बिहार की राजनीति में ‘आधी आबादी’ की हिस्सेदारी कहां टिकती है?

बिहार की राजनीति में ‘आधी आबादी’ की हिस्सेदारी कहां टिकती है?

बिहार का पटना शहर. आजकल राजनीतिक पोस्टरों से पटा  है. रैलियां भले ही वर्चुअल हो रही हों लेकिन हर चप्पे, गली, मोहल्ले और स्ट्रीट लैंपो पर एक पोस्टर के ऊपर दूसरा पोस्टर चस्पा है. ऑटो से पटना घूमते समय मैं इन्हीं पोस्टरों को देखकर यहां के राजनीतिक माहौल का अंदाजा लगा रही थी. इन पोस्टरों को देखते-देखते ही ख्याल आया कि इसमें बिहर की आधी आबादी कहां हैं? फिर ध्यान से पोस्टरों को देखना शुरू किया लेकिन महिलाएं लगभग नदारद. तो फिर, कहां है महिलाओं का प्रतिनिधित्व? तो क्या यह मान लिया जाए कि यहां राजनीति पुरुषों की, पुरुषों के लिए और पुरुषों द्वारा ही है. खबरों को देखते-सुनने के नाते यह तो पता है कि दुनिया भर में महिलाएं प्रतिनिधित्व, समान वेतन और समानता की लड़ाई लड़ रही हैं और बिहार भी इसी दुनिया का हिस्सा है और यहां की स्थिति कुछ ऐसी है कि घर से लेकर सड़क तक अपनी जगह बनाने के लिए अगर यह कहा जाए कि हर घंटे लड़ाई लड़नी पड़ती है तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.

तो बात बिहार में महिलाओं की राजनीति पर-

बिहार विधानसभा पेज के अनुसार राज्य के कुल 243 विधानसभा सीटों में से 28 सीटें महिलाओं के पास हैं और इनमें से एक मंत्री हैं. एडीआर के आंकड़ों के अनुसार 2006 से 2016 के बीच बिहार में (संसदीय, राज्य विधानसभा या विधान परिषद चुनाव में) कुल 8163 उम्मीदवारों ने हिस्सा लिया, जिनमें से सिर्फ 610 महिलाएं थीं यानी कुल संख्या का सिर्फ सात फीसदी. इसी एडीआर के आंकड़े के अनुसार 2015 में 273 महिलाओ ने चुनाव लड़ा जिनमें से 28 को जीत मिली थी जो कि 2010 के विधानसभा चुनाव से कम था.  2010 में 34 महिलाएं विधानसभा पहुंची थीं. आपको यह भी बता दें कि बिहार विधानसभा में महिलाओं की संख्या देश के कई अन्य राज्यों के मुकाबले काफी बेहतर स्थिति में है.

राजनीतिक पार्टियों के पोस्टरों से क्यों गायब हैं महिलाएं?

इसे समझने के लिए मैंने समता पार्टी और राजद से विधानसभा का चुनाव लड़ चुकीं कंचन बाला से बात की तो उन्होंने कहा, ” यहां राजनीतिक सभाओं में किसी भी पार्टी की कितनी महिलाओं को आप भाषण देते देखती हैं? ऐसा तो नहीं है कि इन पार्टियों के पास बोलने वाली महिलाएं नहीं हैं. अगर कोई महिला खुद चुनाव लड़ रही है तो उसे भले ही मंच दिया जाए लेकिन इससे इतर महिलाओं की भूमिका डोर टू डोर कैंपेन (घर-घर जाकर चुनाव प्रचार) करने तक ही सीमित रखी जाती है. उन्हें मंचों पर भाषण देने और किसी क्षेत्र में पार्टी के पूरे चुनाव अभियान को नेतृत्व देने का मौका कभी-कभार ही मिलता है. राजनीति कोई समाज से इतर चीज नहीं है. मैं सीधा-सीधा कहूं तो आप जो दोयम दर्जे की स्थिति समाज में महिलाओं की देखती हैं, वही स्थिति राजनीति में भी महिलाओं की है और ऐसा सिर्फ बिहार में नहीं है बल्कि देश की पूरी राजनीति का यही हाल है.”

इसी संबंध में वह लालू प्रसाद का जिक्र करती हैं.  वह बताती हैं कि एक बार लालू प्रसाद की रैली खत्म होने के बाद मोतिहारी की एक महिला ने उनसे (लालू प्रसाद) से कहा, ” लालू जी आप औरत को महिला बना दिए लेकिन आपने रैली में महिलाओं का जिक्र तक नहीं किया .”  वह कहती हैं कि लालू प्रसाद कई तेजतर्रार महिलाओं को राजनीति में लेकर आए लेकिन वह पर्याप्त नहीं था.

राजनीतिक पोस्टर में महिलाओं को जगह

बिहार पूरे देश में पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण देने वाला पहला राज्य बना और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की इसके लिए सराहना भी हुई और बिहार में महिला वोट पर नीतीश अपनी पकड़ बनाने में भी कामयाब हुए लेकिन इन सब के बीच एक और बात है राजनीति में. वह है स्वतंत्र रूप से महिलाओं की राजनीति में स्थिति. साल 2019 का लोकसभा चुनाव ले लें, इस चुनाव में बिहार की तीन महिलाएं संसद भवन तक पहुंचने में कामयाब हुईं और तीनों के पति नेता हैं. आप प्रतिनिधियों के नामों की सूची देखेंगे तो पाएंगे कि बड़ी संख्या में वह महिलाएं इन सूची में हैं, जिनमें से कुछ के पति आपराधिक मामलों की वजह से चुनाव नहीं लड़ सकते तो वह लड़ रही हैं, कुछ के पति राजनीति में थे, जिनका देहांत हो गया तो अब राजनीति की कमान उनके हाथ में आई और कुछ के परिवार का राजनीतिक प्रभाव रहा है.

पारिवारिक और सामाजिक दबाव की वजह से स्वतंत्र रूप से राजनीति में आना महिलाओं के लिए काफी मुश्किल है क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं और पुरुषों की बातों को अब भी एकसमान नहीं लेता है, अब भी यह माना जाता है कि पुरुषों की बातों का वजन ज्यादा होता है.

महिलाएं राजनीति में सीधे नीतिगत फैसले लेने वाले टेबल से गायब हैं. राजद के पोस्टरों पर राबड़ी देवी की तस्वीर दिखती है लेकिन राजद परिवार के अलावा कोई भी दूसरी महिला पोस्टर पर नहीं है, यहां तक कि जिस भगवतिया देवी को मौका देने का पार्टी बार-बार जिक्र करती है, उन्हें भी वह अपने पोस्टरों से अलग रखती है, जबकि कई पुराने नेता पोस्टर पर दिखते हैं.

अब आते हैं जीत के फैक्टर पर

कुछ महीने पहले राजद नेता तेजस्वी यादव ने पार्टी की महिलाओं को लेकर एक कार्यक्रम का आयोजन किया था.  उस कार्यक्रम में उन्होंने कहा था कि राजद आगामी विधानसभा चुनाव में महिलाओं को पर्याप्त संख्या में टिकट देगा. उन्होंने कहा कि पार्टी ने 2015 के विधानसभा चुनाव में 10 महिलाओं को टिकट दिया और वह सभी चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचीं. इस पर उन्होंने जोर देते हुए कहा कि राजद ही वह पार्टी थी जिसने दलित महिला भगवतिया देवी को विधानसभा तक पहुंचाया था। वहीं नीतीश कुमार बार-बार यह कहते आएं हैं कि उनकी सरकार में महिलाओं और लड़कियों का विशेष ध्यान रखा गया।

इन सब बयानों के बीच पारिवारिक और सामाजिक दबाव की वजह से स्वतंत्र रूप से राजनीति में आना महिलाओं के लिए काफी मुश्किल है क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं और पुरुषों की बातों को अब भी एकसमान नहीं लेता है, अब भी यह माना जाता है कि पुरुषों की बातों का वजन ज्यादा होता है. और राजनीति में यह वजन और अधिक हो जाता है, कुछ अपवादों को छोड़कर.

मेरा सवाल अब भी पटना की पोस्टरों को देखकर वही है कि जब पार्टियां बार-बार यह कह रही हैं कि उन्हें महिलाओं के प्रतिनिधित्व का पूरा भान है, वह महिलाओं का हिस्सा, उन्हें देने के लिए तैयार हैं लेकिन राज्य की इन दो बड़ी क्षेत्रीय पार्टियों समेत भाजपा और कांग्रेस के पोस्टरों से महिलाएं क्यों नदारद हैं? इन दो पार्टियों के बड़े कार्यक्रमों में महिलाओं को क्यों दूसरी कतार का नेतृत्व भी मुश्किल से दिया जाता है.