिमी उत्तरप्रदेश में न धरातल पर काम करने वाले कार्यकर्ता दिखाई देते हैं और न ही कोई ठोस जातीय आधार…